SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ उन्होने देखा कि यह कोई अस्पताल है। ऑपरेशन के लिये डाक्टरो ने मुख पर श्वेत वम्य वांधा है। इस कारण आगतु महाशय असमजस मे अवश्य पडे । आश्चर्यान्वित होकर मुनियो से पूछा कि-This is a hospital अर्थात् क्या यह अस्पताल है ? प्रत्युत्तर मे - नहीं, यह डाक वगला है। "तो आप सभी ने मुंह पर वस्त्र क्यो वाध रखे है ?" तव मुनिवृन्द द्वारा सक्षिप्त जैन मुनि परिचय नामक पुस्तक उन्हे दी गई। तत्पचात् जैन श्रमण, साधना एव मुखवस्त्रिका सम्बन्धित विस्तृत जानकारी से उन्हे अवगत कराया। सुनकर पतिपत्नी दोनो काफी प्रभावित हुए । करबद्ध होकर त्यागमय जीवन का पुन पुन अभिनन्दन करने लगे। अग्रेज महिला-आप मे से बडे कौन हैं ? मुनि-आप अर्थात् श्री प्रतापमल जी महाराज सा० । अग्रेज महिला-आप मेरा हाथ देखिये । मेरे हाथ मे सन्तान का योग है कि नही? गुरुदेव-आशा भरी वाणी मे, हिन्दी भापा आप अच्छी तरह समझ जावेगे ? क्यो नही ? मेरा व साहेव का सारा जीवन ही हिन्दी मे वीता है। मैं तो भारत को अपना ही वतन मानती हूँ। इसलिए यहाँ की वेश-भूपा-भाषा से मुझे अत्यधिक प्यार है । आपकी दैनिक खुराक क्या है ? गुरुदेव ने प्रश्न किया। गुरुजी | मैं आप से झूठ नहीं बोलूगी । मेरी खुराक डव्वल रोटी और मुर्गी के अण्डे आदि । गुरुदेव-आप समस्त ससार को ईसामसीह का बनाया हुआ मानते है कि नहीं? "हाँ, गुरुजी।" तो अण्डे भी तो उसी ईसा की सन्तान हुई। क्योकि सजीव है, जिसमे प्राणो का सहभाव हैं । आप बुरा न माने, ईसा भगवान् की सन्तान अर्थात् अण्डो को खा जाते हैं। इस कारण प्रकृति का प्रकोप आप पर है । सन्तान रुकावट का खास कारण मेरी समझ मे यही होना चाहिए । इसका इलाज (प्रतिरोध) है, उन्हे खाना छोड दीजिए रुकावट दूर हो जायगी। अच्छा | अच्छा | मैं समझ गई, जब भगवान की सन्तान मुर्गी के अण्डो को खाती हूँ तव भगवान मुझे सन्तान कैसे देंगे ? मैंने कई स्थानो पर अपना हाथ दिखकर सैकडो रुपये खर्च कर दिये । लेकिन आप जैसा सही-साफ स्पष्ट मुझे किसो ने भी नही कहा । बस, अब मैं किसी को अपना हाथ नही बताऊँगी। गुरुदेव के चरणो मे मनीवंग रखकर बोली-इसमे पाच सौ रुपये हैं। इन्हे आप स्वीकार करें, आगे के लिए आप मुझे अपना पूरा पता लिखा दें । मैं साहब से पाच सौ रुपये और भिजवा दूंगी। "नही, बहिन । जैन साधु रुपयो की भेंट नहीं लिया करते हैं।" तो आपका दैनिक खर्च कैसे चलता है ? क्या कोई जायदाद जमीन की इन्कम है ? नही वहिन जी । जैन भिक्षु कचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी होते हैं। अब हमारे लिये सारी सृष्टि हमारा परिवार है। नियमानुसार हमारी सर्व आवश्यकता जैन समाज पूर्ण करती है। शाकाहारी परिवारो मे हम भिक्षा वृत्ति करते हैं। फिर मैं क्या भेंट करूं ? - अग्रेज महिला वोलो ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy