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________________ १६८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ राजकुमार सूरमेन ने ज्येष्ठ भ्राता को शत्रुओ के घेरे से मुक्त भी कराया और शत्रुपक्ष को परास्त भी किया । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन रूपी आँखो के अभाव में उस देहधारी के पास में भले कितना भी ज्ञान था, किन्तु वह जान तारक नहो सिद्ध हुआ। क्योकि सद्दर्शन के अभाव मे पठित ज्ञान कुज्ञान माना गया है। हाँ तो, कर्मरूपी शत्रुओ से मुक्ति पाने के लिये सम्यकदर्शन ही सफल प्रयोग माना है। सम्यक् दर्शन ही मुक्ति महल का प्रथम सोपान है। यह एक कल्पवृक्ष के समान है, जो इच्छित (मोक्ष) कार्य की पूर्ति करवाता है । यह एक चिंतामणिरत्न के सदृश है, जो शारीरिक, मानसिक और दैविक त्रिताप के झझावातो से छुटकारा देता है, और शाश्वत सुखो को प्राप्त करवाने मे महायक बनता है । यह वह प्रकाशस्तम्भ है, जो मिथ्यात्वरूपी धने तिमिर को चीरकर, परमणाति का महामार्ग दर्शाता है । यह वह रामवाण औपधि है, जो मिथ्यात्वरूपी ज्वर की जड को उखाड फेकता है । और अक्षुप सत्य की प्राप्ति करवाता है और यह एक महान्-विशाल विराट् तु है, जो तीन यावत् पन्द्रह भव तक तो अवश्य मेव अपार समार-सागर को पार करवाता है। अत सम्यक् दर्शन की पूरी तरह से रक्षा करना भव्यात्माओ का प्रथम कर्तव्य है क्योकि सम्यकदर्शन से भ्रष्ट आत्मा कदापि कल्याण को प्राप्त नही कर सकता है । यथा भट्टण चरित्ताओ दंतणमिह दढयरं गहेयन्त्र । सिज्मति चरणरहिया दसण रहिया न सिज्मति ॥ --पड्दर्शन समुच्चय अर्थात्-यदि कोई साधक चारित्र से पतित हो गया हो, तथापि उस साधक को चाहिए कि--वह सम्यक्-दर्शन को खूब मजबूत पकड के रखे, क्योकि चारित्र के गुणो से रहित आत्मा को फिर भी शाश्वत सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है परन्तु दर्शन (श्रद्धा) से रहित आत्मा को सिद्धि से वचित हो रहना पडता है। __ जैसे अक के विना विन्दुओ की लम्वीलकीर वना देने पर भी उसका न कोई अर्थ और न सख्या ही होती है । उसी प्रकार सम्यक्त्व के विना ज्ञान और चारित्र का कोई उपयोग नहीं। और वे शून्यवत् निष्फल हैं । अगर सम्यक्त्व रूपी अक हो और उसके वाद ज्ञान और चारित्र है तो जैसे प्रत्येक शून्य से दम गुनी कीमत हो जाती है, वैसे ही वह ज्ञान और वह चारित्र मोक्ष के साधक होते हैं । मुक्ति के लिए सम्यक् दर्शन की सर्वप्रथम अपेक्षा रहती है नादसणिस्स नाण नाणेण विणा न होंति चरण गुणा । अगुणिस्स नत्यि मोक्खो नत्यि अमुक्फस्स निव्वाणं ।। -भ० महावीर हे साधक | सम्यक्त्व के प्राप्त हुए विना मनुष्य को सम्यक ज्ञान नही मिलता है, ज्ञान के विना आत्मिक गुणो का प्रगट होना दुर्लभ है। विना आत्मिक गुण प्रगट हुए, उसके जन्म-जन्मातरो के सचित कर्मों का क्षय होना दुसाव्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है। अत सवसे प्रथम सम्यक्त्व गुण की आवश्यकता है ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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