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________________ प्रथम खण्ड शैशवकाल और मातृवियोग | १५ माता के देहावसान से बालक प्रताप को भारी धक्का लगा। नित्य प्रति खोया-खोया सा रहने लगा। मानो कालक्रूर ने सर्वस्व लूट लिया हो । “मुझे छोड के वाई (माता) कहाँ गई ? कब आएगी?" इस प्रकार वाई को ढूढने के लिए विह्वल बना वालक प्रताप यदा-कदा कमरे मे, तो कभी ऊपर तो कभी वाडे मे, तो कभी कुएँ-तालाब पर जाता, तो यदा-कदा पोला-पडशाल और कभी शयन खाट की शैय्या को उलट-पुलट करता, फिर निराश बनकर पिताजी को कोसता,-"वाई को जल्दी वुला दो, कठे हैं, मुझे मिलादो।" पिता जी का समझाना पुत्र को.तव अत्यधिक परेशान होकर सेठजी यही कहते थे कि-"वेटा | बहुत दिन हो गये है। तेरी अम्मा अभी तक भगवान के घर से आई नही, अव पत्र देकर जल्दी बुला लेंगे। तुम चुप हो जाओ, रोवो मत और आराम से रोटी खाओ और खेलो।" भद्र शिशु की कोरुणिक दशा एव भोली-भाली भावना को सामने देखकर पिता का पत्थर हृदय भी वियोग वेदना से आर्द्र हो उठा। बालक को मा की छाया मिले, लाड-प्यार मिले और घरेलू कारोबार को भी सभालकर रख सकें क्योकि कहा भी है कि-"घर किसका ?" उत्तर मिला-''घर वाली का ।" गृहिणी विना वह घर, घर नही, एक प्रकार श्मशान सा भयावना-डरावना प्रतिभासित होता है । अतएव कहा भी है कि-"यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमते तत्र देवता. ।' अर्थात्-नारी जीवन की प्रतिष्ठा-पूजा को सुनकर देवता भी खुशी के मारे बाग-बाग हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण से श्रेष्ठी मोडीरामजी गाधी ने दुवारा विवाह करने का विल्कुल पक्का निश्चय कर लिया। जननी विन इस जगत मे, नहीं कोई आधार । जननी है जीवन रक्षणी, रखे वाल की सार ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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