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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया पचनिधि माहात्म्य | १७७
मित्र-निधि मित्र को भी निधि की सज्ञा दी गई है। इस बुद्धिवादी युग मे प्रत्येक देश और समाज को ___ इस निधि की परम आवश्यकता प्रतीत हो रही है। क्योकि मित्रनिधि मे समाज राष्ट्र और मानव
मात्र के लिये भविष्य का सुन्दर, समुज्ज्वल, सृजन और मगलप्रभात छुपा हुआ है। इस निधि के अभाव मे प्रत्येक का भविष्य घोर तिमिराच्छादित रहता है । यह तो स्वयमेव सिद्ध है कि आज भारत मित्रनिधि के सिद्धान्त के वल पर ही प्रतिक्षण उन्नति की ओर गमन कर रहा है । और सिर पर मण्डराने वाली युद्धो की काली पीली घटाओ को निरन्तर आगे से आगे धकेलता हुआ विकास के मार्ग को निर्भयता पूर्वक पार कर रहा है। जवकि यत्किंचित् देश इस सिद्धान्त के विपरीत होकर यानी विघटन विभीपिका की ओर मुडकर विनाश-पतन और अवनति को आमन्त्रण दे रहे है।
जहाँ सप तहां सम्पति नाना । जहाँ कुसम्प तहां विपत्ति निधाना ।
आत्म-विकास का क्रम भी मित्रनिधि पर टिका हुआ है। जव भव्य की मानसस्थली मे रत्नत्रय का सुन्दर स्तुत्य सगम स्रोत फूट पडता है तव कही जा करके उस भव्य आत्मा को कुछ आत्मिक ज्ञान-भान होता है। वरन् एक के अभाव मे अर्थात् सम्यग्दर्शन के अभाव मे वह ज्ञान कुज्ञान वह चारित्र कुचारित्र एव वह साधना करणी केवल ससारवर्धक ही मानी जाती है। अतएव अपेक्षानुसार सर्वक्षेत्रो मे मित्रनिधि की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि एक लूले-लगडे मानव के लिये अग-उपाग की।
आज समाज मे इस मित्रनिधि की काफी आवश्यकता है। मित्रनिधि की अभिवृद्धि मे ही सभी समाजो और सभी सम्प्रदायो का अभ्युत्थान निहित है। लेकिन आज हम प्रत्यक्ष देख रहे है कि वनी वनाई मित्रनिधि की शृखला इस खेचातानी के चक्कर मे टूट-फूट रही है । समझ मे नही आता है कि इस सकुचित सकीर्ण विपरीत विघटन की गली मे गमन कर किसने क्या प्राप्त किया और कौन क्या प्राप्त कर सकेगा?
आज पुन इस क्षत-विक्षत समाज के सिर पर मित्र निधि, सगठन और स्नेह सरिता सलिल के लेपन को नितान्त आवश्यकता है न कि विघटन विलेपन की।
शिल्प-निधि स्वावलम्वी बनने के लिये कितना महान् सिद्धान्त है, पुत्र और मित्रनिधि का अभाव होने पर भी कोई भी केवल शिल्प-निधि द्वारा अपने भविष्य का सुन्दर एव नैतिक निर्माण कर सकता है। थोडी देर के लिये समझो की कोई स्त्री चढते यौवन मे वैधव्य को प्राप्त हो गयी । अव उसके पास न पुत्र और न मित्रनिधि है। इस विपद्-बेला मे उसके लिये कौन सा साधन है ? एव उदर-पूर्ति का क्या जरिया ? क्या जीवनपर्यन्त गडे मुर्दे उखाडती रहेगी ? क्या मृतको को रोती रहेगी? आर्त-रौद्रध्यान ध्याती रहेगी ? नही यह रास्ता गलत है। परन्तु इसके बदले मे यदि वह वहिन रजोहरण (ओघा) पुजनिया और माला आदि ऐसी बनाने की अनेको प्रकार की हस्तकला को प्राप्त कर ले तो आसानी से वह अपना जीवनयापन कर सकती है और वह भी धर्मधारा से युक्त, उस को फिर न पराधीन और न दूसरो के मुह की ओर ताकने की आवश्यकता है।
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