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सर्वोदय सिद्धि का सोपान
सहयोग धर्म
बुद्धि का विस्तृत भण्डार जितना मानव के कमनीय कर कमलो को मिला हुआ हे उतना अन्य किसी गतिवाले जीव-जन्तु को नहीं मिला । ऐसा क्यो? इसलिये कि-मानव अपने मूल्यवान मस्तिष्क में स्थित मेधा का उपयोग अन्य के निर्माण मे सहयोग मे एव सृजन मे करता-फरवाता है। आज के इस विकासशील युग मे प्रत्येक देश-सीमा को दृष्टि से नहीं, किंतु व्यावहारिक एव वैचारिक दृष्टि से अत्यधिक समीप आ और आये रहे हैं । इसमे सहयोग ही बहुत वडा माध्यम माना जाता है। गुरुदेव द्वारा 'सहयोग धर्म' पर प्रदत्त प्रवचन पदिए ।
सम्पादक प्यारे सज्जनो!
आर्यसस्कृति सदैव चैतन्य उपासना मे विश्वास रखती है। वह मृण्मय देह की नही देही की आरती उतारा करती है । वासना की ओर नही उपासना की ओर कदम बढाने का सकेत देती है। चित्र का नहीं, चरित्र का गुणानुवाद करती है। कारण कि हमारी परम्परा गुणानुरागी है। इसलिए मानव जीवन अत्यन्त गुणो का भण्डार माना गया है । सर्वोपरि अनन्त गुणो का विकास वीतराग दशा की उपलब्धि होने पर ही हो सकता है अन्यथा नही । साधक की साधना, आराधना इसी प्रयोजन के लिये होती है । यद्यपि भव्यात्माओ मे अनन्त गुणो का सद्भाव है तथापि विभाव परिणति के कारण उन अनन्त गुणो मे से कुछेक गुण ही विकसित हो पाये हैं। सहयोग धर्म की आवश्यकता
सहयोग गुण भी वाह्य एव आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित है। अतएव सहयोग गुण का मानव समाज मे अधिकाधिक विकास होना आज के युग मे अत्यावश्यक है । सहयोग के विना कोई भी राष्ट्र, समाज, सघ, ग्राम, नगर एव परिवार उभयात्मक जीवन का उत्थान नही कर सकते हैं। एक युग था जिसमें सहयोग की उपेक्षा रखते हुए मानव अकेला जीवन यापन कर लेता, अकेला खा पी लेता, अकेला घूम फिर लेता, और अकेला ही दुख-सुख की परिस्थितियो मे हंस और रो लेता, पारिवारिक, मामुहिक जीवन की ओर उनका कुछ भी लक्ष्य नही था। वे उत्तरदायित्व से मुक्तवत् थे। इसका मतलब यह नही की वे अनभिज्ञ असभ्य थे । आर्यमस्कृति व सभ्यता का विकास तो हजारो वर्ष पूर्व हो चुका था, वस्तुत वह निस्पृह जीवन था । अतएव अकेलेपन मे ही उन्हे सुखानुभूति होती थी किंतु इस आणविक युग मे कोई कहे की मैं अकेला रहकर सब कुछ कर लूगा, साध लूगा, जीवन का सागोपाग नव निर्माण भी कर लूगा मुझे किसी मानव के सहयोग की आवश्यकता नहीं। ऐसी वात मैं नही मान मकता है क्योकि-मायक या ससारी सभी के लिये महयोग धर्म की जरूरत रही है। भगवान् महावीर ने कहा है-माधक का साधना मय जीवन भी पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, वनस्पति और ससारी जनो के महयोग पर ही काफी हद तक टिका हुआ है वरना पग-पग और डग-डग पर विघ्न तैयार है।