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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया मृत्यु जय कैसे बने ? | १६१ भी तो एक भारी हिंसामय पाप है। अत जहाँ पापो की व हिंसा की पैदास है, वहां निश्चित रूप से वर्तमान अथवा भावी दुखो की बुनियाद खडी करना है, ऐसा करनेवाला स्वय के लिए तथा राष्ट्रसमाज-परिवार और विद्यमान परम्परा के लिए कलक भरी कालिमा छोड जाता है । खुद तो मरता है और पीछे रहनेवालो को भी मार जाता है। अर्थात् आत्महत्या करके मरना सभी दृष्टि से समदृष्टि प्राणियो के लिए सर्वथा निन्दनीय एव जीवन की बहुत बडी पराजय मानी है । क्योकि-उभरी हुई परिस्थितियो से घबराकर वह मर रहा है, मैदान छोडकर भाग जाना वीरो का नही, कायरो का काम है। वुजदिल और डरपोक नर-नारी ही ऐसे कुत्मित अधर्म कार्य किया करते हैं। किन्तु धर्मविज्ञ कदापि उल्टे कदम उठाया नही करते है । हां, परिस्थितियो का सामना अवश्य करते है । कहा भी है मर्द दर्द को ना गिने दर्द गिने नहीं मर्द । दर्द गिने सो मर्द नहीं दर्द सहे सो मर्द ।। यदि किसी को मरना ही है तो वे सही तौर तरीके से इस पार्थिव देह का उत्सर्ग करें, ताकि मृत्यु ही उनसे सदा-सदा के लिए पिंड छोडकर भाग जाय और वह देहधारी मृत्यु जय बनकर अमरता को प्राप्त करने । किन्तु पहले प्रत्येक समस्या को समझे, समस्या को समझे विना समाधान कैसा ? मृत्यु जय होना यह भी महत्वशाली समस्या है। जिसको यत्किंचित् नर-नारी ही समझ पाये होगे। और जो समझ पाये हैं वे मृत्यु जय बन भी गये । वस्तुत समस्या का समाधान करते हुए कवि ने कहा है-- मरना मरना सव कोई कहे मरना न जाने कोय । एक बार ऐसा भरे फिर न मरना होय ॥ आगम मे भी भ० महावीर ने कहा है - "सच्चस्स आणाए उठ्ठिए से मेहाबी मारं तरइ ।' -आचारागसूत्र सत्य साधना के मार्ग पर आसीन मेधावी मृत्यु को जीतता है। जिसको शास्त्रीय भाषा मे पडितमरण अथवा सुखान्त मृत्यु कहा गया है। सम्यक् साधना आराधना के अन्तर्गत जो भौतिक शरीर का त्याग होता है ऐसा मरण स्वर्ग-अपवर्ग सुखो की उपलब्धि अवश्य कराता है। जैसा कि जिस मरण से जग डरे मेरे मन आनन्द । मरने पर ही पाइए पूर्ण परमानन्द ॥ पामर प्राणी मृत्यु के नाम मात्र से काप उठता है । वह स्वप्न मे भी नहीं चाहता कि मैं मरूँ, मैं इस घर, परिवार को छोडकर अन्यत्र जाऊँ, यदि मर गया तो पता नही कहां जाऊँगा? हाय । अब क्या होगा राम | इस प्रकार पश्चात्ताप की भट्टी में अवश्य झुलसता है किन्तु मरने को तैयार नहीं होता । ज्ञानी के लिए यह वात नही। ज्ञानी मृत्यु को महोत्सव मानता है । वह भावी समस्याओ से निश्चिन्त रहता है। वह विल्कुल निर्भीक निडर रहता है, कारण यही कि उसने पेट के साथ-साथ ठंट को भी परिपुष्ट किया है। मृत्यु जय समस्या को समझा है और समझकर सुलझाने मे प्रयत्नशील रहता इसलिए तो उमकी अन्तरात्मा का उद्घोप है-"जिस मरने से जग डरे मेरे मन आनन्द ।" एकदा चित्त-सभूति की आत्मा हस के भव से मुक्ति पाकर दोनो जीव वाराणसी मे भूतदत्त २१
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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