________________
२०० । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ तक चतुरगिनी सेना का घेरा डालकर हयहाँते हैं और सिंह से रक्षा करने मे सलग्न हो जाते है१२ । त्रिपृष्ठ ने कहा-मुझे वह स्थान वताओ जहाँ वह नवहत्था केमरी सिंह रहता है। रथारूढ होकर शस्त्रयुक्त वह वहाँ पहुचा । सिंह को ललकारने लगा, सिंह भी अगडाई लेकर उठा और मेघ सदृश -गभीर गर्जना मे पर्वत की चोटियो को कमाते हुय वाहर निकल आया । त्रिपृष्ठ के अन्तस्तल मे विचार लहरें उछलने लगी — यह पैदल हैं और हम रथारूढ हैं । यह शस्त्र रहित है और हम शस्त्रो से युक्त हैं सज्जित है। ऐसी स्थिति में किसी पर भी आक्रमण करना सर्वथा उचित है । इस प्रकार विचार करके रथ से नीचे उतर गया और शस्त्र भी फेक दिये।
सिंह ने विचार किया—यह वज्रमूर्ख है । प्रथम तो एकाकी मेरी गुफा मे प्रविष्ट हुआ, दूसरे रय से भी उतर गया है, तीसरे शस्त्रो को भी डाल दिये है । अव इम को एक ही झपाटे में चीर डालू१४ । ऐसा सोचकर वह त्रिपृष्ट पर टूट पडा । त्रिपृष्ठ भी कोपाभिभूत होकर उस पर उछला और मारी शक्ति के साथ (पूर्वकृत निदानानुसार) उस के जवडो को पकड लिया और वस्त्र की तरह उसे चीर डाला५५ । प्रस्तुत दृश्य को निहार कर दर्शक आनन्द विभोर हो उठे | सिंह विशाखानन्दी का जीव था।
त्रिपृष्ठ सिंह चर्म लेकर निज नगर की और प्रस्थित हुआ। आने के पहले उमने कृपको से कहा-घोटकग्रीव से कह देना कि वह अव पूर्ण निश्चिन्त रहे । जब उसने यह बात सुनी तो वह अत्यधिक ऋद्व हुआ | अश्वग्रीव ने दोनो- राजकुमारो को बुलवाया । वे जव नही गये तव-अश्वग्रीव ने सेना सहित पोतनपुर पर चढाई करदी। त्रिपृष्ठ भी ससैन्य देश की सीमा पर पहुँचा | भयकरातिभयकर युद्ध हुआ। त्रिपृष्ठ को यह सहार अच्छा न लगा। उसने अश्वग्रीव से कहा-निरपराध सैनिको को मौत के घाट उतारने मे क्या लाभ है ? श्रेष्ठ तो यही है कि हम दोनो युद्ध करें १६ । अश्वग्रीव ने प्रस्तुत प्रस्ताव मान्य किया। दोनो मे तुमुल युद्ध होने लगा । अश्वग्रीव के समग्र शस्त्र समाप्त हो गये । उसने चक्र रत्न फेका । त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी से अपने ही शत्र के मिर का छेदन करने लगा। उसी समय-दिव्य वाणी से गगन मण्डल गुञ्जायमान होने लगा । "त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया १०।
१३ (क) आवश्यक चूणि पृ० २३४
(ख) आवश्यकमलयगिरि वृत्ति० प० २५० | २ १४-नत्प्रेक्ष्य केसरी जात-जाति स्मृतिरचिन्तयत् ।
एक धाप्यमहो एको यदागान्मद्रु हामसी ॥ अन्यरथादुत्तरण तृतीय शस्त्रमोचनम् । दुर्मद तनिहन्म्येप, मदान्धमिव सिन्धुरम् ॥
-त्रिपष्टि० १०।११४६, १४७ १५-त्रिपष्टि १०।१।१४८,१४६ १६-त्रिपप्टि १०११११६४ से १६६ १७-(क) उत्तर पुराण ७४१ १६१ से १६४ पृ० ४५४
(ख) आवश्यकचूर्णि पृ० २३४ (ग) आवश्यक नियुक्ति मलय० वृ० २५०