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________________ ८४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ १० जैसे को तैसा उत्तर उन दिनो गुरुप्रवर एवं प्रवर्तक श्री हीरालाल जी महाराज कलकत्ते मे जैन शासन की प्रभावना वढा रहे थे । सैकडो हजारो नर-नारियो की उपस्थिति | जहां-तहां व्याख्यानो की धूम | वास्तव मे शासन प्रभावना मे चार चाँद लगा रहे थे। कई मन्दिरमार्गी एव तेरापथी भाई भी प्रश्नोत्तर-समाधान की प्रभावना को लेकर यदा-कदा उपस्थित हुआ करते थे। एक तेरापथी भाई ने प्रश्न किया-"आप किस टोले के सत है ?" हम श्रमण भगवान महावीर के परम्परागत आचार्य प्रवर श्री आत्मागमजी महाराज, उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज एव गुरुदेव श्री कस्तूरचद जी महाराज के अनुगामी सत है। - मेरा अभिप्राय भूतकालीन सम्प्रदाय से है अर्थात् आप किम सम्प्रदाय के है ? उस भाई ने पुन प्रश्न दुहराया। गुरु प्रवर पृच्छक की खण्डनात्मक भावना को भाप गये थे। जान-बूझ कर बोले-हम हैं महामहिम तीरण-तारण जहाज, विश्व वदनीय, आचार्य प्रवर श्री सहनमल जी महाराज की सम्प्रदाय के । मन को मसोडता हुआ वोला-हमारी ममाज में से जो निकाले हुए थे, क्या ये वही हैं ? हाँ, ये वही हैं । किन्तु निकाले हुए नही । स्वय मत्य तथ्य को समझकर निकले हैं । न कि निकाले गये। उपहास के रूप-वाह | वाह । हमारे मे से अलग किये हुए साधक को आप के सघ ने आचार्य पद पर आसीन कर दिया । कितनी वडी वात | क्या वे आचार्य पद के योग्य बन गये ? क्यो नही ? वे सर्वथा सुयोग्य, सवल अनुशासक के साथ-साथ विद्वान एव सफल व्याख्याकार है। किन्तु मजे की बात तो यह है कि- स्थानकवासी समाज मे से बहिष्कृत साधक आप की समाज के सर्वेसर्वा एव जन्मदाता बने हैं। भक्ति के वश जिनको आप कभी-कभी पच्चीसवें तीर्थकर भी कह देते हैं । कहिए यह कार्य वडा हुआ कि हमारा ?" उचित उत्तर सुनकर वह वन्धु चलता बना और मन ही मन समझ भी गया कि यह भिक्षुगणी पर करारा व्यग्य है। ११ भूले पथिक को राह गुरुदेव के चारु चरण उत्तर प्रदेश की ओर मुड गये थे। सड़क के किनारे से कुछ ही दूर पर एक घास की कुटिया मिली । जिसमे प्रज्ञाचक्षु एक भगवा वेशधारी महात्मा व उन्ही के एक युवक शिष्य का वास था। उसी मार्ग से हम जा रहे थे। उस समय दोनो महात्माओं मे वाकयुद्ध चल रहा था। हमारे पर भी वही रुक गये । शिष्य गुरु से कह रहा था-अव मैं आपके पास रहना नही चाहता हूँ। मुझे दुनियाँ देखनी है । आप मुझे ससार मे जाने दीजिए। गुरु कह रहे थे-वत्स ! मैं अन्धा हूँ। मेरी सेवा कौन करेगा ? सन्यासपना मिट्टी में मिल जायेगा । मैंने तुझे छुटपन से पाला पोपा-पढाया और हुशियार किया । अव तू मुझे निराधार कर भागना चाहता है ? मैं हर्गिज तुझे नहीं जाने दूंगा । उसके उपरात भी नही मानोगे तो मेरे गले मे फासा डालकर फिर भले
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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