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प्रथम खण्ड महामारी का आतक | १६ प्रश्न मुहफाडे खडा था । यद्यपि बुद्धि तीक्ष्ण थी, तत्त्व समझने की कला-कुशलता थी, और पढ़ने-लिखने की अभिरुचि भी प्रशसनीय अनुकरणीय थी। किन्तु पिता श्री के अवसान से पढाई लिखाई का क्रम वही का वही ठप्प हो गया । वस्तुत अध्ययन कार्य को गौण कर वालक प्रताप को व्यवसाय मे जुटना पड़ा।
नौ वर्ष का भद्रिक वालक एक परचनी दुकान चला ले, सचमुच ही आश्चर्य भरा विषय था । अन्य पारिवारिक लोगो पर आधारित न रह कर स्वाभिमान-मर्यादा पूर्वक जीवनयापन के लिए इस प्रकार का सुप्रयत्न एक धीर-वीरवृत्ति का द्योतक था । इस वीरवृत्ति ने प्रताप को ऊंचा उठाया, चमकाया, दमकाया और पूजनीय वनाया । प्रताप अपने लघु व्यवसाय मे मफल, सवल हुआ और सुख-शान्ति-मतोपपूर्वक आजीविका का काम चलाने लगा । कहा भी है
खाक मे मिला तो क्या फूल फिर भी फूल है। गम से हार मानना आदमी को भूल है ।