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________________ देवगढ़ में दिव्य ज्योति अरावली के अचल मे छोटे-मोटे सैकडो गाव-नगर-शहर वसे हुए हैं। जिनमे लाखो नरनारियो का एक विराट् मानव-परिवार फलता-फूलता रहा है । "देवगढ" भी मेवाड (मदारिया) प्रान्त का एक नन्हा सा नगर माना गया है। जिसमे हजारो जनो की आवादी एव सैकडो जैन परिवार भी सम्मिलित है। यह नगर किसी समय प्रसिद्धि प्रगति के शिखर पर चढा हुआ था। जिसकी गवाह वहां का जीर्ण-शीर्ण राज्य-महल; वहां की प्राचीन संस्कृति एव वहाँ के टूटे-फूटे खण्डहर मूक भाषा मे वता रहे हैं। देवगढ को व्युत्पत्ति "देवगढ" इस नाम मे एक विशेषता, एक पवित्र परम्परा एव हृदयस्पर्शी प्रेरणा का स्रोत निहित है। तभी तो यहां के निवासीगण आर्य सम्यता-अनुगामी, उपासक एव उच्च आचार-विचार व्यवहार की त्रिवेणी से ओत-प्रोत रहे और हैं । _ 'देवगढ' की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है-"देवानाम् गढ-इति-देवगढ" । अर्थात् जहाँ अधिक रूपेण देवता ही रहते हो। उसे देवगढ के नाम से पुकारा जाता है । क्या वहां देवता रहते हैं ? अवश्यमेव । शास्त्रों में पाच प्रकार के देव माने गये हैं। जिनमे "भवी द्रव्यदेव" ऐसा एक नाम भी आया है । जिसका अर्थ यह है कि-जो आत्माएँ अभी हाल मानव किंवा तिर्यग् योनि मे बैठी हुई है । किन्तु शुभ करणी कर भविष्य मे देवलोक मे उत्पन्न होने वाली है। जैसे देववृन्द आयु प्रभाव, सुख, क्रान्ति एव लेश्या-विशुद्धि के विषय मे ऊपर-ऊपर के देव । अधिक और गति-शरीर-परिग्रह व अभिमान के विषयो मे उत्तरोत्तर देव हीन माने गये हैं । उसी प्रकार भोली-भद्र सयमनिष्ठ एव प्रतिभा सम्पन्न जिन्दी जीत्ती सैकडो विभूतियां उस नगर मे थी और आज भी हैं । सचमुच ही जो जिनशासन के रक्षक एव निडर प्रहरी के रूप मे रहे हैं । अतएव देवताओ से भी कई गुणित अधिक सौभाग्यशाली" उन्हे समझना चाहिए। क्योकि-जिनको पुण्य की महत्ती कृपा से आर्यक्षेत्र-उत्तमकुल, और निर्मल निर्ग्रन्थ परम्परा का सुयोग प्राप्त हुआ है । जो सुर-असुर समूह के लिए सचमुच ही दुष्प्राप्य माना गया है । देवगढ के ठग प्राचीनकाल से 'देवगढ के ठग' यह कहावत प्रचलित है। वास्तविक-दृष्टि की तुला पर ठीक जचती है। जैसे क्रोध मान माया-लोभ आदि कपाय, मुमुक्ष के महान मूल्यवान रत्न त्रय को लूटा करते हैं। इस कारण उपरोक्त भाव शत्र ओ को भी धार्मिक दृष्टि से ठग (तरस्कर) ही माने गये हैं और तप-जप-दान-दया-दमन एव शुद्ध क्रियाओ द्वारा इन छयो को परास्त से करने वाले अर्थात्-"ठग ठगो के पाहुने" ही माने जाते हैं। अतएव देवगढ के नागरिक जनको अगर ठंग की उपाधि से उपमित किया जाता है, तो अति प्रसन्नता की ही बात है ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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