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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव संस्कृति हमारी आचार्य परम्परा | २२३ वाल, वगैरवाल एव ओसवाल इस प्रकार लगभग तीन सौ घर वालो ने आपके मुखारविन्द से गुरु आम्नाएँ स्वीकार की। इसी प्रकार बून्दी, वारा आदि क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित हुए। फलस्वरूप आचार्य देव का व्यक्तित्व और चमक उठा । वस मुख्य विहारस्थली होने के कारण कोटा सम्प्रदाय के नाम से प्रख्यात हुए।
एकदा शिप्य मण्डली सहित आचार्य प्रवर का दिल्ली में सुभागमन हुआ । उस वक्त वहाँ आगमनमर्म सुश्रावक दलपत सिंह जी ने केवल दशवकालिक सूत्र के माध्यम से पूज्य प्रवर के समक्ष २२ आगमो का निष्कर्ष प्रस्तुत किया। जिस पर पूज्य प्रवर अत्यधिक प्रभावित हुए । लाभ यह हुआ कि पूज्य श्री का आगमिक अनुभव अधिक परिपुष्ट बना।
रत्नत्रय को प्रख्याति से प्रभावित होकर कठियावाड प्रान्त मे विचरने वाले महा मनस्वी मुनि श्री अजरामल जी म० ने दर्शन एव अध्ययनार्थ आपको याद किया। तदनुसार मार्गवति क्षेत्रो मे शासन की प्रभावना करते हुये आप लिमटी (गुजरात) पधारे ।
शुभागमन की सूचना पाकर समकित सार के लेखक विद्वदवर्य मुनि श्री जेठमल जी म. सा. का भी लिमडी पदार्पण हुआ। मुनि त्रय की त्रिवेणी के पावन सगम से लीमडी तीर्थ स्थली बन चुकी थी । जनता मे हर्षोल्लाम भक्ति की गगा फूट पड़ी। पारस्परिक अनुभूतियो का मुनि मण्डल में काफी आदान-प्रदान हुआ। इस प्रकार श्लाघनीय शासन की प्रभावना करते हुये आचार्य देव सात चातुर्मास उघर विताकर पुन राजस्थान मे पधार गये।
___ जयपुर राज्य के अन्तर्गत 'रावजी का उणिहारा' ग्राम मे आप धर्मोपदेश द्वारा जनता को लाभान्वित कर रहे थे।
उन्ही दिनो दिल्ली निवासी सुश्रावक दलपतसिंह जी को रात्रि मे स्वप्न के माध्यम से ऐसी ध्वनि सुनाई दी कि-'अब शीघ्र ही सूर्य ओझल होने जा रहा है ।' निद्रा भग हुई। तत्क्षण उन्होंने ज्योतिप-ज्ञान मे देखा तो पता लगा कि-पूज्य प्रवर का आयुप केवल सात दिन का शेष है। वस्तुत. शीव्र सेवा में पहुँचकर उन्हे सचेत करना मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार कर अविलम्ब उस गांव पहुंचे। जहाँ आचार्यदेव विराज रहे थे।
शिष्यो ने आचार्य देव की सेवा मे निवेदन किया कि दिल्ली के श्रावक चले आ रहे हैं।
पूज्य प्रवर ने सोचा---एकाएक श्रावक जी का यहाँ आना, सचमुच ही महत्त्वपूर्ण होना चाहिए । मनोविज्ञान मे पूज्य प्रवर ने देखा तो मालूम हुआ कि-इस पार्थिव देह का आयुष केवल सात दिन का शेष है । 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार उस समय आचार्य देव सथारा म्वीकार कर लेते है ।
श्रावक दलपतसिंह जी उपस्थित हुए । “मत्यएण वदामि" के पश्चात् कुछ शब्दोच्चारण करने लगे कि-पूज्य प्रवर ने फरमा दिया - पुण्यला | आप मुझे सावधान करने के लिए यहाँ आये हो। वह कार्य अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिए मैंने सथारा कर लिया है।
इस प्रकार काफी वर्षों तक शुद्ध सयमी जीवन के माध्यम से चतुर्विध सघ की खूब अभिवृद्धि करने के पश्चात् समाधिपूर्वक स १६३३ पौष शुक्ला ६ रविवार के दिन आप स्वर्गस्थ हुए।
पूज्य श्री लालचद जी म० आप की जन्म स्थली बून्दी राज्य में स्थित 'करवर' गांव एव जाति के आप सोनी थे। चित्र कला कोरने मे आप निष्णात थे। और चित्र कला ही आप के बैराग्य का कारण बनी।