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________________ प्रथम खण्ड वैराग्य का उद्भव | २१ वस्तुत सुनिमित्त को पाकर उपादान रूप पात्र वैराग्य भावना से भर उठा । आज उसकी वाणी के प्रवाह मे विराग था, खान-पान-रहन-सहन मे सवेग तो सौम्य मुखाकृति पर ससार नश्वरता की झलक-छलक रही थी एव अग-प्रत्यग मे से मानो पक्के विराग की मधु महक प्रस्फुटित हो रही थी । इस प्रकार 'पुनरपि जनन पुनरपि मरणं' के निविड बन्धन से उन्मुक्त होने के लिए मन पुन पुन उतावला हो उठा । परन्तु उतावले पन से आम थोडे ही पकते हैं । समयानुसार ही तो भावना-याचना फलदायी सिद्ध होती है। 'दिन अस्त होने के पहिले, जो मंजिल तक पहुंच जाता है। उस मुसाफिर को हर हालत मे, चतुर ही कहा जाता है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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