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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया पचनिधि माहात्म्य | १७६ यह नारा आज जोर शोर से कर्ण-कुहरो मे गूंज रहा है । इमीलिए भाइयो। देश, समाज और प्राणी मात्र के सरक्षण के लिए धन को बिखेर दो ! कहा भी है-शतहस्त समाहर | सहन हस्त सकिर । अर्थात् मानव । मैकडो हाथो से बटोरो और हजार हजार हाथो मे बिखेरो । जैसे माता अपने विलविनाते पुत्र पुत्रियो के लिए रोटियो का डिव्या खोल देती है। वैसे ही आप भी तिजोरियो के ताले खोल दो । आज ताले लगाने की आवश्यकता नहीं है । आज तो गुत्थियो को सुलझाने की और भामाशाह की तरह पुन आदर्श को जन्म देने की आवश्यकता है । ___ अपने वरद कर-कमलो द्वारा धन का सदुपयोग करना श्रेयस्कर है। यही धन निधि पाने का मार है । अन्यथा यह तो सुनिश्चय समझे दान भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवति वित्तस्य । यो न ददाति न भुक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ।। धान्य-निधि इस पार्थिव शरीर के साथ इस पान्य-निधि का घनिष्ट वास्ता है । इस विषय में अधिक लिखने की, कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक अमीर मे लेकर एक दीन-हीन प्राणी भी इम निधि के माहात्म्य को खूब अच्छी तरह जानता और समझता है । शास्त्रो मे नौ प्रकार के पुण्यो मे मे पहला 'अन्नपुण्य' कहा गया है । मानव मात्र का इस निधि मे उतना ही सम्वन्ध है जितना सम्बन्ध शरीर मे आत्मा का। इस निधि के अभाव मे सर्व निधिया निस्सार, शुष्क और भही प्रतीत होती हैं। क्योकि इसके बलबूते पर ही प्रत्येक प्राणी का शारीरिक और बौद्धिक विकास होता है। अत अनन्तकाल से मानव की यह मनोज्ञ कात प्रिय इष्टकारी सात्विकनिधि रही है और रहेगी। सोने, चाँदी और रपयो के वे ढेर किम काम के ? वह भव्य-भवन और वह बहुमूल्य वेग-भूपा भी किस काम को ? जवकि पेट मे चूहे दौड रहे हैं । घर मे चूहे भी एकादशी व्रत करते हैं । यानि इस निधि की विद्यमानता में मानव का मुखोद्यान फला-फूला व हरा-भरा प्रतीत होता है। और इसकी अविद्यमानता मे उजडा सा जान पडता है। कई उटी मति के मानव, मास, अण्डो आदि को भी मानव का भोजन मानते हैं और धान्य (अन्न) की श्रेणी में रखने का खोटा प्रयास-परिश्रम करते हैं । नि सन्देह यह मान्यता कुत्सित और गलत है । जो ऐमा मानते हैं-वे निश्चय ही कर्मों के भार से गुरु बनते है और उनका नम्बर दानवो की कोटि मे गिना गया है। __ वन्धुओ। आप लोग इम अन्ननिधि के द्वारा प्राणी मात्र को साता पहुंचा सकते है और विपुल पुण्य रूपी पूजी इकट्ठी भी कर सकते है । आपके घरो को भगवान ने 'अभगद्वार' की महान् संज्ञा दी है। जिसका अभिप्राय यह है कि द्वार पर कोई भी अतिथि, अभ्यागत आ जावे, तो भूखा कदापि न लौटे । देखिये-मुगल साम्राज्य युग मे गुजरात के एक नर रत्न 'खेमादेदरानी' ने भी दुर्भिक्ष से दलितदुखित एवं भूख पीडित जनता के लिये अपना अमूल्य अन्न भण्डार खोलकर अहमदावाद के बादशाह तक को विम्मित कर दिया था । आज फिर वही आवाज, वही पुकार | और वही ध्वनि गूंज रही है। अन्न महगा है । 'अस्तु, समय काफी आ चुका है। मैं अपने भापण को सक्षेप मे पूरा करता हूँ। जिम प्रकार अपने स्थान पर पाचो अगुलियो का महत्त्व अपूर्व है, वैसे ही पाचो निधियो का भी समझ लीजिए । तथापि आज के इस युग मे घान्य आर मित्र निधि का महत्त्व और भी अधिक वढ
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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