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________________ लेखक की कलम से गुरु प्रवर श्री प्रतापमल जी म. सा के साधना-काल को इस समय इकावन वर्ष सम्पन्न हो चुके है। उन्होने अपने इस महत्त्वपूर्ण समय का सर्वाग मुख्यरूपेण स्थानकवासी जैन समाज की प्रगतिविकास मे और जन-जन के कल्याण मे बिताया है। गुरु भगवत के जीवन का अध्ययन करते रहने का सुअवसर गत वीस वर्षों से मुझे भी प्राप्त हुआ है । मेरा पठन-पाठन, मेरी साधना व मेरी प्रगति इनकी देख-रेख मे ही फली-फूली, उनके कमनीय करकमलो से सवर्धन पाई एवं उनकी शुभ दृष्टि के समक्ष ही पल्लवितपुष्पित हुई है। यद्यपि मेरे लिए उनका वाल्य जीवन और पहिले का मुनि जीवन केवल श्रवण का ही विषय रहा है । तथापि उनके मुनि जीवन के कुछ वर्ष मेरे प्रत्यक्ष के विषय रहे है। मेरी नन्ही सी आँखो ने इन वीस वर्षों मे उनको काफी सन्निकटता से देखा है। दिल-दिमाग ने यथा शक्ति समझा है और मन ने अपनी मथरशीलता से उनके विषय मे नानाविध निष्कर्ष भी निकाले हैं। उन्ही निष्कर्षों को शब्दाकित करने का प्रयास इस लघु पुस्तिका मे किया गया है । व्यक्ति के पार्थिवदेह की आकृति को कागज पर उतारने मे जितनी कठिनाइयाँ होती हैं, उनसे कही अधिक व्यक्तित्व को श्वेत कागज पर लेखनी द्वारा उतारने मे होती है । आकृति साकार होती है। उसे किसी एक ही क्षेत्र और काल के आधार पर चित्राकित कर लेना पर्याप्त हो सकता है। परन्तु साधक का महामहिम व्यक्तित्व अनाकार-अरूप होता है। साथ ही साथ वह जन-जन के जीवन तक व्याप्त रहता है। अतएव उसे शब्दाकित करने मे अपेक्षाकृत अधिक दुरुहता है। चूंकि लिखी गई कही गई, बातो का आज की चतुर
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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