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________________ १८२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ कर्म जड पद्गल हैं और जीव अनतशक्ति का स्वामी। केवल ज्ञान का अखट भण्डार अपने आप में सजोये बैठा है। भगवान् बनने की क्षमता रखता है। जीवात्मा की दशा फिर भी दयनीय क्यो ? उपस्थित महानुभावो | कभी आपने चिंतन-मनन भी किया ? आपके पास एक ही उनर है-'We have no time मारे पास समय का अभाव है। ऐसा कहना क्या अपने आपको धोखा देना नही है ? ममय कही नही गया? किंतु तत्त्व ज्ञान के प्रति हमारी उपेक्षा वृत्ति रही है । एक राजस्थानी कवि कहता है-- "दुनियां रा थोकडा ये घणा ही चितारिया आत्मा रो थोकडो चितार लेनी ।।" इमलिए जागृत आत्माओ को कम से कम निज स्वभाव का ज्ञान-विज्ञान वितन कुछ तो करना ही चाहिए। "अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा स्वरूप है तो यह भेद-दीवार कहां अटक रही है ? परमात्मा दशा की प्राप्ति क्यो नही हो रही है ? इसलिए कहा है- "पढम नाण तो दया ।' पहले जानो फिर करो । भेद-विवक्षा को समझने के लिए कहा है आत्मा परमात्मा मे कम ही का भेद है। फर्म गर कट जाये तो फिर भेद है न खेद है ।' कर्मो का बहुमुखी प्रभाववास्तव म देखा जाय तो वात वावन तोला पावरत्तो सही है। एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व प्राणी कर्माधीन है । कर्मेश्वर ने सव पर अपना भारी प्रभुत्व जमा रखा है। मोक्षस्य आत्माओ के अतिरिक्त ऐसा कोई भी जीव-जन्तु नही वचा है जो कर्म कीट से विलग किंवा पृथक् रहा हो, भले कितना भी हृष्ट-पुष्ट शक्तिसम्पन्न क्यो न हो किन्तु मव के सब कर्म वीमारी मे पीडित-दुखित एव ग्रसित है। इस कारण ससारी प्रत्येक आत्माएँ नानाप्रकार की पर्यायो मे परिवर्तित होती हुई अपार ससार की गली-कुचो मे परिभ्रमण करती रहती है । भ० महावीर ने कहा है एगया देवलोए सु णरएसुवि एगया। एगया आसुर फाय अहा कम्मेहि गच्छई ॥ एगया खत्तिओ होई तओ चण्डाल बुक्कसो । तओ कीड पय गोय तओ पुथु पिपीलिया ॥ -उत्तरा० अ० ३ गा० ३।४ भव्यात्माओ । स्वकृत-कर्मों के अनुमार यह जीव कभी स्वर्ग, कभी नरक, कभी अमुरकाय, कभी क्षत्रिय, कभी चडाल तो कभी वर्णशकर जातियो मे और कभी-कभी कीट, पतगे, कु थुए और चीटी आदि योनियो मे उत्पन्न होता है। कर्म पुद्गल जड माने हैं और आत्मा चैतन्य स्वस्प | फिर जड और चेतन का सयोग और सम्बन्ध कैसे और क्यो? योग भी नैमेत्तिक कारणजनदर्शन मे तीन योग माने गये हैं । "कायवाड मन कर्मयोग (तत्त्वार्थमूत्र) ये तीनो योग भी जड हैं । जिस प्रकार एक उद्योगपति की देख-रेख मे अनेकानेक नौकर-चाकर कार्य कर्म करते हैं। परन्तु लामालाभ का उत्तरदायिन्व सारा उम स्वामी के सिर पर ही मडता है। न कि-नौकर के सिर पर । उसी प्रकार आत्मानन्द इन तीन योग अनुचरो को अच्छे या बुरे कार्यों मे अहर्निश प्रेरित करता
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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