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________________ १६६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ मिथ्यादर्शन के अन्तर्गत आचरित दुष्कर करणी एव कथनी मोक्ष का कारण नही अपितु मसारवर्धन का कारण माना है । ससारी सुख सपदा-परिवार-पद-प्रतिष्ठा-हाट-हवेली एव राज्य श्री की उपलब्धि करवा सकती है किन्तु वीतराग दशा की प्राप्ति करवाने का सामर्थ्य मिथ्यादर्शन में कहा? माना कि -जीवात्मा अधिकाधिक कर्मों का वधन एव कर्मों का नाश प्रथम गुणस्थान पर ही करता है। तथापि आत्मा की वास्तविक विजय नही, पराजय ही मानी गई है कि मामर्थ्य-विहीन विजय निश्चयमेव पराजय मे बदल जाती है। कहा भी है कुणमाणोऽविनिवित्त परिच्चयतोऽपि सयणधण भोए । दितोऽवि देहस्स दुक्ख मिच्छादिदि न सिज्मति ॥ अर्थात्-देहधारी प्राणी स्वजन-धन-भोग-परिभोग आदि का परित्याग करता हुआ एव शरीर को प्राणान्त कप्ट देता हुआ भी मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है, कारण कि-उसके अन्त करण मे मिथ्यादर्शन का सद्भाव स्थिति है । आगम मे भी कहा है 'मासे मासे तु जो वालो फुसग्गेण तु भुजए । न सो सुयक्खायधम्मस्स कल अग्घइ सोलसि ।। -उत्तराध्ययन "जो वाल (अज्ञानी) साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा मे कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म (सम्यक् चारित्र रूप मुनिधर्म) की सोलहवी कला को भी पा नहीं सकता है।" अत यह मिथ्यादर्शन ही आत्मा को अनादि ससार मे रुलाता है। जन्म-मरण की अपार खाई (खाड) का वर्षक है । और शिव-मुखो से वचित रखता है । इसलिए मिथ्यादर्शन एकात जीवात्मा के लिये हेय है। एक व्यक्ति अपने मित्र को कार्ड लिखता है। वह कार्ड बडा ही मजबूत और मनोहर है । वेल-बूटे अ.दि चित्रो से रमणीय वना हुआ है । अनेक रग बिरगी स्याहियो से तथा परिश्रम से उम पत्र को सुन्दर अक्षरलिपि से सुसज्जित किया गया है । परन्तु उस पर प्राप्त करने वाले व्याक्त का पता लिखना लेखक महोदय भूल गये हैं, कहिये क्या वह पत्र मही स्थान पर पहुँच सकेगा? कदापि नही । रद्दी की टोकरी के सिवाय उस पत्र की कोई गति नही हो सकती है, यही स्थिति समदर्शनरूपी मोहर मे रहित जीवात्मा की है । सब कुछ रूप से मानव युक्त हो, लेकिन समदर्शन न हो तो मोक्ष-क्षेत्र मे उस जीवन का कोई मूल्य नही है। विपक्ष को जानकर अब सम्यक् दर्शन किसे कहत हैं इसका जानपना करना भव्यात्माओ का स्वाभाविक धर्म है और मुमुक्ष ओ के लिए अनिवार्य भी है --"तत्वार्थ श्रद्धान सम्यकदर्शनम्' । -तत्वार्थ सूत्र नव तत्त्व आदि पर गाढी श्रद्धा-प्रतीती लाना ही सम्यकदर्शन कहलाता है-अनादिकाल से दर्शनमोनीय कर्म के कारण भव्यात्मा का यह गुण आच्छादित है। ज्यो ही दर्शन मोहनीय कर्म दूर हुआ कि—सम्यक्त्व गुण इस प्रकार प्रगट हो जाता है-जैसे मेघो के हट जाने पर भास्कर । सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम यह जीवात्मा काललब्धि पाकर तीन करण करता है। तव सम्यक्दर्शनरूपी महान् सत्य
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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