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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सच्चे मित्र की परख | १५१ थी। बार-बार आकर नृप की देह पर बैठ रही थी । वस्तुत परिणाम के सोचे विना उस विवेकहीन वन्दर को आवेश आया और आवेश के अन्तर्गत तलवार राजा की छाती पर दे मारी । मक्खियाँ तो भाग गई किंतु उस घटना स्थल पर राजा की मृत्यु हो गई । इसलिए कहा है पडितोऽपि वर शत्रु न मूर्यो हितकारक । वानरेण हतो राजा कतिपय जानवरो की जातियाँ ऐसी भी पाई जाती हैं जैसा कि -कुत्ता, हाथी, गाय, घोडा, तोता आदि २ जो स्वामी भक्त होते हैं। घातक एव अनिष्टकारी तत्वो से अपने स्वामी को सावधान एव सुरक्षित करने में काफी मददगार सिद्ध हुए । अल्प समय के लिए भले उन्हे अगरक्षक मान लिया जाय, लेकिन आत्मिक मित्र की कोटि मे नही । क्योकि काल स्पी वाज के समक्ष वे भी निर्वल-निराधार बन जाते हैं तो अपने शामक महोदय को कैसे बचा सकते हैं ? अतएव ठीक ही कहा है-'पशवश्च गोष्ठं' अर्थात् पशु-पक्षी वाडे मे खडे २ देखते, रेगते, चिल्लाते, चित्कारते ही रह जाते है। और मालिक को सब कुछ छोड कर रवाना ही होना पडता है । पारिवारिक सदस्य भी नहीं - पारिवारिक सदस्य भले माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, काका, मामा आदि कोई भी क्यो न हो, उनके जीवन के कण-कण और रोम-रोम मे मतलव की वू कूट-कूट के भरी रहती है। जो स्वार्थ गगन मे उडाने ले, वे सच्चे मित्र कहलाने के हकदार कैसे ? हाँ, यह भी माना कि यदा-कदा लाभ सुख-सुविधा पहुंचाने में उनका पूरा-पूरा सहयोग साथ मिलता है । लेकिन कहां तक ? 'मुल्ला की दौड मस्जिद तक' की कहावत के अनुसार मतलव सधे वहाँ तक। वरना वही तिरस्कार, वहिष्कार, दुत्कार से सजा गुलदस्ता उपहार मे दिया जाता है। ___जव जीवन की सरसन्न वाटिका हरी-भरी, फूली-फली रहती है तब तो सव आ आकर ऐश आराम आनद लूटते है । कदाच आपत्ति-विपत्ति की श्याम घटा अनायास ही आ धमकती है तो सब यही कहते सुने गये हैं कि बेटा | ये कर्म तो तुझे ही भोगने पडेंगे, चूँकि तूने ही किये हैं। कर्म कर्ता का पीछा करते हैं यह एक शाश्वत नियम है । हाँ, यदि शरीर पर सोने-चादी का वजन हो तो वेटा । उसे उठाकर एक तरफ रख लें। लेकिन यह दुख दर्द की घटा हमारे लिए असहाय एव अभोग्य है। इस प्रकार मृत्यु के भयावने थपेडो से मुक्त करने के लिये वे सर्वथा कमजोर-कातर रहते है । अत ठीक ही कहा है--"भार्यागृहद्वार जन श्मणाने" अर्थात् ज्यादा से ज्यादा साथ भी देंगे तो कहाँ तक ? घर वाली गृह द्वार तक, अन्य अडोसी-पडौसी व सगे-सम्वन्धी लोक-लाज के कारण श्मशान घाट तक, अन्तिम राम-राम कर, धाम काम की ओर पुन लौट आते है। अतएव उनको पक्का मित्र मानना किंवा उन पर विश्वास कर वैठे रहना और भविष्य के लिए तैयारी नही करना इससे बढकर और क्या मूर्खता होगी। धन दारा अरु सुतन मे रहत लगाए चित्त । क्यो रहीम खोजत नहीं गाढ़े दिन को मित्त ॥ उपरोक्त मित्रो की कसौटी होने पर अब आध्यात्मिक क्षेत्र में गोते लगाना उचित ही है। क्योकि मच्चे मित्र मुक्तावलियो को माता आध्यात्मिक स्थली मानी गई है। अतएव जिनकी जहाँ प्राप्ति
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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