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________________ प्रथम खण्ड दिवाकर का दिव्य प्रकाश | १७ दूसरा लग्न करने से रोका और फरमाया कि "आप सभी पिता-पुत्र अर्थात् बालक प्रताप और अन्य दो भाई आहती दीक्षा लेकर जैनधर्म की सेवा करते हुए आत्मकल्याण का प्रशस्त मार्ग स्वीकार करें।" धर्म परायण आज्ञाकारी विनीत गृहस्थ गाधीजी ने गुरु प्रवर के अचरजकारी आदेश का यथावत् पालन करने का उपस्थित जनसमूह को आश्वासन दिया और एकदम विचारो मे परिवर्तन लाते ही वही के वहो चतुर्थव्रत धारण करते हुए बोले कि "मेरे लघु पुत्र प्रताप के समझदार हो जाने पर हम सभी यानि चारो सदस्य आप देवानुप्रिय के समीप दीक्षित हो जायेंगे।" दुनियां के लिए आश्चर्य का विषय उपस्थित जन समुदाय भी उनकी इस आकस्मिक उद्घोपणा को श्रवणगतकर चकित-विस्मित एव आश्चर्यान्वित सा रह गया । धन्यवाद की मधुर शब्दावली से सारा व्याख्यान मडप गूज उठा । जो व्यक्ति एक दिन के पहिले मोड वाधकर विवाह करने का सुमधुर स्वप्न देख रहा था। वही मानव दूसरे ही दिन जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण करने की घोषणा कर दें । सचमुच ही प्रत्यक्ष यह चमत्कार त्यागी, तपस्वी श्रमण परम्परा का रहा है । जिनके उपदेशो मे सचमुच ही जादू भरा है । गगा पाप शशि ताप, दन्य कल्पतरुस्तथा । पाप-ताप दैन्य च, सद्य साधुसमागमः ।।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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