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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रधान विश्वकरि राखा | १८७ जैसे बीजो के जल जाने से पुन अकुर खडे नही होते हैं, उसी तरह कर्म वीज के दग्ध हो जाने मे भव (आवागमन) रूपी अकुर भी उत्पन्न नही होते हैं परन्तु सौगत दर्शन ने पुन आगमन माना है ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तार परम पदम् । गत्वाऽऽगच्छति भूयोऽपि भवतीर्थनिकारत ॥ -बौद्ध दर्शन धर्म तीर्थ करने वाले ज्ञानी पुरुप परम (मोक्ष) पद को प्राप्त हो जाने पर जव तीर्थ (धर्म) की अवहेलना होती है, तव पुन वही आत्मा ससार अचल मे अवतरित होती है। इसी तरह गीता ग्रन्थ के निर्माताओ ने भी पुनरागमन माना है । ऐमी मान्यताएँ न्याय विरुद्ध जान पड़ती है। क्योकि समार परिभ्रमण के कारण भूत कर्मों का वहाँ अभाव है। इसलिए मुक्तात्माओ के लिए पुनरागमन का प्रश्न ही खडा नही होता है। भले ससार मे अत्याचार, अनाचार एव भ्रष्टाचार का बोलबाला रहे अथवा सुकृत का । परन्तु सिद्ध-बुद्ध आत्माओ का उनसे किंचत् मात्र भी सम्बन्ध सरोकार नही रहता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उपरोक्त वचन छद्म पुरुषो के जान पड़ते हैं। तभी तो कलह-क्लेश-कोष स्वरूप ससार मे आने के लिये पुन भावना का दिग्दर्शन कराया है। परन्तु जैन-दर्शन सिद्धात्माओ के लिये पुनरागमन कदापि स्वीकार नहीं करता है। हां, सयोगवशात् यदा-कदा अधर्म का अत्यधिक प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए धर्म-भास्कर को पुनः प्रदीप्त करने के लिये कोई महान् विभृति स्वर्गात् अवतरित अवश्य होती है, किन्तु मोक्ष प्रविष्ट आत्मा नहीं। हाँ तो, प्रत्येक आत्मा को कर्म करना ही पडता है । चू कि कर्म-भूमि पर मानव का वास है, दूसरी बात यह है कि कर्म नहीं करेगा तो मानव विल्कुल प्रमादी-आलसी एव एय्यासी बन जायगा और आलसी-एय्यामी वनना मानो पतन-अवनति को आमत्रण देना है । आज की आवाज भी है - "आराम हराम है" । और भगवान महावीर ने तो कई शताब्दियाँ पहले ही यह उद्घोपणा की थी-'समय गोयम मा पमायए" हे इन्द्रिय विजेता | एक समय का भी प्रमाद मतकर । परन्तु परिश्रम-प्रयत्न ऐसा हो, जिसके प्रभाव से आत्मा कर्म वन्धन से मुक्त, जन्म-मरण की चिर बीमारी का अन्त, राग-द्वेप की शृखला छिन्न-भिन्न होवे और गर्भावास मे आना रुके । ऐसे कर्म जप और तप से उद्भूत होते हैं-'तपसा निर्जरा च" शुद्ध श्रद्धा एव भावपूर्वक तप की आराधना करने से जैसे शुष्क एव नीरसपत्र सर-सर करते हुए वृक्षो से नीचे गिर पड़ते हैं, उसी प्रकार तप रूपी पतझड की अजस्र थपेडो से आत्मरूपी कल्पवृक्ष के लगे हुए सडे गले एव जीर्ण-शीर्ण कर्म पत्र नप्ट होकर मिथ्या धरातल पर आ गिरते हैं । अतएव प्रत्येक आत्माओ को चाहिये कि वे शुभ (पुण्य) अशुभ (पाप) एव शुद्ध (निर्जरा) इन तीनो के समीचीन स्वरूपो को समझने के लिए जैनदर्शनो का अध्ययन-अध्यापन करे । तत्पश्चात् सुखी जीवन के लिए अशुभ-कर्म, जो कि हेय है, उसे छोडे और शुभ कर्म को ज्ञेय समझकर शुद्धकर्म की ओर कदम बढावे ताकि आत्मा प्रशस्त पथ की ओर अग्रसर होती हुई मोक्ष के मन्निकट पहुँचे ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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