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________________ ६६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्थ अन्य सघो मे पीछे नही थे, बल्कि एक कदम आगे ही रहते थे । मत मण्डली को मालूम नहीं हुआ कि यह रेगिस्तान है कि ---मां का पेट मालवा देश | सभी मुनियो का यह प्यारा नाग बन गया था। 'मजल-मण्डली महान् है। जिन शासन को शान है।" मजल के प्रत्येक मघ सदस्यो ने आनी जान से तो मेवा-भक्ति मे किमी बात की कमी नही रखी । अर्थात मकल सघ ने व आदीश्वर सेवा मण्डल के सदस्यो ने अपना पूरा-पूग उत्तरदायित्व अदा किया । उपरोक्त गुण गरिमा के वावजूद भी जिस प्रकार प्रकृति की वेढगी चाल ने रमदार गन्ने मे गठानो की भरमार, गुलाव मे काटो की कतार, चन्दन पर सपों का वाम, रत्नाकर समुद्र में खार जल का व चन्द्रमा मे कलक का होना पाया जाता है । उसी प्रकार मजल के मकल मघ मे भी सगठन व एकात्मभाव की कमी खटक रही थी। अर्थात् माघिक शक्ति दो विभागो (घडो) मे बटी हुई थी। यद्यपि व्याख्यानवाणी मे व सत को लाने पहुंचाने मे सब एक मत अवश्य ये । तथापि फूट के चगुल मे बुरी तरह जकडे हुये थे। इम वटे-घडे को काफी वर्ष हो चुके थे। वस्तुत एक कहावत भी है कि लडाई मे लड्ड् नही वटा करते हैं।' तदनुसार फूट-फजीती-कलह-क्लेश व वैर-विरोध भीतर ही भीतर मुलगता हुआ सीमा लाघ रहा था और सघ की विकासोन्मन्त्री भावी योजनाओ पर तुपारापात-सा हो गया था। मानो किसी स्वार्थी कानर ने मघ रूपी ग्य को आगे बटने मे ब्रेक लगा दिया हो । जो योजना सामूहिकवैचारिक दृष्टि से चलाई जाती है, वे योजना, वे कार्य मन्वर फलदायी सिद्ध होते है और जहाँ सगठन ही विघटन का चरण चूम रहा है वहा नवीन योजना का प्रश्न तो दूर ही रहा, परन्तु पूर्ववर्ती योजनायें भी खटाई मे पडना स्वाभाविक है। वम यही स्थिति मजल के श्री सघ की थी । अतएव किमी उत्तम पुरुप के निमित्ति की अव आवश्यकता महसूस हो रही थी। चू कि-फूट की इति श्री होने का काल परिपक्व हो चुका था। इस अवसर पर गुरु भगवत का शुभागमन मानो शुष्क व मूछित उद्यान मे अमृत वृष्टिवत् था । जन-मानम को झकझोरने वाली वाणी की वरमात होनेलगी । वाणी मे कर्कशता-कठोरता व मर्म भदी वाण नहीं थे- अपितु वाणी प्रवाह में एक ओज था, आकर्षण था, जादू था व जोश-तोप से परिपूर्ण वह मीठा आपरेशन अवश्य था। जो दर्दनाक बीमारी को मिटा दे ? लेकिन जन-मानस को पीडा कारक नही जैसा कि यह उपदेश नहीं गोलियां हैं, जो रोगी को दी जाती हैं । वस जादूभरी वाणी के प्रभाव से सकल मघ मे स्वच्छ शान्ति का वातावरण वना, सडी-गलीगुजरी मन-मजूपा मे छुपी ग्रयियाँ ढोली हुई, खुली भी और पिघल-पिघल वहने लगी । सच्चे मन से एक दूसरे के निकट व गले मे गले मिले, गई गुजरी पूर्व सर्व वातो को वही जाजम के नीचे दफना दी गई, तत्काल गुरु भगवन के समक्ष ही पारम्परिक क्षमा का आदान प्रदान हुआ। जो सचमुच ही भीतरी मन मे था । गली-गली और घर-घर में तो क्या किन्तु कोमो दूरवर्ती वाले उन गावो में भी खुशी हर्प के फव्वारे फूट पडे थे। सब के मुंह पर मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी । गुरु प्रवर के सफल प्रयास पी यम-तत्र सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशसा होने लगी। मुखद स्नेह की मरिसरी स्फुटित होने के पश्चात मकल मजल श्री सघ एव धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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