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________________ १७४ , मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ त्माओ का और पार्थिव देह के पीछे मृत्यु का भय मण्डराया हुआ है। इस प्रकार वैराग्यवान आत्मा के अतिरिक्त समस्त समारी जीव भयाकुल है। इमी विषय की मम्पुष्टि निम्न-श्लोक मे सुनिए अर्जुन ने श्री कृष्ण से मन-योग सम्बन्धित समाधान पूछा - चचल ही मन कृष्ण, प्रमाथि वलवद् दृढम् । तस्याह निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। प्रभो । मशक्त मन रूपी अश्व इतना चत्रल है कि उसका निग्रह करना वायु की तरह अति दुष्कर है ऐना मैं मानता हू । नमावान देते हुए श्री कृष्ण वासुदेव बोले असशय महाबाहो ! मनोनिग्रह चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय | वैराग्येण च गृह्यते ॥ हे कौन्तेय | नि मन्देह मन त्पी घोडे का निग्रह दुष्कर अति दुष्कर माना है। किन्तु साधना के माध्यम से एव वैराग्य भावना पूर्वक साधक मन का निग्रह करने मे सफल बनता है। अतएव वैराग्यभाव आत्मिक मुम्व सम्पदा को देने वाला है। उसकी उत्पत्ति आत्मा से ही होती है। देहधारी को विदेह दशा तक पहुचाने में वै गग्यभाव बहुत बडा सहायक है । वीतराग दशा की उपलब्धि विराग भाव की अभिवृद्धि किये बिना नहीं हो सकती है। इस प्रकार वैराग्यमय साधक की माधना वलिप्ट मानी है। भले आप किमी स्थान पर किमी गुरु के ममीप एव किसी भी परिधान मे रहें। किन्तु विगगता की ओर अवश्य आगे बढ़े। इतना कहकर मै अपने वक्तव्य को विराम देता है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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