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________________ द्वितीय-खण्ड , सस्मरण | ८३ आप अण्डे खाना सदा-सदा के लिये छोड दीजिए । यही हमारे लिये वहुत वडी भेंट होगी। अच्छा गुरुजी । मैं अकेली ही नही, मेरे साहब भी, हम दोनो जीवन भर के लिये अब हम अण्डे नहीं खायेंगे । आप हमे आशीर्वाद प्रदान करे । ___अपना पूरा पता देकर, हाथो को जोडकर मानवता के पुजारी दोनो आगे बढ जाते है। ९ सरलता भरा उत्तर गुरु प्रवर कलकत्ते का वर्षावास विता रहे थे । वहां चारो सम्प्रदाय के हजारो जैन परिवार निवास करते हैं । अक्सर मुनि-महासतीजी के चातुर्मास भी हुआ करते हैं । व्याख्यान-वाणी के विपय मे वहां के मुमुक्षु काफी रसिक रहे हैं । गुरुदेव एव प्रवर्तक प्रवर श्री हीरालाल जी महाराज सा० के हृदयस्पर्शी तात्विक व्याख्यानो को सुनने के लिये स्थानकवासी, मूर्तिपूजक एव तेरह पथी वन्यु काफी तादाद मे उपस्थित हुआ करते थे। एक दिन गुरुदेव रतलाम श्री मघ के पत्र का उत्तर लिखवा रहे ये । उस वक्त एक तेरा पथी वन्यु दर्शनाथ उपस्थित हुआ । कुछ-कुछ शिष्टाचार कर समीप ही बैठ गया । लेखन कार्य पूरा हुआ कि-आगतुक वन्धु बोला ___मत्यएण वन्दामि | साधु-साध्वियो को पत्र लिखना कल्पता है क्या ? और किस शास्त्र के आधार पर आप यह क्रिया करवाते है ?" ___ गुरुदेव-पत्र लिखाने का विधेयात्मक आदेश किसी भी जैन आगम मे नही है । अपितु कल्पसूत्र आदि मे निषेधात्मक वर्णन अवश्य मिलता है । फिर आप क्यो लिखाते है ? उस भाई ने पुन प्रश्न किया। यह युगीन परिपाटी है । अधिकारी मुनि जैसे-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गुरु-गच्छाधिपति एव माधु-साध्वी-सघो को सूचना देना कभी-कभी अत्यावश्यक हो जाता है । आज के युग मे यह जरूरी है अन्यथा सैंकडो कोसो की दूरी पर बैठे हुए अन्य मुनि एव सघो के मन-मस्तिष्क मे हमारे प्रात कई तरह की गल्त भ्रान्तियाँ होना स्वाभाविक है । वस्तुत उन्हे ध्यान रहे कि अमुक सघाडा अमुक क्षेत्र मे अमुक जन-कल्याण का कार्य कर रहे हैं । समाचार पत्रो मे भी इसी भावना से प्रेरित होकर समाचार लिखाय जात है। केवल समाज व्यवस्था की दृष्टि से पत्र लिखाने का प्रयोजन रहा हुआ है। सरल-स्पष्ट समाधान को पाकर पृच्छक काफी प्रभावित होकर वोला-मत्थएण वन्दामि | इस विषय में हमारे सन्तो को जब हम पूछते हैं तो गोल-माल माया भरा उत्तर दे देते हैं । आप ने कम से कम साफ तो फरम्ग दिया कि-आगम आदेश नहीं देते हैं । केवल इस प्रक्रिया में व्यवस्था की दृप्टि निहित है । अव वह नित्य प्रति सन्त दर्शनहेतु स्थानक मे आने-जाने लगा।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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