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________________ चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सरकृति वर्तमान युग मे भगवान महावीर के विचारो की सार्थकता | २१६ रण करना निषिद्ध है। इस व्रत मे चोरी करना तो वर्जित है ही किन्तु चोर को किसी प्रकार की सहायता देना या चुराई हुई वस्तु को खरीदना भी वर्जित है। चौथा व्रत स्वदार-सन्तोप है जो एक ओर कामभावना पर नियमन है तो दूसरी ओर पारिवारिक सगठन का अनिवार्य तत्व । पाचवे अणुव्रत मे श्रावक स्वेच्छापूर्वक धन सम्पत्ति, नौकर-चाकर आदि की मर्यादा करता है। तीन गुणवतो मे प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने पर बल दिया गया है । शोपण की हिमान त्मक प्रवृत्तियो के क्षेत्र को मर्यादित एव उत्तरोतर सकुचित करते जाना ही इन गुणवतो का उद्देश्य है । छठा व्रत इसी का विधान करता है । सातवें व्रत मे भोग्य वस्तुओ के उपभोग को मीमित करने का आदेश है । आठवें मे अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक प्रवृत्तियो को रोकने का विधान है। चार शिक्षाव्रतो मे आत्मा के परिप्कार के लिए कुछ अनुष्ठानो का विधान है। नवाँ सामायिक व्रत समता की आराधना पर, दशवाँ सयम पर, ग्यारह्वा तपस्या पर और वारहवां सुपात्रदान पर वल देता है। इन बारह व्रतो की माधना के अलावा श्रावक के लिए पन्द्रह कर्मादान भी वर्जित हैं अर्थात् उसे ऐसे व्यापार नही करना चाहिए जिनमे हिंमा की मात्रा अधिक हो या जो समाज-विरोधी तत्त्वो का पोपण करते हो । उदाहरणत चोरो, डाकुओं या वैश्याओ को नियुक्त कर उन्हे अपनी आय का साधन नही वनाना चाहिए। इस व्रत-विधान को देखकर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महावीर ने एक नवीन और आदर्श समाज-रचना का मार्ग प्रस्तुत किया, जिसका आधार तो आध्यात्मिक जीवन जीना है पर जो मार्क्स के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न नही है। ईश्वर के सम्बन्ध मे जो जन विचारधारा है, वह भी आज की जनतत्रात्मक और आत्म स्वातन्त्र्य की विचारधारा के अनुकूल है । महावीर के समय का समाज बहुदेवोपासना और व्यर्थ के कर्मकाड से वन्धा हआ था । उसके जीवन और भाग्य को नियन्त्रित करतो थी कोई परोक्ष अलौकिक सत्ता । महावीर ने ईश्वर के सचालक रूप का तीव्रता के साथ खण्डन कर इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति स्वय अपने भाग्य का निर्माता है। उसके जीवन को नियन्त्रित करते हैं उसके द्वारा किये गये कार्य । इसे उन्होंने 'कर्म' कह कर पुकारा । वह स्वय कृत कमों के द्वारा ही अच्छे या बुरे फल भोगता है । इस विचार ने नैराश्यपूर्ण असहाय जीवन मे आशा, आस्था और पुरुषार्थ का आलोक विखेरा और व्यक्ति स्वय अपने पैरो पर खडा होकर कर्मण्य बना। ईश्वर के सम्बन्ध मे जो दूसरी मौलिक मान्यता जैन दर्शन की है, वह भी कम महत्व की नहीं। ईश्वर एक नही, अनेक है । प्रत्येक माधक अपनी आत्मा को जीतकर, चरम साधना के द्वारा ईश्वरत्व की अवस्था को प्राप्त कर सकता है । मानव जीवन की सर्वोच्च उत्थान रेखा ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। इस विचारधारा ने ममाज में व्याप्त पाखण्ड, अन्ध श्रद्धा और कर्मकाण्ड को दूर कर स्वस्थ जीवन-माधना या आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त किया। आज की शब्दावली मे कहा जा सकता है कि ईश्वर के एकाधिकार को ममाप्त कर महावीर की विचारधारा ने उसे जनतत्रीय पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित कर सबके लिए प्राप्य वना दिया--शत रही जीवन की सरलता, शुद्धता और मन की दृढता । जिम प्रकार राजनैतिक अधिकारो की प्राप्ति आज प्रत्येक नागरिक के लिये सुगम है, उसी प्रकार ये आध्यात्मिक अधिकार भी उसे सहज प्राप्त हो गये । शूद्रो और पतित समझी जाने वाली नारी जाति का समुद्धार करके भी महावीर ने समाज-देह को पुष्ट किया । आध्यात्मिक उत्थान की चरम सीमा को स्पर्श
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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