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________________ १६२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ नामक चण्डाल के यहां पुत्र रूप मे उत्पन्न हुए | उनका नाम चित्त और सभूति रखा गया। दोनो भाइयो मे प्रगाढ स्नेह था। प्रत्येक क्रिया दोनो मिलकर करते थे । दोनो यौवन वय मे आए । वे गीत-वादिन्त्र एव मधुर स्वर द्वारा मनुष्यो को मोहित करने मे अद्वितीय थे। वे वीणा और मृदग हाथ में लेकर ज्यो ही तान मिलाकर गाते कि-मारी जनता मत्रमुग्ध होकर उनकी ओर दौड पडती । ___ हस्तिनापुर मे मदनोत्सव की धूम थी। नागरिक जन भिन्न-भिन्न टोलियां बनाकर वाहर उद्यान मे क्रीडा-रत थे । चित्त-सभूति वन्धु भी अपनी स्वरलहरी मे वातावरण को उत्तेजित करते हुए उघर से निकले तो सारी जनता उनके पीछे-पीछे जाने लगी। इस कारण मदनोत्सव के कार्य-कलाप मे फीकेपन को देखकर अनुचर ने नरेश से निवेदन किया- स्वामी | "दो चण्डाल पुत्रो ने अपने मधुर स्वर से सभी को पागल सा बना दिया है । उसी से उत्मव मे फीकापन आया हुआ है।" । राजा ने तत्काल नगर-रक्षक को आज्ञा दी-उन दोनो लडको को नगर मे वाहर निकाल दो। और पुन उन्हे नगर मे प्रवेश न करने दो । अनुचरो ने राजाजानुसार वैमा ही किया । कालान्तर मे पुन उत्सव के दिन आए। वे दोनो श्वपाक-पुत्र अपने को रोक नही सके । राजा की आज्ञा का उल्लघन करके सुन्दर वस्त्र पहनकर आये । किन्तु भाग्य की विडम्बना ही समझिए कि उनके मधुर स्वरो ने ही उनकी पोल खोल दी । जनता पहिचान गई कि ये चण्डाल पुत्र है । जिनको बाहर निकाल दिया गया था। ये पुन नगर मे आ गये हैं। जनता विगड गई, मारने-पीटने लगी । वडी कठिनाई से गिरते-पडते आखिर उद्यान मे आये । अब सोचने लगे - हमारे पास सगीत का गजव जादू होने पर भी हमे जनता दुत्कारती है । अपमान करती है इसमे जाति हीनता ही कारण है। हमारा जन्म अधमकुल मे हुआ है, इस जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अधम विचार करके आत्मघात के लिए पार्श्ववर्ती गिरी के निकट पहुच गये । उस पहाड पर से नीचे गिरने का सकल्प किया । और दोनो ऊपर चढ गये। गिरने के लिए कगार पर आते हैं, किन्तु हिम्मत नही होती । पीछे हटते, फिर आगे बढते, इस प्रकार चक्कर काटने लगे । शरीर की प्रतिछाया के हलन-चलन को नीचे खडे ध्यानस्थ मुनि ने देखा । उसी समय दोनो को अपने पास बुलाया और गिरी से गिरने का कारण पूछा- उन्होने अपनी सारी कहानी सुन कर मरने का सही सकल्प भी बता दिया। मुनि -भव्यो । तुम आत्मघात करके इस दुर्लभ मनुष्यभव को क्यो व्यर्य नष्ट कर रहे हो ? मरने मे यह शरीर तो नष्ट हो जायेगा । परन्तु पाप नष्ट नही होगे । यदि तुम्हे पाप नष्ट करना है तो पडित मरन से मरो जिमकेलिए साधना का प्रशस्त मार्ग स्वीकार करो इससे तुम्हारा भविष्य सुख-सामग्री से प्लावित होगा। मुनिवर का श्रेष्ठ उपदेश दोनो को अभीष्ठ लगा । दोनो निन्थि अणगार वनकर रत्न त्रय की आराधना करने लगे। कालान्तर मे दोनो महामनस्वी मुनि हो गये । आत्महत्या की भयकर दुर्घटना से बच गये । कहा भी है मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे । समाधिबोधपाथेय यावन मुक्तिपुरी पुर ॥ -मृत्युमहोत्सव जिमप्रकार विदेश जाते समय घर के स्नेही जन जानेवाले के साथ मार्ग मे खाने-पीने की मामग्री साथ वाधते हैं । जिसको सवल भी कहते हैं जिससे कि-मार्ग मे कष्ट न पडे। उसी प्रकार है
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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