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________________ प्रथम खण्ड सन्त सेना | सन्त : ज्योतिस्वरूप सन्त सेना का महा महत्त्व इस प्रकार सर्व दर्शनो मे खूब दर्शाया गया एव मुक्त कठ से गाया भी गया है । क्योकि सत का जीवन अहिंसा, सयम एव तप की त्रिपुटी मे प्रस्फुटित पल्लवित पुष्पित एव फल्लवित होकर सर्वोच्चमुखी विकास का यह क्रम समाज, राष्ट्र एव जन-जन के हृदय मन्दिर को छूता हुआ सिद्धस्थान पर्यन्त पहुचा है । उनका उपदेश सुमेरु की तरह अटल, हिमाचल की तरह विराट, भास्कर की तरह तेजस्वी - यशस्वी तिमिरहर्ता शशिवत् पीयूप वर्ष णकर्त्ता, सुरुतरु-सदृश सकल सकल्पो का पूरक, विद्युत की तरह ज्योतिर्मान, सलिल की तरह सदैव गतिमान एव आकाश की तरह अनादि अनन्त रहा है । इसलिए कहा है। - " सन्त हैं कलयुग के भगवान" जव से मानव ने होश सभाला तभी से उसने यदि किसी पर विश्वास किया है, तो केवल अपने माता-पिता या फिर सत प्रवर पर ही । सारा ससार कदाच धोखा दे सकता है, गिरगिट जानवर की तरह क्षण-क्षण मे रंग बदल सकता है, किन्तु सत नही । क्योकि सत तारक है मारक नही, सत रक्षक है भक्षक नही, सत अमृत थैली है न कि विप वेली । इसलिए अनन्त अनन्त मुमुक्ष, सत वाणी के वल बूते पर गृहत्यागी, राजत्यागी वनें और अन्ततोगत्वा परमानन्द को प्राप्त हुए हैं । यत्किचित् शब्दो मे कहू तो धर्म जहाज के नाविक सन्त वरिष्ठ है और भव्यात्माओ को ससार पार पहुचाने के निमित्त भूत भी है। जैसे भगवान महावीर ने गौतम को और सुधर्मा स्वामी ने जम्बू को उतारा । अतएव मानव समाज के श्रद्धा के केन्द्र सन माने गये हैं । सत एक सीमा रक्षक ( बाड़) हैं खेत मे स्थित हरी-भरी एव फली फूली उस धान्य राशि की सुरक्षा हेतु जैसे उस खेत के चारो तरफ वाड रहती है, उसी प्रकार धर्म की रक्षा हेतु सत सेना भी एक प्रबल सवल वाड है, सीमा रक्षक है । क्योकि जहा जहा सत मण्डली का शुभागमन बना रहता है, वहा वहा प्राय दुर्भिक्ष- दुर्जनदुर्ग्रह एव दुर्गुणो का प्रभाव फैलाव मद-सा, किंवा नगण्य ही रहता है । भगवती सूत्र मे एक ऐसा प्रसग आया है कि एक समय गणधर इन्द्रभूति ने भगवान से पूछा कि – “भन्ते । लवण समुद्र मे विपुल अयाह जल राशि विद्यमान है, फिर क्या कारण कि अघ स्थित इस जम्बू द्वीप को डुवो नही पाता एव अपने जल की उत्ताल लहरो को क्यो नही वाहर फेंकता है ।" भगवान ने कहा - " गौतम | ऐसा प्रयोग कभी हुआ नही, न होने वाला ही है ।" "क्यो नही भन्ते ? – गौतम बोले ।” भगवान—“इन्द्रभूति | इस विशाल खण्ड जम्बूद्वीप मे अरिहत, केवली, गणधर, लब्धिधारक, बहुश्रुत अनेकानेक त्यागी-तपस्वी, यशस्वी, सत-सती, श्रावक एव श्राविकाए निवास करते हैं । उनके अद्वितीय अनुपम जप-तप तेज प्रभाव से लवणोदधि अपनी मर्यादा का भग नही करता और न कभी करेगें ही ।" यह है सत वोरडर ( वाड) का प्रवल एव अकाट्य प्रमाण । जो अन्यत्र दुर्लभ है । सत गले का भार नहीं हार इस प्रगति के प्रकाश मे कतिपय मानवो को विपरीत भाम होने लगा है। वे कहते हैं -- "ये सत-फत मुफ्त का माल खाकर बेकार पटे रहते हैं, उद्देश्य विहीन इतस्ततः घुमा-फिरा करते है और
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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