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________________ दिवाकर का दिव्य प्रकाश तम फा प्रतिद्वन्द्वी "दिवा" यह अव्यय है । और दिवा शब्द के आगे 'कर' शब्द जोड देने पर "दिवाकर" शब्द बना है । फलस्वरूप ससार के विस्तृत अचल मे व्याप्त अधकार को इति श्री कर, जो यत्र-तत्र सर्वत्र प्रकाश से परिपूर्ण सहस्र रश्मियो को छोडता है उसे दिवाकर नाम से पुकारा जाता है। वस्तुत मानव समाज उन्मार्ग का अनुसरण त्याग कर सही दिशा की अनुगमिनी बनती है। चमत्कार को नमस्कार.__ दिवाकर की तरह अनेक शिष्य नक्षत्रो से सुभासित सुशोभित एक मत-शिरोमणि भी उस समय मालवा, मेवाड, मारवाड मे पर्यटन कर रहे थे। जिनकी पीयूप भरी वाणी मे जादू, बोली मे अमृत, चमकते चेहरे पर मधुर-मुस्कान, विशाल अक्षिकाएँ लम्बी लटकती हुई सुलक्षणीय भुजाएँ, गौर वर्ण एव मन मोहक गज-गति चाल । जिनकी ज्ञान-ध्यान साधना के समक्ष अन्य सत-पथ-मत जुगुनुवत् फीके एव प्रभावहीन | जिनके अहिंसामय उपदेशो का प्रभाव राज-प्रासादो से लेकर एक टूटी-फूटी कुटिया तक एव राजा से रक पर्यत और साहूकार से चोर पर्यन्त व्याप्त था। जिन्होने सैकडो मानवो को सच्ची मानवता का पाठ पढाया, यथार्थ अहिंसा-सत्य-स्याद्वाद का सवक सिखाया, भूले-भटके राहगीरो को सही दिशा-दर्शन दिया, जन-जीवन मे जिन धर्म का स्वर वुलद किया, छिद्ध-भिद्ध डोलित सामाजिक वातावरण मे स्नेह-सगठन का सुमधुर उद्घोष फू का और जैन जगत मे नई स्फूति, नई चेतना जागृत की । जिनके द्वारा स्थानकवासी जैन समाज को ही नहीं, अपितु अखिल जैन समाज को ज्ञान-प्रकाश, नूतन साहित्य, प्रेम एव मंत्री भावना की अपूर्व, प्रवल-प्रेरणा प्राप्त हुई थी। वे थे एकता के सस्थापक जैन जगत के वल्लभ स्व० दिवाकर गुरु प्रवर श्री "चौथमलजी महाराज।" ऐसे सच्चे साधक दिवाकर श्री चौथमलजी म० मिथ्यान्धकार को चीरते-फाडते योगानुयोग मेवाडी नर-नारी को रत्नत्रय से आलोकित करते हुए, भूखे-प्यासे पिपासुओ को आत्मिक पक्वान परोसते हुए, प्रेमामृत पिलाते हुए, अहिंसा सत्य का सचोट उपदेश सुनाते हुए, साप्रदायिक परतो से विमुक्त करते हुए एव स्नेह एकता का नारा बुलन्द करते हुए देवगढ़ पधारे।। दिवाकर-देशना का प्रभावजैन-अजैन सैकडो जन समूह "चौथमलजी महाराज पधार रहे हैं" यह शुभ सूचना सुनते ही-"घाये घाम काम सब त्यागे, मनहु रक निधि लूटन लागे" की तरह यो के त्यो स्वागतार्थ भाग खडे हुए । मध्य बाजार के विशाल मैदान मे व्यास्यान होने लगे । जन-मेदिनी उत्तरोत्तर बढ ही रही थी। जन-मानस को झकझोरने वाली वाणी के प्रभाव से आशातीत त्याग-प्रत्याख्यान हुए एव शासन की प्रभावना भी काफी हुई । येन-केन-प्रकारेण पुन विवाह करने की मान्यवर गाधी जी के विचारो की गघ गुरुदेव के कर्ण-कुह गई। तब दिवाकर जी म. ने सेठ मोडीराम जी को
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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