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________________ १५० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ -चित्ताकर्प कई युवतियाँ (रानियां), आना पालक अनेकानेक सज्जनवृन्द, महचरी बान्धय, जी हुजूरी करने वाले सैकडो नौकर-चाकर, मदोन्मत्त हाथी एव घोडो की मुदूर लम्बी कतार एव अखूट घन-राशि की मुझे प्राप्ति हुई है । मेरी शानी का दूसरा सम्राट् आसपास है कहां? इस प्रकार कहता हुआ श्लोक के तीन चरण तो बना लिये किन्तु चतुर्थ चरण के वाक्य विन्याम ठीक प्रकार से जम नहीं रहे थे । उपर्युक्त गवित बातें सुनकर उस चोर पटित से रहा नहीं गया। वह एक्दम चौथे पाद की पूर्ति करता हुआ बोल पडा- समीलिते नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति'। गजन् ! तेरी आँबे वन्द हुई अर्थात् तुझे निद्रा आई कि यह महा मूल्यवान् धन राशि गायब हुई ममझो। यानि में चोरी कर ले जाऊँगा । सुनकर राजा चोक पडा । यह कौन ? आवाज आई कहाँ मे ? इनने मे तो स्वय चोर मम्मुख खडा था। उसने अपना परिचय कह सुनाया। नृप उसके उद्बोधन पर बेहद खुश था। तू चोर नही, मेरा गुरु है । ते चतुर्थ पाद ने मेरी अन्तरात्मा को जगा दिया है। मैं मिथ्या अभिमान पर व्यर्थ ही फूल कर कुप्पा हो रहा था, वास्तव में यह वैभव मैं जिन्दा हूँ वही तक है। मेरी आँखें वन्द हुई कि मेल ख-ग है। कहते हैं कि नृप भोज की गुणग्राहक बुद्धि ने फिर कभी भी इस अनित्य वैभव पर गर्व नहीं किया। हाँ तो धन के चमकते-दमकते ये ढेर यहाँ-वहाँ घरे पडे हैं लेकिन वे भोक्ता-दृष्टा व सग्रह कर्ता अनन्त काल के गाल मे समा गये । अत विश्वास किया जाता है कि पार्थिव वैभव मानव का मच्चा मित्र नहीं है । वल्कि यदा-कदा धन, नर-नारी के लिये घातक भी बन जाता है। इस कारण धन को जीवन का सगी मानना भारी भूल ही मानी जायेगी । क्योकि मच्चा जो साथी होता है वह प्रत्येक स्थिति मे माय देता है। जैसा कि उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुमिक्षे शत्रुसंकटे । राज द्वारे श्मशाने च यदतिष्ठति स बान्धव । किंतु धन ऐसा नहीं कर पाता है । धन कहता है-मैं पार्थिव शरीर का अश हूँ । मेरे विषय मे पडित जन ठीक कहते हैं "धनानि भूमौ" यह सिद्धान्त सत्यमेव सही है। पशु-पक्षी भी मित्र की श्रेणी में नहीं - पशु-पक्षियो को सच्चा मित्र मानना युक्ति सगत नहीं जचता, कारण कि पशु-पक्षियो मे प्रभूत अविवेक, अज्ञानता एव असहिष्णुता पाई जाती है। हिताहित के थर्मामीटर का उनके पास अभाव सा रहता है । लक्ष्य और उद्देश्य विहीन उनका सारा जीवन ज्यो का त्यो खाते-पीते एव वजन ढोते एक दिन काल के भेट हो जाता है । न खुद के लिए और न अन्य के लिए कुछ रचनात्मक कार्य कर पाते हैं । हाँ यदा-कदा मूर्खता और अविवेक के कारण वे अपने प्यारे पालक-पोपक के लिए घातक वन जाते है। बुद्धिजीवी के समझने के लिए पचतत्र नामक ग्रथ मे बहुत ही सुन्दर एक कहानी इस प्रकार है-अत्यधिक प्रेमपूर्वक एक राजा ने एक अनाथ वन्दर को पाला । समयानुसार उस वन्दर शिशु को मानवीय मम्कार एव कुछ-कुछ मानवीय भापा ज्ञान भी सिखाया गया। ताकि पाशविक मस्कारो मे मम्यता का नचार होवे, वदर की अभिवृद्धि पर राजा काफी खुश था। अगरक्षक के रूप मे उम वन्दर को नियुक्त भी किया गया । एकदा राजा शयनकक्ष मे मोया हुआ था । वन्दर हाथ में तलवार लेकर अपने स्वामी के अग की देख भाल कर रहा था। किंतु मक्खियाँ नही मान रही
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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