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________________ प्रथम खण्ड विहार और प्रचार | ४३ प्रचार का प्रथम चरणनिश्चयानुसार आप अपने सहपाठी-सह विहारी मस्तयोगी मुनि श्री मनोहरलाल जी म० को साथ लेकर मालवे के अनेकानेक सर सन्ज क्षेत्रो को पुन जिनवाणी से प्लावित करते हुए जन-मानस मे शुद्ध श्रद्धा के भाव प्रस्फुटित करते हुए एव जहां-तहां सुप्त-ससारियो को उद्बोधन देते हुए खानदेशस्थली मे प्रविष्ट हुए। भगवद्वाणी से भूखी-प्यासी खानदेशीय जनता आप मुनिद्वय की मधुर वाणी का सश्रद्धा पान करने लगी एव स्थान-स्थान पर व्याख्यानो का सुन्दर आयोजन जनता द्वारा होने लगे । वस्तुत घर-घर में चर्चा ने वल पकडा--"ये दोनो मुनि क्या आए है, मानो रवि-शशि के मानिन्द चमक-दमक रहे हैं और वाणी का प्रवाह भी इतना लुभावना एव जन-मानस को खीचने मे जादू सा प्रतीत हो रहा है। मानो शशि प्रताप मुनि जी है, तो मार्तण्ड मनोहर मुनि जी म० की किरण-ललकार है।" इस प्रकार मुनिद्वय के जहां-तहां गुण-गौरव गान गूंजने लगे और मुनियो की निर्लोभता, ऋजुता एव नि स्पृहता को देखकर इतर जन समूह भी श्रमण जीवन की भूरि-भूरि प्रशसा करने लगा। निस्पृहता की महक:वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो निस्पृहता-निस्वार्थता पूर्वक जैन भिक्षु जितना विश्व का भला कर सकता है, उतना अन्य साधु-सन्यासी-यति आदि कोई नही कर पाते है । कारण कि-अन्य के पीछे सासारिक राग-वन्धन वधे रहते है, कई प्रकार की समस्याएं', एव उलझने-उपाधियाँ मुह फाडे खडी रहती हैं । जो केवल धन सम्पत्ति से ही पूर्ण हो सकती है। "माया को निवारी फिर माया दिल धारी है" इस कवितानुसार वे साधक जिस कार्य में हाथ डालते है, तो उनके पीछे लोभ-लालच का प्रावल्य छाया रहता है। तत्कार्य की पूर्ति के लिये धन की चाहना ज्यो की त्यो सदैव बनी रहती है। फिर उन्हीं कार्यों की पूर्ति के लिये जनता की खुशामद, गुलामी, एव दानवीर पुण्यवान्-भाग्यवान आदि विना मूल्य के न जाने कितने ही विशेपणो को लगाकर उस विशेष्य को सजाना पडता है। उपर्युक्त वीमारी से जैन श्रमण निलिप्त रहा है । अतएव जैन श्रमण के तपोमय जीवन की सौरभ सर्वत्र संसार में प्रसारित है। मुझे अच्छी तरह स्मरण है-अनेको वार स्व० १० नेहरू एव आचार्य विनोबा भावे ने भी कहा था कि-"पाद-विहार द्वारा जितना जन कल्याण एव पथ-दर्शन जनमुनि कर सकते हैं। उतना अन्य साधक कदापि नही कर पाते हैं।" यही मौलिक कारण है कि-जैन श्रमण के प्रभाव से भावुक-भद्र जनता शीघ्र ही आकृष्ट-आनन्दित एवं धर्म के सम्मुख होती है। . __ आचार्य प्रवर के दर्शन - इसी समुज्ज्वल वृत्ति के अनुसार आपने अपनी सफल यात्रा तय करते हुए भुसावल नगर को पावन किया। जहां पर सशिप्य मडली स्व० श्री मज्जैनाचार्य पूज्य श्री सहनमलजी म० अपनी सहस्र ज्ञान किरणों से स्थानीय समाज को आलोकित कर रहे थे। आप दोनो मुनिगण भी आचार्य भगवन्त की पावन सेवा मे अ, पहुंचे। दर्शन एव आवश्यक विचार-विमर्श के पश्चात् स० १६६४ का चातुर्मास सर्व मुनि मडल ने आचार्य श्री जी की पावन सेवा मे ही जलगाव सघ के अत्याग्रह पर जलगाव मे ही यिताया । आचार्य प्रवर एव हमारे चरित्रनायक के प्रेरक प्रवचनो के प्रभाव से आशातीत चतुर्विध्र सय मे धर्म प्रभावना हुई। कई भव्यात्माओ ने समकित लाभ को प्राप्त किया । तदनुमार स० १६६५ का वर्षावास सारी मुनि मडली का हैदराबाद व्यतीत हुआ। वहाँ पर भी अपर्व धर्म जागृति हुई और कई प्रकार का साधिक समस्याए आचार्य प्रवर के कर कमलो से सुलझी। इस प्रकार आचार्य देव की अनुमति लेकर संकड़ो मील की पाद यात्रा तय करते हुए पुन आप दोनो मुनि रतलाम पधार गये। .
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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