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________________ विश्वज्योति भगवान महावीर का त्रिपृष्ठभव : एक विश्लेषण -रमेश मुनि शास्त्री जन-दर्शन की विचार-सरणि का मूलाधार आस्तिकता है। आस्तिक के अन्तस्तल मे आत्मअस्तित्व सम्बन्धी विचारों का प्रवाह प्रवाहित होगा कि-में कीन हूँ, कहाँ से आया हूँ, इस शरीर रूपी पिजडे का परित्याग करके मेरा आत्म वित्ग कहाँ जायगा, और मेरी भव-भव की शृङ्खला कब विशृङ्खलित होगी । इस प्रकार आत्मा के नित्यत्व मे दृढ आस्था रखता है। भट्टोजी दीक्षित ने आस्तिक और नास्तिक शब्दो की गहराई मे पंठकर उसके रहस्य का उद्घाटन करते हुये कहा जो निश्चित स्प रो परलोक व पुनर्जन्म को स्वीकार करता है वह आस्तिक है और जो उमे स्वीकारता नही है वह नास्तिक है | श्रमण सस्कृति की अमर उद्घोपणा है-आत्मा अनादि अनन्त काल से विराट् विश्व मे पर्यटन कर रहा है, नग्क तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति मे परिभ्रमण कर रहा है । अद्वितीय ज्योतिर्धर व्यक्तित्व के धनो प्रभु महावीर ने आत्म अस्तित्व के सम्बन्ध मे प्रकाश डालते हुये कहा-ऐसा कोई भी स्थल नहीं, जहां यह आत्मा न जन्मा हो। और ऐमा कोई भी जीव नही, जिसके साथ मातृ-पितृ-भ्रातृ भगिनी भार्या पुत्र-पुत्री रूप सम्बन्ध न रहा हो । गणधर इन्द्रमति गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुये भगवान् महावीर ने कहा-हे गोतम ' तुम्हारा और हमारा सम्बन्ध भी आज का नही, अतीत काल से चला आ रहा है, यह सम्बन्ध चिर काल पुराना है । चिर काल से तू मेरे प्रति स्नेह-सद्भावना रखता रहा है । मेरे गुणो का उत्कीर्तन करता रहा है। मेरी सेवा भक्ति करता रहा है। मेरा अनुसरण करता रहा है । देव व मानव भव मे एक बार नही अपितु अनेक वार हम साथ रहे हैं। इस पर से यह स्पष्टनर हो जाता है कि श्रमणसम्कृति के आराध्य देव सिद्ध बुद्ध बनने के पूर्व नाना गतियो मे इधर-उधर घूमते रहे हैं। उनका आत्मपट कर्मों की कालिमा से कृष्णपट की तरह काला था। उन्होंने साधना-सलिल के माध्यम से आत्मपट को उज्ज्वल समुज्ज्वल एव परमोज्ज्वल किया । श्रमण भगवान् महावीर के जीव ने जन्म-जन्मान्तरो मे उत्कृष्ट साधना की, अन्त मे उनकी आत्मा महावीर के रूप मे आई 1 इम पर से यह प्रतीत हो जाता है कि उनका जीवन प्रारम्भ से हमारी ही तरह रागद्वेप के मैल मे कलुपित था । परन्तु उन्होने सयम साधना एव उग्रतप आराधना करके अपने जीवन को निखारा था । जिससे वे सिद्ध वुद्ध बने । विपप्टिशलाका पुरुप चरित्र, महावीर चरिय और कल्प सूत्र की अस्ति परलोक इत्येव मतिर्यस्य म आस्तिक, नास्तीतिमतिर्यस्य स नास्तिक -सिद्धान्तकौमुदी २ जाव किं सव्वपाणा उववण्णपुवा ? हता गोयमा । असति अदुवा अणतखुत्तो।' ___-भगवती सूत्र श० २ उ०३ । ३. -भगवती शतक १२-उ०७ । ४ --भगवती शतक १४ उ०७ । -- 2
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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