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________________ कर्म-प्रधान विश्वकरि राखा mom "कर्मप्रधान विश्व करि राखा' गोस्वामी तुलसीदासजी को चौपाई को अभिव्यक्ति स्पष्ट बता रही है कि सारा विश्व कर्माधीन है । वास्तव मे ऐसा ही है । विश्व की अचल मे निवास करने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चउरीन्द्रय एव पचेन्द्रिय आदि सभी प्राणी कर्म शृखला से आबद्ध हैं । देहधारी स्वय भावावेग मे उलझकर शुभाशुभ फर्म जुटाता एव विखेरता रहता है । शुभाशुभ कर्म विपाक हो ससार का 'अथ' द्वार माना है। वस्तुत जो फर्म विपाक का सद्भावी है वह भले विश्व बदनीय भी क्यो न बन गया हो तथापि उसके लिए ससार शेष है, क्योंकि आवागमन का मूल कारण नष्ट नहीं हुआ है। जब कारण का सद्भाव है तो फर्मों की अवश्य निष्पत्ति हुई। वह सकर्मी, सरागी, सकषायी भी । गुरु प्रवर का “कर्म-प्रधान विश्व करि राखा" नामक प्रवचन तात्विक मीमासा से ओत-प्रोत है सपादक प्यारे सज्जनो! जीव और अजीव (कर्म) तत्वो की जितनी सूटम विवेचना हमे जैन-दर्शन मे दृप्टि गोचर होती है उतनी इतर दर्शन जैसा कि-बौद्ध, नैयायिक, सात्य, वैशेपिक एव मीमासक आदि मे नही मिलती । इमका कारण है अईत् दर्शन के प्रणेता वीतराग है और अन्य दर्शनो के प्रणेता छद्मस्थ सरागी। केवल ज्ञानी के समक्ष जिनकी ज्ञान-गरिमा की अनुभूतियां नगण्य मानी हैं । वस्तुत जैन दर्शन का द्रव्यानुयोग अत्यधिक गहरा-गभीर और गुरुतर है । श्लाघनीय ही नहीं अपितु, उपादेय भी सभी ने माना है। यहाँ तक कि-पाश्चात्य विद्वान् भी यह स्वीकार करते हैं कि- जैन दर्शन एक अनुपम दर्शन है । जो अर्वाचीनप्राचीन अनुभूतियो से और तात्विक विश्लेषणात्मक शैली से भरा हुआ है। हां तो, जैन दर्शन मे जीवो का वर्गीकरण इस प्रकार किया है - चेतन की अपेक्षा समष्टि के सभी जीव एक प्रकार के, अस-स्थावर की दृष्टि से दो प्रकार के वेद की अपेक्षा तीन प्रकार के, गति की अपेक्षा चार प्रकार के, इन्द्रिय की अपेक्षा पाच और काया की अपेक्षा छ प्रकार के, इसी प्रकार १४ और ५६३ जीवो के भेद भी होते है। तत्त्वार्थपूत्र के आधार पर जीवो के दो भेद भी होते हैं"ससारिणो मुक्ताश्च"-ससारी और मुक्त । भेद विज्ञान को समझे-- मुक्त आत्माओ की मुझे अव चर्चा नही करनी है। क्योकि जो मुक्त होकर कृतकृत्य हो चुके है उनकी चर्चा के पहले अपने को मसारी जीवो की चर्चा करनी है । ससारी आत्मा जन्म-मरण को पुन पुन क्यो धारण करती है ? कर्मों के साथ वधित क्यो और कैसे है ? और उसके प्रेरक कौन ? जबकि
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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