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________________ २०४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ कायरता, द्वेष और न जाने क्या-क्या दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं । इमलिये उन्होंने सबसे अधिक वल अहिंसा पर दिया । उन्होने कहा-"अहिंसा से ही मनुष्य सुखी हो सकता है मसार मे शान्ति बनी रहती है।" अहिंसा वीरों का अस्त्र लेकिन उन्होने स्पष्ट कहा कि-अहिंमा वीरो का अस्त्र है। कमजोर या कायर उमका उपयोग नही कर सकते। जिसमे मारने का मामर्थ्य है, फिर भी नही मारता, वह व्यक्ति हिमक है । जिममे शक्ति नहीं, उमका न मारने की बात कहना, अहिंसा का परिहास करना है । अत यह कहना असत्य है कि-महावीर ने शस्त्रो के वल को आत्मिक बल के समक्ष हेय बता कर राष्ट्र की वीरता को क्षीण कर दिया। समाज को निर्वीर्य बना दिया। महावीर की अहिमा अत्यन्त तेजम्बी अहिंसा थी। वह उस प्रकाश पुज के समान थी जिसके आगे हिमा का अधकार एक क्षण टिक नहीं सकता था। जिमका अन्त करण निर्मल हो, जो मत्य का पुजारी हो, निर्मीक हो, वही अहिंसा के अमोघ अस्त्र का प्रयोग कर सकता है । आज अहिंसा की शक्ति इतनी मद पड़ रही है, उसका मुग्व्य कारण यही है कि हम अहिंमा की तेजस्विता को भूल गये हैं और झूठी विनम्रता को अहिंसा मान बैठे है । अहिंसा पर चलना, तलवार की घार पर चलने के समान है। जीओ, जीने वो __ अहिंमा के मूल मत्र के साथ महावीर ने एक सनातन आदर्श और जोडा-"जीओ और जीने दो।" जिम प्रकार तुम जीने की और सुखी रहने की अकाक्षा रखते हो, उसी प्रकार दूमरा भी जीने और सुखी रहने की आकाक्षा रखता है । इसलिए तदि तुम जीना चाहते हो तो दूसरे को भी जीने का अवसर दो । समाज की स्वार्थपराणयता पर इससे बढकर और चोट क्या हो सकती है । "आत्मन प्रतिफूलानि परेषा न समाचरेत् ।' जिस प्रकार का आचरण तुम अपने प्रति किया जाना पसन्द नहीं करोगे, वैमा आचरण दूसरो के प्रति मत करो। महावीर की अहिंमा की परिमापा थी-अपनी कपायो को जीतना, अपनी इन्द्रियो पर नियत्रण रखना और किसी भी वस्तु मे आसक्ति न रखना । यह राजमार्ग कायरो का नही, वीरो का ही हो सकता है। "अह" की जड़ें हिलो समाज की अहित कर रुढियो को मिटाने के साथ-साथ उन्होंने धनी-निर्धन ऊच-नीच आदि की विशेषताआ को दूर करने का तो प्रयाम किया ही, लेकिन उन्होने एक और क्रान्तिकारी सिद्धान्त दिया "अनेकान्त" का । ममाज मे और समार मे झगडे की सबसे बडी जड हमारा अह है, मताग्रह है । हम जो कहते हैं, वही मत्य है, दूसरे जो कहते है, वह झूठ है ऐमी सामान्य धारणा सर्वत्र प्रचलित दिखाई देती है । महावीर ने कहा, यह ठीक नहीं है । तुम जो कहते हो, वही एकान्तिक मत्य नहीं है। दूसरे जो कहते हैं, उसमे भी सत्य है, सत्य के अनेक पहलू होते हैं । तुम्हे जो दीख पडता है, वह सत्य का एक पहलू है। जिस प्रकार पाच अधो ने एक हाथी के विभिन्न अगो को देखकर अपने-अपने दृप्ट अग को ही हाथी मान लिया, पर वस्तुत हाथी तो सब अगो को मिलाकर बना था, यही वात हमारे साथ होनी चाहिए । यदि हम इस सिद्धान्त के अनुसार चलें तो आज के सारे विग्रह दूर हो जाय और हमारा जीवन अत्यन्त शान्तिपूर्ण वन जाय । उपदेश और सिद्धान्त तीर्थकर महावीर की दो और वातों को मैं बहुत ही क्रान्तिकारी मानता हूँ । पहली तो यह कि
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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