SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आसक्ति रूप मे वस्तुओं को नव जोर से पकड लेना, जमा करना, और उनका मर्यादाहीन गलत अनामाजिक रूप में उपयोग करना । वस्तु न नी हो, नदि उसकी आमक्तिमूलक मर्यादाहीन अभीप्सा है तो वह नी परिग्रह है । इसीलिए महावीर ने कहा था-'मुच्छा परिग्गहो'-मूळ, मन की ममत्व दशा ही वास्तव म परिग्रह है। जो सावक ममन्त्र मे मुक्त हो जाता है, वह सोने चादी के पहाडो पर बैठा हुआ मी अपरिग्रही कहा जा सकता है। इम प्रकार भगवान महावीर ने परिगह की, एकान्त जड वादी परिमापा को तोडकर उसे भाववादो, चंनन्यवादी परिभापा दी। ___ अपरिग्रह का मौलिक अर्थ भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का नीधा-सादा अर्थ है-निस्पृहता, निरीहता । इच्छा ही सवमे वडा वधन है, दुस है । जिसने इच्छा का निरोध कर दिया उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा-मुक्ति ही वास्तव मे मसारमुक्ति है । इसलिए सबसे प्रथम इच्छाओ पर, आकाक्षाओ पर मयम करने का उपदेश महावीर ने दिया । वहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रवुद्ध होती है कि वे अपनी सम्पूर्ण इच्छाओ पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महाव्रती-सयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढते है। किन्तु इसमे अपरिग्रह केवल सन्यास क्षेत्र की ही साधना मात्र वनकर रह जाता है, अत सामाजिक क्षेत्र मे अपरिग्रह की अवतारणा के लिए उसे गृहस्थ-धर्म के रूप मे भी एक परिमापा दी गई। महावीर ने कहा-सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओ का सपूर्ण निरोध, आसक्ति का समूल विलय-यदि मभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमश कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओ को सीमित करके ही वह अपरिग्रह का माधक बन सकता है। इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक, असीम वनती जाएंगी और उतनी ही चिन्ताएँ, कष्ट, अशान्ति वढती जाएंगी। ___ इच्चाए सीमित होगी, तो चिन्ता और अशान्ति भी कम होगी । इच्छाओ को नियत्रित करने के लिए महावीर ने 'इच्छापरिमाणवत' का उपदेश किया । यह अपरिग्रह का मामाजिक त्प भी था । वडेवडे धनकुवेर, श्रीमत एव सम्राट भी अपनी इच्छाओ को सीमित-नियत्रित कर मन को शात एव प्रसन्न रख सकते है । और माधनहीन माधारण लोग, जिनके पास सर्वग्राही लम्बे चौडे माधन तो नही होते, पर इच्छाएं असीम दौड लगाती रहती हैं, वे भी इच्छा-परिमाण के द्वारा समाजोपयोगी उचित आवश्यकताओ की पूर्ति करते हुए भी अपने अनियत्रित इच्छाप्रवाह के सामने अपरिग्रह का एक आन्तरिक अवरोध खडा कर उसे रोक सकते हैं। इच्छापरिमाण-एक प्रकार से स्वामित्व-विसर्जन की प्रक्रिया थी। महावीर के समक्ष जव वंशाली का आनन्द प्ठी इच्छापरिमाण व्रत का सकल्प लेने उपस्थित हुआ, तो महावीर ने बताया"तुम अपनी आवश्यकताओ को मीमित करो । जो अपार-साधन सामग्री तुम्हारे पास है, उसका पूर्ण रूप मे नही तो, उचित सीमा मे विसर्जन करो । एक सीमा से अधिक अर्थ-धन पर अपना अधिकार मत रखो, आवश्यक क्षेत्र, वास्तु न्म भूमि से अधिक भूमि पर अपना स्वामित्व मत रखो। इसी प्रकार पशु, सदा-दासी, आदि को भी अपने सीमाहीन अधिकार से मुक्त करो।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy