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________________ विहार और प्रचार बहता पानी निर्मला बहता पानी निर्मला, पडा गदीला होय । साधु तो रमता भला, दोष न लागे कोय । बहता हुआ पानी का प्रवाह निर्मल होता है, बहती हुई वायु उपयोगी मानी है, कलितचलित झरने मानव मन को आकृष्ट करते हैं, एव गतिमान नदी-नाले मानव और पशु-पक्षियो के कलरवो से सदैव गुजित व सुहावने-सुरम्य प्रतीत होते हैं। उसी प्रकार मूर्य-शशि भी चलते-फिरते शोभा पाते हैं। अर्थात्-विश्व-वाटिका के अचल मे उदयमान तत्त्व जितने भी विद्यमान हैं, वे सब के मव जहाँ तक उपकार एव सेवा के विराट् क्षेत्र मे रमते रहते है वहाँ तक दुनिया के सिर मोड के रूप मे सर्वत्र आद्रित एव सम्मानित होते हैं । उमी प्रकार साधु-सस्था भी जहाँ तक सामाजिक, धार्मिक, आत्मिक कार्यों मे जुडी हुई रहती है एव उनका गमनागम इधर-उधर चालू रहता है, वहाँ तक मानव-समाज मे साधु-जीवन के प्रति मानसम्मान-प्रतिष्ठा-प्रभाव ज्यो का त्यो रहता है। साधक-जीवन मे शिथिलता न आकर सयम मे सुदृढता रहती है। वस्तुत उपेक्षा के बदले जन-जन मे सदैव अपेक्षा (चाहना) वनी रहती है । दीर्घ उत्ताल तरग मालायें, सतप्त वालुकामय मरु-प्रदेश, कटकाकीर्ण विजन पथ, ऊँचे नीचे गिरि-गहवर उनके पाद विहार को नही रोक सके । जनहित तथा आत्म-कल्याण की भावना ने उनको विश्व के सुदूर कोने-कोने तक पहुचाया। उनका यह अभिमान स्वर्ण खानो की खोज के लिये अथवा तल कूपो की शोध के लिये या कही उपनिवेश स्थापित करने के लिये नही हुआ था। परन्तु हुआ था अशान्त विश्व को शान्ति का अमर सन्देश देने के लिये, द्वेप-दावानल मे झुलसते ससार को भ्रातृत्व के एक सूत्र मे बाधने के लिये और अज्ञानान्धकार में भटकती जनता को सत्पथ प्रदर्शित करने के लिये। अद्यावधि वही विहार क्रम गतिमान है। आधुनिक यातायात के ढेरो साधन सुगमतापूर्वक उपलब्ध होने पर भी जैन साधु पाद विहार करते हुए देश के एक कोने से दूसरे कोने मे पहुच जाते है। उनकी इस निस्पृह सेवा की भावना समूचे जगत के लिए आदर्श है । हां तो, सवत् १६६३ के रतलाम चातुर्मास के वीच गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० का म्वर्गवास होने के पश्चात् आपने भी अपना वर्षावास पूर्ण किया और साथ ही साथ अन्यत्र क्षेत्रो की ओर विहार प्रचार करने का निश्चय भी किया। क्योकि जो श्रमण-श्रमणी वर्ग भ्रमण करने मे सर्वथासमर्थ एव सब दृष्टि मे योग्य होते हुए भी धर्म-प्रचार एव मानवीय सेवा करने मे आलस्य का महारा लेते हैं, आंखें चुगते एव न्याती-गोती-पारिवारिक सदस्यो के व्यामोह के जाल मे उलझे रहते हैं, वे साधक अवश्यमेव दुप्प्राप्य नयमी-जीवन मे प्रगट किंवा प्रच्छन्न रूप से दोप लगाते हए यदा-कदा सयम सुमे से इतो भ्रष्ट सर्वे भी हो जाते हैं... ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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