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________________ ४० मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्थ माना गया है। वह पुत्र एव शिप्य किम काम के जो अपने पिता एव गुरु के रग-रूप स्वभाव, वाणी, एव विद्वत्ता की दिल-खोल कर मुक्तकठ से प्रशसा के पुल तो बान्धते है किन्तु उनके बताए हुए मार्ग एव सिद्धान्तो का तनिक भी न चिन्तन, न मनन एव न उन पर चलने की कोशिश करते है बल्कि खुलमखुला आदेशो की अवहेलना-उपेक्षा करते हैं । यद्यपि वह गुणो की तारीफ करता है, किन्तु आना की मम्यक् प्रकार से परिपालना न करने से वह शिष्य कुशिष्य, वह श्रमण पापी श्रमण एव वह पुत्र कुपुत्र माना गया है । "मुहरी निक्कसिज्जई' अर्थात् सर्वत्र अपमान का भाजन बनता है। हमारे चरित्र नायक सदैव अनुशासन के अनुगामी एव पक्के हिमायती रहे हैं । असिधारा-सेवा व्रतयद्यपि सेवा-धर्म के अनेकानेक विकल्प है-जैसे शारीरिक सेवा, आहार-विहार-निहार सेवा, अनुदिन चरण सेवा मे ही रहना, एव मन-वच-काय त्रिकोणात्मक शक्ति-मक्ति से अनुशासन की परिपालना आदि सेवा-धर्म के मुख्य अग हैं। आपके जीवन में सेवा का गूजता स्वर है, एक तडपन है। एक लग्न है अतएव गुरुराज्ञा को आप सदैव शिरोधार्य करते आए हैं । आपके जीवन का कण-कण और अणु-अणु सेवा सुधारस से ओत-प्रोत है। गुरु भगवन्त की सेवा-शुश्रू पा के साथ-साथ आप मघ-समाज सेवा मे भी उसी प्रकार दत्त चित्त हैं जिम प्रकार लोभी द्रव्य कमाने में लगा रहता है। आपने अपना मूल मन्त्र सेवा मन्त्र वनाया है । मानो सेवा-भित्ति पर ही आपके पार्थिव देह का निर्माण हुआ हो । शास्त्र मे भी सेवा-धर्म का महान् महत्त्व दर्शाया है जैसा कि "अनन्त सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करने का पहला मार्ग है-गुरुजनो और वृद्ध पुरुषों को सेवा'-"तस्सेस मग्गो गुरु-विद्ध सेवा ।" -उत्तराध्ययन ३२।३ जो विशुद्ध हृदय से दूसरो की सेवा करता है, वह महान् पुण्य करता है । सेवा को उत्कृष्ट भावना के कारण वह तीर्थंकर गोत्र भी बाध लेता है। "वेयावच्चेण तित्ययर नाम गोत कम्म निवन्धइ ।" -उत्तराध्ययन २६ जिसका कोई नहीं है। उसका खुद बनकर उसे धैर्य दें, सभाले और उसको यथोचित सेवा की व्यवस्था करें । जैसा कि-"असगहिय परिजणस्स सगहिता भवइ ।' -श्री स्थानाग और दशाश्रुत स्कन्ध वृद्ध और रुग्ण आदि के साथ मधुर वचन बोलना और उनकी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करना, सेवा सहायता है ।" "सव्वत्येसु अपडिलोमया सत सहिल्लया।" –दशाश्रुत स्कध ४ आज का तकाजाआज इस पवित्र मेवाधर्म से मानव आख चुराता है। उपहास करता है एव उपेक्षा भरी निगाह से निहारता है । कही शरीर थक न जाय । कही धन मे हरजाना न पड जाय एव कही विपरीत फल की प्राप्ति न हो जाय । इस प्रकार मानव एव साधक मौका आने पर भी सेवा कार्यों से आख चुराते हैं । वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो सेवा ही जीवन है, यह शरीर-प्राण इन्द्रियाँ एव यह विपुल धनसपदा जीवन नहीं, ये जीवन निर्वाह के साधन मात्र है। जीवन तो उपर्युक्त सर्व साधनो द्वारा सेवासौरभ प्राप्त करने का नाम है । दर्शित सर्व साधन प्राप्त होने पर भी जो नर-नारी एव जो साधक सेवाधर्म से खाली रहते हैं उनसे और क्या आशा रखी जाय?
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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