SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड सस्मरण | ८१ - ७ पैसा पास है क्या ? पूर्व भारत मे मुनियो का परिभ्रमण हो रहा था। लगभग ११ मील का विहार करने के पश्चात् एक छोटे ग्राम में गुरु प्रवर आदि ने विश्राम लिया था। वह ग्राम आशा के विपरीत था। पेट खुराक माग रहा था । बात भी ठीक थी-विना खाना-दाना दिये चले भी तो कैसे ? मानव काम तो कराले और दाम न चुकावे, तो निसदेह साहूकार और कर्मचारी मे ठने विना नही रहेगी। इसी प्रकार पेट और पैरो को खुराक नही मिलने पर सुस्ती आना भी स्वाभाविक है। कवीर की भापा मे कवीर काया कूतरी करे भजन मे भग । ... ठण्डा वासी डालके करिये भजन निशक ।। जैन श्रमण का तपोमय जीवन कचन-कामिनी से सर्वथा निर्लेप रहा है । इसलिए विश्व ने जैन साधु के त्याग की भूरि-भूरि प्रशसा की है । मार्गवर्ती एक यमुना पार निवासी अग्रवाल भाई की दुकान थी। वहां गुरु प्रवर ने लघु मुनि को भेजा कि-सत्त अथवा भुने हुए चने हो तो कुछ ले आओ। मुनि पात्र लेकर वहाँ पहुँचे । भक्त | क्या तुम्हारे यहाँ भोजन वन गया ? अभी नही, मैं एक वजे खाता हूँ-उत्तर मिला। मुनि खाली लौट आये । लगभग एक बजे के पश्चात् फिर वहां पहुंचे। सत की वृत्ति श्वान जैसी मानी है । उसने उत्तर दिया मैंने खा लिया है, अब कुछ नही वचा । शाम को वनाऊँगा। वह भी रात मे, यदि तुम रात को खाते हो तो भोजन यहाँ से ले जाना । __ अच्छा भक्त | हम रात मे तो नही खाते । इस थैले मे चून जैसा यह क्या है ? यह सत्तु है । जो गेहूँ और चने भूनकर बनाया जाता है इधर की जनता नमक मिर्च और पानी के साथ इसको खा कर दिन विताती है । हां, यदि तुम्हारी भावना हो तो दो चार मुट्ठी हमारे पात्र मे वहा दो। दुकानदार---पैसे लाये हो क्या ? मुनि--पैसे तो हम घर छोड आये हैं। अब हम नही रखते हैं। इस प्रकार माल मुफ्त मे मैं लुटाता रहूँ तो मेरी पूंजी ही सफाचट हो जाय । देश छोडकर यहाँ कमाने के लिए आया हूँ न कि खोने के लिये । मुनि प्रवर समता भरी मुद्रा में लौट आये । अनुभव के कोष मे यह अध्याय भी जुड गया। ८ मै क्या भेंट करू? मुनि मण्डल टाटानगर से विहार कर मार्गवर्ती "पिंडरा जाडा' ग्राम के डाक-वगले मे कुछ घटो के लिये विश्राम कर रहे थे । उधर राची से एक कार सरसर करती आई और वही रुक गई । उस कार मे सपत्नी एक अग्रेज अधिकारी था । प्रोग्राम से मालूम हुआ कि उनका भी उसी डाकबगले मे भोजन आदि कार्य निपटने का था। उस अग्रेज दम्पत्ति ने जैन श्रमणो को प्रथम वार ही देखा था । मुख पर वस्त्रिका देखकर
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy