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वैराग्य : विशुद्धता की जननी
जब आप किसी पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढते हैं, तो नीचे के समस्त पदार्थ क्षुद्र दिखाई देते हैं। इसीप्रकार जव साधक वैराग्य की ऊंचाई पर आरोहण करता है, तब ससार के सब वैभव, मान, सम्मान, पूजा प्रतिष्ठा भोग विलास तुच्छ एवं क्षुद्र मालुम पहते हैं । संसारी वस्तुओ का महत्त्व उसकी दृष्टि मे नीचे झुके रहने तक है । ऊँचे चढ जाने के बाद नहीं रहता है। तत्सम्बन्धित गुरु प्रवर का "वैराग्य : विशुद्धता को जननी" नामक मौलिक प्रवचनाश पढ़िए ।
-सपादक प्रिय सज्जनो।
__ वैराग्य की परिभापा इस प्रकार की जाती है "विगत राग यस्मात् इति विराग" अर्थात् जिससे अथवा जिसका राग चला गया है। वह विराग कहलाता है और "विरागस्य भाव इति वैराग्यम् ।"
जव आत्मा पर (प्रेय) अर्थात् सासारिक और भौतिक (पौद्गलिक) सर्व वस्तुओ से मुंह मोडकर तथा राग-मोह-ममता आदि की ग्रन्थि को भेद करके म्व (श्रेय) अर्थात् अपने स्वरूप मे रमण करती है और अपने जन्म-मरण के मूल कारणो का अन्वेपण करती है तव आत्म-सरोवर मे ही एक प्रकार की निर्वासना युक्त 'सत्य, शिव, सुन्दरम्' भावो की शान्त स्वच्छ धारा निस्सृत होती है। जिससे निरन्तर आध्यात्मिक पथ की ओर गमन करने की पवित्र-प्रेरणा प्राप्त होती है। ऐसे भावो (विचारो) का नाम ही वैराग्य है । यह वैराग्य आत्मा का ही एक नीजि गुण है, जो कदापि आत्मा से विलग नहीं होता है।
जिम प्रकार मानव जीवन मे जप, तप और दया, दान आदि का विशिष्ट महत्त्व है उसी प्रकार वैराग्य को भी मानव जीवन मे प्रमुख अग माना है। जब तक हृदय रूपी जलाशय मे सच्चे वैराग्य भावो की लहरें उठती नही, तव तक मानव भले कठोराति कठोर-क्रिया-कलापो का आचरण करें । परन्तु निस्सार और निष्फल है क्योकि-इच्छित वस्तु की उपलब्धि नहीं हो सकती है । जैसा कि भ० महावीर ने कहा है -
अट्ठदुहट्टियचित्ता जह जीवः दुक्खसागरमुवैति । तह वैरग्गमुवगया कम्म सुमुग्ग विहार्डेति ।।
-जैनदर्शन हे गौतम | जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नही हुए हैं, सासारिक भोगो मे फंसे हुये है वे आत-रौद्र ध्यान को व्याते हुये मानसिक कुभावनाओ के द्वारा अनिष्ट कर्मों को सचय करते हैं । और जन्म-जन्मान्तर के लिये दुख-सागर में गोते लगाते हैं। जिन आत्माओ की रग-रग मे वैराग्य रस भरा पडा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व सचित कर्मों को वात की बात मे नष्ट कर डालते हैं।
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