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________________ १६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आवरू को सुरक्षित रखने के लिए अपने अगज-अगजा को भरसक प्रयत्न से रोकते तथा विरोध भी करते हैं। तव युवक-युवती जिनका जीवन केवल भौतिक ज्ञान की अस्थाई बालु की दिवाल पर ही टिका हुआ है ऐसी खोखली कमजोर डावाडोल नीव वाले वे चोर की तरह इतस्तत पलायन होने की कोशिश करते हैं, परन्तु राजकीय भय से उस कार्य मे सफलता नही मिलती है, तव दोनो रागान्ध होकर किसी एक गुप्त स्थान मे जाकर अपने-अपने गले मे फासा डालकर मर ही जाते हैं लोग घबराकर कहते हैं कि मर जायेंगे । मरकर चैन न मिली तो किधर जायेंगे ? पहिले से ही इनके मन मस्तिष्क और दिल-दिमाग मे मिथ्या मान्यता घर बना के रहती है कि हम दोनो यहाँ से भर जायेगे तो पुन अवश्यमेव आगामी जीवन मे मिल जायेंगे । वहाँ फिर किसी प्रकार के पारिवारिक व सामाजिक वन्धन नही रहेगे । स्वतन्त्रता-सुख पूर्वक जीवन यात्रा चलायेंगे। ऐसी गल्त कपोल-कत्पित कल्पना के वशवर्ती होकर अपने महान मूल्यवान् जीवन को क्षणिक अप्रशस्त सुख-सुविधा के पीछे जोड देते हैं। तदनन्तर उस नर-नारी को भव-भव मे मानवीय चोले के लिये रोना ही पडेगा, चूकि आप जानते हैं कि जिस किसी को एक वक्त सुन्दर समय मिल गया और अज्ञानी आत्मा की तरह यदि वह प्राप्त हुई वस्तु का सरासर दुरुपयोग करके 'इतोभ्रष्ट ततोभ्रष्ट' होता है, तो कहिए दुवारा वह उम वस्तु को पा सकता है ? कदापि नही । उसी प्रकार मानव भव पुन उस देहधारी के लिए अलभ्य रहेगा । आगम में भ० महावीर ने कहा है वालाण अकाम तु मरण असइ भवे ।" -उ० सू० अ० ५ गा० ३) ऐसे भोले भाले अज्ञानियो का निष्काम जन्म-मरण वार-बार हुआ ही करता है। और भी सत्यग्गहण विसभक्खण च जलण च जलपवेसोय । अणायार भण्डसेवी जम्मण मरणाणि वन्ति । -भ० महावीर हे मुमुक्षु । जो आत्म-हत्या करने के लिये तलवार, बरछी, भाला कटार आदि शस्त्रो का प्रयोग करे, अफीम, सखिया हिरकणी आदि का प्रयोग करे, अग्नि मे पडकर या कुआ, वावडी नदी तालाब में गिरकर मरे तो उसका यह मरण अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और अनेक मरणो की वृद्धि के सिवाय और कुछ नही है । वह फिर तियं च, नरक, मनुष्य और देवता आदि अनन्त ससार रूपी विपिन मे भटकता ही रहता है। ऐमे महा पापमय कार्य को वही मानव करता है, जिसके जीवन मे आध्यात्मिक-धार्मिक ज्ञान का नितान्त अभाव है। जो नास्तिक विचारधारा के पोपक और धार्मिक जीवन के आगे पीछे न कुछ मानते एव न कुछ जानते हैं। हो तो, आत्मघाती जिम अन्तर्द्वन्द्व को जिस अभिलापा और जिस आवेश मे अन्धे होकर अपने देव दुर्लभ देह को चन्द ही घण्टो में मौत के मुंह मे शोक देता है, उमसे उसका कुछ भी प्रयोजन नीधा नहीं होता है । वल्कि पहिले की अपेक्षा शत सहस्र गुणाधिक दु खो की पार्सल उसके सम्मुख आ खडी होती है । क्योकि पापो से न तो कभी धर्म पुण्य हुआ और न कभी शान्ति । 'स्व' व 'पर' का आत्म-घात
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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