SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड संस्मरण | ८६ को सार्वजनिक व्याख्यान के रूप में विशाल पैमाने पर मनाना है । ताकि अनेक दर्शकगण भी सुधारवाद की प्रेरणा सीख सके । जमाना विकास की ओर आगे वढ रहा है। अतएव अपने को स्थानक एव मदिर की चारदीवारो मे वद नही रहना है । क्राति का शख गुजाना है तो अपन सव मैदान के प्रागण मे चलें। वैसा ही हुआ । स्थानीय विशाल चौक बाजार में कार्यक्रम पूरा हुआ । नवयुवक मण्डल को भारी जोश यो धा कि हमारी योजना आशातीत सफल रही, बुजर्ग जन का सन्तुलन स्थान पर था किहमारा स्थानक वाल-बाल बच गया। हरिजन समाज को बेहद खुशी थी कि-जैन समाज ने हमारा बिल्कुल तिरस्कार नहीं किया और गुरुदेव को प्रसन्नता इस बात की थी कि सभी विचारधाराओ का समन्वय सफल रहा। हरिजन समाज गुरु प्रवर के व्याख्यान वाणी से काफी प्रभावित हुआ एव यथाशक्ति नियम ग्रहण कर चलते बना। बुजुर्ग एव नवयुवक मण्डल गुरुदेव की सामयिक सूझ-बूझ पर मत्र मुग्ध थे । वोले-महाराज ! कमाल आपकी सूझ-बूझ । आज तो आपने साधुत्व का महान कार्य कर प्रत्यक्ष वता दिया । सभी वर्गों मे श्लाघनीय प्रतिक्रिया हुई । १५ जादू भरा उपदेश २०२५ की घटना है । गुरुदेव व्यावर से विहार करके भीम पधारे हुए थे। भीम मेवाड प्रात का जाना-माना क्षेत्र रहा है। जहां का श्रावक वर्ग जिन शासन के प्रति श्रद्धाशील एव धर्मनिष्ठ रहा है । तथापि भीम सघ मे एकात्मभाव का अभाव और फूट का बाजार गर्म था। वस्तुत जैसी चाहिए वैसी समाज मे प्रगति नही हो पा रही थी। बडे-बडे मुनि-मनस्वी एव आस-पास के कई सज्जन वृन्द ने भी भरसक प्रयत्न चालू रखे कि इस फूट-फजीती को स्नेह-सगठन के सूत्र मे वदल दिया जाय । किन्तु मद भाग्य के कारण उन्हे तनिक भी सफलता प्राप्त नही हो सकी । अपितु कपायी ग्रन्थी सुदृढ वनी। दुनियाँ जव हठाग्रहवादी बन जाती है तव हितकारी-पथ्यकारी बात को भी ठुकरा देती है। चूँकि मिथ्यानिंदा, आलोचना तुराई एव अनर्थकारी विचारो का कचरा उनके दिमाग मे भरा रहता है । इस कारण प्रिय वातें भी अप्रिय और मित्र भी शत्रु प्रतीत होते है। ___गुरुदेव शुभ घडी मे वहा पहुंचे थे। विघटन कार्यवाइयां सर्व ध्यान मे थी। सदैव महाराज श्री कार्य कुशल रहे हैं । वे जन-मन को बनाना जानते है । सुघा-पूरित वाणी मे स्व-मण्डन की निर्मल धारा नि सूत हुआ करती है। प्रभावोत्पादक व्याख्यानो से लाभ-हानि का श्रोताओ को भान हुआ। छिपी हुई ग्रन्थियाँ शिथिल हुई । पारस्परिक विचारो का विनिमय होने लगा। सेवा मे उपस्थित होकर वोले-गुरुदेव । आप की वाणी ने हमारे कानो की खिडकियां खोल दी हैं। अव कृपा करके आप हमे वैरागी भाई प्रकाश जी की दीक्षा यहाँ करने की अनुमति प्रदान करें। ताकि हमारा सघ धन्यशाली बने । ___गुरुदेव-वैरागी भाई की दीक्षा से भी मेरी दृष्टि मे सघ का आदर्श महान् है। आप सभी महान् आदर्श को बढाना चाहते हो तो सर्वप्रथम सघ मे एकात्मभाव का सृजन करे । गई गुजरी सर्व १२
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy