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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया वैराग्य विशुद्धता की जननी | १७३ अत इम समय मुझे मानव भव मे आत्मा को महान् वनाने की सर्व सामग्रियाँ उपलब्ध हैं । जो भी मुझे प्रशस्त कार्य करना है, वह विना विलम्ब से कर लू। ताकि यह आत्मा भविष्य मे अनन्त सुखो को प्राप्त कर सके।
इस प्रकार आध्यात्मिक विषय का ही चिन्तन, मनन, मन्थन करने से तथा सत्-असत्, हेयज्ञेय और उपादेय आदि वा विवेक पूर्वक विचार विमर्श करने से जो वैराग्य फव्वारे की भाँति हृदय प्रागण मे प्रस्फुरित होता है उसे ज्ञान-गर्भिन तथा सर्वोत्तम वैराग्य कहा गया है।
एक बार मानव अपने मतापो मे पीडित होकर भगवान के पाम गया और दीन याचना करने लगा-प्रभो | मुझे शक्ति दो, मैं इन सतापो से लड सकू ।
भगवान-वत्स | इन सतापो से मुक्त होने के लिये शक्ति की नही, विरक्ति की जरूरत है। शक्ति तो म्वय मताप का स्रोत है । जहाँ शक्ति है, वहाँ अह है, जहाँ अह है वही सघर्प हैं, मताप ताप की हजारो हजार लहरें परस्पर टकराती हैं । मुक्ति के लिये विरक्ति करो।
वास्तव मे समारशक्तिसम्पन्न होने की दीड कर रहा है । पर शक्ति तो स्वय अशान्ति पैदा करती है । शान्ति की प्राप्ति के लिये मानव को शक्ति से हटकर विरक्ति की ओर आना होगा । क्यो कि विरक्त भाव आत्मिकशक्ति वर्धक माना है । जमा कि
अझप्पसज्जे पसरत तेए, माणभुराए परिभासमाण । फत्तो तमो सुसर भोग पको, सिग्घ पलायति फसाय चोरा ।।
-सुभापित आध्यात्मिक सूर्य के प्रखर तेज से जिमका मन रूपी नगर आलोकित हो चुका है। वहाँ अन्धकार कहाँ ? अहकार त्पी कर्दम सूख जाता है और कपाय चोर भी शीघ्र पलायन हो जाते हैं ।
अनेकानेक वैराग्य के मार्ग वताए गये हैं। मोक्षाभिलापी यात्रियो को चाहिए कि वे येनकेन-प्रकारेण हृदय मन्दिर मे वैराग्य को पैदा करे । इसका महत्त्व पूर्ण स्वरुप इस सूत्र मे बताया है ।
_ 'जगत्कायस्वभावौ च सवेगवैराग्याथम्" । अर्थात्-मवेग और वैराग्य के लिये मसार और शरीर के स्वभाव का विचार करना चाहिए । साथ ही साथ जब हम ज्ञान का पठन करेंगे तभी इसका उद्भव होगा । विना ज्ञान के वैराग्य विना तेल के दीपक के समान है। ज्ञान प्राप्त करने के लिये क्रम पूर्वक उन शारत्रो का अध्ययन करना चाहिये, जिनमे आप्नपुरुपो के आचार-विचार विषयक उपदेश सग्रहित हो। इसके साथ तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न ग्रन्थो का अध्ययन भी बुद्धिमान पुरुपो को अवश्य करना चाहिए। क्योकि वैगग्य मे रमण करने वाले की अन्तरात्मा फिर सामारिक कार्यों से निर्भय हो जाता है। जैसा कि- नीति शतक मे कहा है
भोगे रोगभय कुले च्युतिभय वित्त नृपालाद भय । मौने दैन्यभय बले रिपुभय रुपे जराया भयम् ।। शास्त्र वादभय गुणे खलमय काये कृतान्ताद्भय ।
सर्व वस्तु भपन्वित भुवि नृणा वैराग्यमेवाऽभयम् ॥ अर्थात् भोग मे रोग का, कुल परिवार मे हानि का, धन मे 'नृप आदि का, मौन मे दीनता का, शक्ति मे शत्रु का, सौन्दर्यता मे बुढापा का, शास्त्र ज्ञान मे वाद विवाद का, गुणी जीवन मे दुरा