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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सहयोगधर्म | १३६ सहयोगधर्म की व्याख्या "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (तत्वार्थ सूत्र) सहयोग गुण का अभिप्राय है एक दूसरा एक दूसरे का महायक वने, सुख किंवा दुख दर्द भरी घडियो मे भागीदार बने, जैसे पिता, पुत्र, गुरु, शिष्य, स्वामी-सेवक, और अडौमी-पडीसी । चूकि समस्या एक दो नही अपितु आध्यात्मिक, सामाजिक, व्यवहारिक एव पारिवारिक इस प्रकार अगणित समस्याएं जीवन के साथ जुडी हुई हैं । मैदान छोडकर सामाजिक प्राणी कही भाग नही सकते हैं । यदि परेशान होकर कही इधर-उधर दुवक भी गये तो कहाँ जायेंगे ? जहाँ भी जायेंगे वहाँ नवोदित वे समस्या समाधान चाहेंगी। एक शायरी मे कहा - लोग घबरा कर कहते हैं कि मर जायेंगे। मर कर भी चैन न पायेंगे तो किधर जायेंगे । इम कारण उभरी हुई समस्त समस्याओ से हमे तनिक भी घबराना नही चाहिये और न उनके प्रति हमे उपेक्षाभाव वरतना चाहिए अपितु सभी मिलकर समाधान ढूंढे ताकि समस्याओ का मार्ग प्रशस्त बने और दिल-दिमाग का वोझा हल्का होवे । मानव पर यह उत्तरदायित्त्व क्यो ? सहयोग करना-करवाने का सर्व उत्तरदायित्त्व महा-मनस्वियो ने मानव की वलिष्ट भुजाओ पर लादा है, ऐमा क्यो ? क्या इस विराट् विश्व की अचल मे अन्यान्य जीव जन्तु नही हैं ? चरिन्दे-फरिन्दे इस प्रकार अनन्त प्राणी सृष्टि की अगाध खाड मे कुलवुल कर रहे हैं तथापि मेधावी मानव को ही महयोग धर्मानुरागी अभिव्यक्त किया है ? दर असल वात ठीक है, अन्य प्राणियो की अपेक्षा मानव असीम वुद्धि का भण्डार है, वह हिताहित का ज्ञान-विज्ञान रखता हुआ स्वपर के उत्थान विकास मर्वोदय मे अपना भी अभ्युदय मानता है । इसी आभप्राय के अन्तर्गत महर्पिव्याम ने कहा "न हि मान पात् श्रेष्ठतर हि किंचित् ।" वत्स | आज मैं तुम्हारे समक्ष अनुपम गूढातिगूढ रहस्योद्घाटन कर रहा हूँ वह यह है कि सारे विश्व मे मनुष्य से श्रेष्ठ दूसरा कोई भी प्राणी नही है इसलिए मानव के समूह विशेप को 'समाज' की सज्ञा दी है और पशु के समूह को समाज न कहकर 'समज' कहा है । अतएव तन-मन-धन से मानवममाज महयोग करने मे सर्वथा सुयोग्य है । धन-सम्पत्ति द्वारा किन्ही निराश्रितनिर्वल आत्माओ को महायता करके तारीफ वटोर लेना काफी सरल है किंतु काया से दुखित, दलित जीवो की मदद करना अतिदुष्कर माना है। हंसते-मुस्कराते जीवन के अमूल्य क्षणो को पर पीडा निवारण मे विताना अति कठिन माना है । एक महिला अपने वृद्ध पति की सेवा-सहायता करती हुई ऊब गई तब वह मन ही मन प्रभु से प्रार्थना करने लगी आया वर्ष जव सेंकडा तन-मन हुआ खोखरा । पतिव्रता पति सुकहे अब मरेतो सुधरे डोकरा ।। यत्किंचित् नर-नारी ही भाग्यवान् होगे, जो निज काया से सेवाकार्य करते हुए कभी भी ऊवते नही हैं, जिनको कभी भी ग्लानी पैदा नही होती, परन्तु सहयोग करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने भाग्य को सराहते हैं । ऐसे मानव सृष्टि के लिए भार नही हार स्वरूप माने गए है। किन्तु आज यहाँ-वहाँ दृष्टिपात करते हैं तो हमे आज के जमाने पर तरस आती है । आज भाई-भाई का तिरस्कार, वहिष्कार, यहां
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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