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________________ तृतीय खण्ड . प्रवचन पखुड़िया सम-दर्शन-माहात्म्य | १६७ को प्राप्त करता है । काललब्धि का प्राजलार्थ यह है कि-जैसे एक शिलाखड जल की तीन चचल तरगो मे टकराता हुआ, गिरता हुआ कई दिनो मे जाकर वतुलाकारवाला बन जाता है। उमी प्रकार यह जीवात्मा अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में प्रवेश करता है। फिर क्रमण द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय आदि पर्यायो मे परिभ्रमण करता हुआ, अनत जन्म-मरण और अकाम निर्जरा करता है। कम्माण तु पहाणाए आणपुन्वी कयाई उ । जीवा सोही मणुपत्ता आययति मणुस्सय ।। -भ० महावीर __ अनुक्रम से इतने समय के वाद, कर्मों की न्यूनता होने पर कभी यह जीवात्मा शुद्धता प्राप्त करता है, सभी मनुप्यत्व को प्राप्त होता है। उसे काललब्धि कहते है। इस अवस्था में रहकर यह जीवात्मा तीन करण करता है। पहला यथाप्रवृत्तिकरण करता है-जिसमे आत्मा के परिणामो की (विचार) धारा इतनी शुद्ध हो जाती है कि-आयुप्य कर्म के अतिरिक्त शेप सप्त कर्मों की स्थिति को पल्योपम के सख्यातभाग न्यून कोडा-कोडी सागरोपम प्रमाण कर देता है । पश्चात् दूसरी सीढी को प्राप्त होता है जिसको अपूर्वकरण कहते है । इस करण मे भी भावों की धारा और अधिक शुभ्रता शुद्धता की ओर बढती है। शेप कर्मों की रही अवधि में से एक मुहर्त जितनी स्थिति को न्यून करती है। विशेपता यह है कि-अनादिकालीन मिथ्यादर्शन, अनन्तानुवन्धी चौकडी और अज्ञान आदि को हेय (त्याग ने लायक) और सम्यक् दर्शन को उपादेय समझता है। यानी सत्य, क्षमा, अहिंसा आदि को अच्छा और हिंमा क्रोध आदि को बुरा समझता है । यहाँ जीव मार्गानुसारी वनता है। आत्मा ज्योज्यो और गहराई मे अवगाहन करता है, त्यो त्यो विमल-विशद भावो की धारा रूपी शुभ्र मदाकिनी प्रवाहित होती है । तव अनिवृत्तिकरण आ खटकता है। यहाँ पर भी शेप कर्मों की स्थिति मे से एक मुहूर्त स्थिति और न्यून करता है। विशेप मजे की बात तो यह है कि अनादिकालीन मिथ्यादर्शन की समूल इति श्री करके सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। सम्यक्दर्शन का उद्भव दो प्रकार से होता है-"तन्निसर्गादधिगमाद्वा" । ___ अर्यात-निसर्ग-स्वभाव से और अधिगम अर्थात् सद्गुरु के उपदेश आदि वाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है। सम्यकदर्शी जीव की दृष्टि निर्मल बन जाती है । सच्ची श्रद्धा और हृदय भी सरल सच्चा रहता है । मिथ्यादृष्टि अथवा वायस की भाति वह फिर किसी मानव के दुर्गुण रूपी घावो की तरफ नही झांकता है। क्योकि मम्यक्दृष्टि को तो सारा विश्व गुणमय, पुण्यमय और धर्ममय दिखाई देता है। "सम्यकदृष्टि परीगृहितं मिय्या तमपि सम्यक्श्रुतं भवति"। -तर्क भापा सम्यक्दृष्टि के हाथ मे आया हुआ मिथ्यादर्शन भी सम्यक्-श्रुत वन जाता है। आशय यह है कि-भले ही वह कैसे ही शास्त्र, ग्रन्थ या वस्तु क्यो न हो, परन्तु सम्यक्दृष्टि का अनुयायी तो उसमे से कृष्ण वासुदेववत्, या हेसवत् उपादेय को ही ग्रहण करता है और हेयवस्तु को त्याग देता है । अत गुण ग्रहण करना यह सम्यकदर्शी का प्रधान चिह्न है। जैसा कि-वीरसेन-सूरसेन दो सगे भाई थे। वीरसेन जन्म से ही अधा था किंतु गायन कला मे प्रवीण था। और सूरसेन धनुर्विद्या मे। भ्राता की जाहो-जलाली सुनकर वीरसेन ने भी सतत् प्रयत्नपूर्वक धनुर्विद्या का अध्ययन किया । सहसा अन्य शनु चढ आये और उस चक्षु विहीन राजकुमार वीरसेन को बन्दी बना लिया। मालूम होने पर कनिष्ठ
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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