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________________ चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति राजस्थानी रो भक्ति साहित्य | २४१ बहुत व्यापक हुय गयो । राम-कृष्ण शिव-भक्ति रा कई सम्प्रदाय चल गया कोई केनेई भजे और कोई केनेई माने पूजे, पण आपरो हृदय जिकेरे प्रति समर्पित हुवे जिके ने आप सू बडो ईष्ट मान लेवे वेरे प्रति आदर और श्रद्धा वढती ही जावे अइवास्ते गुरु री भक्ति ने भी बहुत महत्त्व दियो गयो और अठे ताई केय दियो के गुरु गोविन्द दो खडे, किसके लागू पाय । बलिहारी गुरु देव की, गोविन्द दियो बताय । १।। अर्थात् भगवान ने बतावण वाला और भगवानखने पोचावण वाला या पहुँचने रा रास्ता बतावण वाला गुरुई हुवे है। जिका सू आच्छे बुरे रो ज्ञान प्राप्त कियो जावे। सावना मे सहायता मिले । इये उपगार री मुख्यता रे कारण गुरुवा रे प्रति भी वहत भक्ति भाव राख्यो जावे है। भगवान तो आपारे सामने प्रत्यक्प कोनी, पर गुरु तो प्रत्यक्ष है, इये वास्ते गुरे रे प्रती विनय, आदर और श्रद्धा राखणो भी भक्ति से प्रधान अग है।। परमात्मा या भगवान कुण है और वेरो स्वरूप कई है ? इये विषय मे काफी विचार भेद है। जैन धर्म री मान्यता वैदिक और वैष्णव धर्म सू इये बात में काफी भिन्न पड जाव है। क्योकि वैदिक धर्म मे ईश्वर सम्वन्धी मान्यता इस तरह री है, के ईश्वर एक है और समय-समय पर अनेक अवतारा ने धारण करे है सृष्टि री उत्पत्ति वोही करे और सब कर्ता-धर्ता बोही हैं । ब्रह्मा रे रूप मे सृष्टि री सृजना करे, विष्णु रे रूप मे रक्षण व पोषण करे, और शिव शकर रे रूप मे सिंहार करे । जगत रा सारा जीव वे 'ईश्वर री ही सतान है अर्थात् वेरा ही वणावेडा है।' ईश्वर सर्व समर्थ है और शक्तिमान है चावे तो कोई ने तारदें कोई ने मार भी दे । इये वास्ते भक्त लोग भगवान री प्रार्थना करे, सेवा पूजा व भक्ति करे । के भगवान रे प्रसन्न हुआ सू म्हारो कल्याण हुसी ओ भव परभव सुधरसी । भगवान रे रुष्ट हुणे सू आपाने दुःख मिलसी, जो कुछ हुवे है बो सब भगवानरो करियोडो ही हुवे है। इस तरह री विचारधारा जैन दर्शन मान्य को करीनी । जैन दर्शन रे अनुसार ईश्वर परमात्मा या भगवान कोई एक व्यक्ति विशेष कोनी, गुण विशेप है । जिके व्यक्ति मे भी परमात्मा रा गुण प्रकट हुय जावे वेने ही परमात्मा केयो जावे इये वास्ते ईश्वर एक कोनी, अनेक है अनन्त है । पूर्ण परमात्मा वणने रे वाद वेने इये ससार ओर जीवा सू कइ भी लगाव सम्बन्ध कोनी । वो तो कृत्य-कृत्य और आत्मानदी वणजावे है । वो न तो केरे ऊपर राजी हुवे न विराजी । न तुष्ट हुवे न रुष्ट हुवे। जगत रा जीव आप आपरा आच्छा व बुरा कर्मा के अनुसार आपरे मते ही फल भोगे हैं। परमात्मा रे इया रो कोई हाथ कोनी । ईश्वर जगत रो कर्त्ता घरता कोनी । जगत आपरे स्वभाव या प्रकृति सु अनादिकाल सू चल्यो आरायो है और अनन्तकाल तक चलतो रहसी। इस तरह री मौलिक विचारधारा जैन दर्शनरी हुणे रे कारण वैदिक दर्शना मू वा काफी भिन्न पड जावे है । और ऐई कारण जैन धर्म मे कर्मा ने प्रधानता दी है। कर्म रा खतम हुवणे सु ही मुक्ति मिले, कर्म ही वधन है । वे वधन सू छूटजाणा ही मुक्ति है। प्रत्येक जीव कर्म करणे मे व भोगने मे स्वतत्र हैं । ईश्वर रो अश या दास कोनी । आत्मिक गुण रे विकास सू प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सके। परमात्मा कोई अलग चीज कोनी, आत्मारो ही पूरो विकाश हुय जाणो परमात्मा वन जाणो है । इस तरह री दार्शनिक विचार धारा सू विया सिघो भक्ति रो कोई सबन्ध नही दिखे । पर जैन धर्म में भी भक्ति रो विकाम काफी अच्छे रूप ने हुयो, मेरो एक मुख्य कारण ओ है कि प्रत्येक आत्मा मूल स्वभाव सू परमात्मा हुणे पर भी कर्मा रे आवरण और दवाव के कारण समार मे रूल रह्यो है । सुख-दुख
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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