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________________ ६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ बाता को भूल जायें। उसके बाद यदि मुले सनोपजना बातावरण प्रतीन आ नो में दीक्षा याने की अनुमति दे गकता है । वरन् मत के लिए मेकटी गाव है। वैमा ही हुआ । काफी वर्षों की फट गत्म हुई। पर-पर ग्नेर-गगठा नमागी सुरमरी प्रवाहित हो चली। आनन्दोल्लास के क्षणों में दीक्षोसाय भी गम्पन हुमा । आज भीम नगरमा आबालवृद्ध गुरुदेव के इस अनुपम कार्य को बार-बार दुहराता हुना अदा रा उनके पवित्र चरणों में नतमस्तक है। १६ विरोधो को प्रिय वोध आहार आदि कार्यों से निवृत्त होकर गुरुदेव हमे स्याद्वादमजरी, प्रमाणामागा आदि दर्शन शास्त्र का अध्ययन करवा रहे थे। ___ सहसा एक भाई मेवा मे उपस्थित हुआ । गुरु भगवत के पवित्र पाद पयो में माथा झुकाया, अश्रुपूरित आखो से, गद्गद् गले से एव उभय घुटनो को जमीन पर टेककर स्वय की समीचीन मालोचना का रिकार्ड शुरू कर दिया । समीपस्थ विराजित हमारा मुनि सघ डग हण्य को पंनी दृष्टि में देख व गुन भी रहा था। महाराज | मैं निन्दक, दुगुणी एव परछिद्रान्वेपी हूँ।-आगतुम उस भाई ने पहा । धावक जी | दरअसल वात क्या है ? रहस्य खोलकर साफ दिल से कहो-गुरदेव ने पूछा। महागज । जव आपने इन्दीर-चातुर्मास करने की स्वीकृति फरमाई पी। तब मुझे अत्यधिक बुरा लगा, मेरी अन्तरात्मा इस खवर को पाकर खाफ हो गई । क्योकि हमारे पूज्य श्री नानालाल जी म० का चौमामा भी यहां ही निश्चित हो चुका था । अत जन-मत आपके विरोध में कहे, इन कारण भरपेट मैंने चुपके-चुपके अन्य नर-नारियो के मामने आपकी झूठी-निन्दा-चुराई की एव जन-मन को बरगलाया भी सही । ताकि आपका चातुर्मास विगड जाय । ऐसा कहा जाता है न गगा हो गई मैली कभी अधी के कहने से । न सूरज हो गया काला कभी उल्लू के फहने से ।। "ठीक इसी प्रकार महाराज | मैं मदेव महावीर भवन मे आपके तपा इन मुनियो के छिद्र देखने के लिए आता रहा हूँ। कभी भी मुझे उनीमी वात दृष्टि गोचर नही हुई। बल्कि आपके मुह से हमारे आचार्य श्री की तारीफ ही मुनी । वास्तव में आप नदी-नाले नहीं सागर समान हैं, अज्ञान वगात् मेरी अन्तरात्मा ने आप की निंदा-व भारी अवहेलना कर कर्म बान्धे हैं । निश्चय ही में आपका कर्जदार है। इमलिए विहार के पहले मैंने आलोचना करना ठीक समझा। आप क्षमा के भण्डार और शात-सुधा के सदेशवाहक हैं । मुझे मेरी गल्तियो के लिए मनसा वाचा-कर्मणा क्षमा प्रदान करे। ताकि मेरी अन्तरात्मा कर्म वोझ मे हल्की बने ।" गुरुदेव आपकी अन्तरात्मा निर्मल हो चुकी । आप ने बहुत अच्छा किया। मेरे सामने आलोचना
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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