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________________ २३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ मूल प्रकृत्यनुसार कर्मों की वशावली निम्न है घातिक चतुष्फ अघातिक चतुष्क ज्ञानावरण कर्म वेदनीय कर्म दर्शनावरण कर्म आयुष्कर्म मोहनीय कर्म नाम कर्म अन्तराय कर्म गोत्र कर्म' उत्तर प्रकृतियाँ अर्थात् अवानर भेदानुभेद निम्न प्रकार हैंपाच प्रकृतियाँ दो प्रकृतियाँ नौ , चार , अट्ठावीस , एक सौ तीन ,, पाच , दो , कुल एक सौ अठावन (१५८) उत्तर प्रकृतियो की परम्परा वताई गई है। जिसमे यह सार ससार मकडी के जाल की भाति वधा हुआ है। _ 'उपयोगो लक्षणम्' उपयोग जीवात्मा का लक्षण है । वह उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञान को साकार उपयोग और दर्शन को निराकार उपयोग कहा गया है। जो उपयोग वस्तु-विज्ञान के विशेप वर्म को अर्थात् जाति-गुण-पर्याय आदि का ग्राहक है वह ज्ञानोपयोग और “पदार्थों की केवल सत्ता यानी सामान्य धर्म को जो धारण करता है उसे दर्शनोपयोग कहते है। जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते है। जिस प्रकार आख पर कपड़े की पट्टी लगा देने से वन्तुओ के देखने में रुकावट आती है । उसीप्रकार ज्ञानावरण के प्रभाव से पदार्थों के जानने मे रुकावट आती है । परन्तु ऐमी रुकावट नहीं जिससे आत्मा विल्कुल ज्ञान गन्य हो जाय । चाहे जैसे घने बादलो से सूर्य घिरा हुआ हो, 'तथापिस्वल्पाश मे उसके प्रकाश की पर्याय खली रहती है । उसी प्रकार कर्मों के चाहे जैसे गाढे-घने आवरण आत्मा के चारो ओर छाये हो, फिर भी आत्मा का उपयोग लक्षण कुछ-अशो में प्रकट रहता है । अगर ऐसा न हो तो जीव तत्त्वजडवत् बनने मे देर नहीं लगेगी। जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को ढके, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है। जिस प्रकार द्वारपाल किसी मानव से नाराज हो, तो अवश्यमेव उम मानव को राजा तक जाने नही देगा। चाहे राजा उमे मिलना या देखना भी चाहे तो भी मिलना-मिलाना कठिन ही रहेगा। उसी प्रकार दर्शनावरण १ नाणस्सावरणिज्ज, दसणावरण तहा। वेयणिज्ज तहा मोह, आयुफम्म तहेव य ।। नाम फम्म च गोय च, अतराय तहेव य । एवमेयाइ, कम्माड अद्वैव उ समासो ॥ --उ ३३ गा २-३ २ न द्विविधोस्टचतुर्भद -~-तत्त्वार्थ० म २-सू
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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