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________________ २३० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ मण्डन मे है और हमारे तेरापथ सम्प्रदाय की मनगढन्त उपरोक्त मान्यता अजब-गजव को ? कई वक्त आचार्य कालु जी आदि साधको से सम्यक् समाधान भी मागा, लेकिन सागोपाग शास्त्रीय समाधान करने मे कोई सफल नही हुए । अतएव विचार किया कि इस सम्प्रदाय का परित्याग करना ही अपने लिए अच्छा रहेगा । चूँ कि-जिसकी मान्यता रूपी जडें दूपित होती है उसकी शाखा, प्रशाखा आदि सर्व दूपित ही मानी जाती हैं । वस सात वर्ष तक आप इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत रहे, फिर सदैव के लिए इस सम्प्रदाय को वोमिरा' कर भाप सीधे दिल्ली पहुंचे। उस समय स्थानकवासी सम्प्रदाय के महान क्रिया पात्र विद्वर्य मुनि श्री देवीलाल जी म० प० रत्न श्री केसरीमल जी महाराज आदि सत मण्डली चांदनी चौक दिल्ली में विराज रहे थे । श्री सहस्रमल जी मुमुक्षु ने दर्शन किये । व दयादान विषयक अपनी वहीं पूर्व जिज्ञासा, शका, ज्यो की त्यो तत्र विराजित मुनिप्रवर के सामने रखी और वोले-"यदि मेरा सम्यक् समाधान हो जायगा, तो मैं निश्चयमेव आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लूंगा।" अविलम्ब मुनिद्वय ने शास्त्रीय प्रमाणोपेत सागोपाग स्पष्ट सही समाधान कर सुनाया। आपको पूर्णत आत्मसन्तोप हुआ। उचित समाधान होने पर अति हर्प सहित पुन सम्वत् १९७४ भादवा सुदी ५ की शुभ मगल वेला मे आप शुद्ध मान्यता और शुद्ध सम्प्रदाय के अनुगामी वने, दीक्षित हुए। तत्त्वखोजी के साम-साथ ज्ञान-सग्रह की वृत्ति आप की स्तुत्य यी । पठन-पाठन में भी आप सदैव तैयार रहते थे । ज्ञान को कठस्थ करना अधिक आपको अभीप्ट था इसलिए ढेरो सवैये, लावणियांश्लोक गाथा व दोहे वगैरह आप की स्मृति मे ताजे थे। यदा-कदा भजन स्तवन भी आप रचा करते थे जो धरोहर रूप में उपलब्ध होते हैं। व्याख्यान शैली अति मधुर, आकर्पक हृदय स्पर्शी व तात्विकता से ओत-प्रोत थी। चर्चा करने मे भी आप अति पटु व हाजिर जवावी के माथ-साथ प्रतिवादी को झुकाना भी जानते थे । जनता के अभिप्रायो को आप मिनटो मे भाप जाते थे । व्यवहार धर्म मे आप अति कुशल और अनुशासक (Controller) मी पूरे थे। सम्बत् २००६ चैत्र शुक्ला १३ की शुभ घडी मे नाथद्वारा के भव्य रम्य-प्रागण में आपको "आचार्य' बनाए गए । कुछेक वर्षों तक आप आचार्य पद को सुशोभित करते रहे तत्पश्चात् सघंक्य योजना के अन्तर्गत आचाय पदवी का परित्याग किया और श्रमण संघ के मत्री पद पर आसीन हुए। इसके पहिले भी आप सम्प्रदाय के 'उपाध्याय" पद पर रह चुके हैं। इस प्रकार रत्न त्रय की खूब माराधना कर म० २०१५ माघ मुदी १५ के दिन रूपनगड मे आपका स्वर्गवास हुआ। पाठक वृन्द के समक्ष पूज्यप्रवर श्री हुक्मीचन्द जी महाराज सा० की सम्प्रदाय के महान प्रतापी पूर्वाचार्यों की विविध विशेपताओ से ओत-प्रोत एक नन्ही-सी झाको प्रस्तुत की है । जिनकी तपाराधना, जान-माधना एव सयम पालना अद्वितीय थी। अद्यावधि उपरोक्त पवित्र परम्परा के कर्णाधार स्थविरपद विभूपित मालवरत्न, दिव्य ज्योनिर्धर गुरुप्रवर श्री कस्तूरचन्द जी महाराज, हमारे चरित्र नायक गुरु श्री प्रतापमल जी महाराज, प्रवर्तक प्रवर श्री हीगलाल जी महाराज, प्र० वक्ता श्री केवल मुनि जी महाराज, प्र० वक्ता तपम्वी श्री लाभचन्द जी महाराज एव प्रवर्तक श्री उदयचन्द जी महाराज सा० आदि अनेक श्रमण श्रेष्ट जयवन्त हैं । जो पामर मयारी जीवो को मन्मार्ग की ओर प्रेरित कर रहे हैं । ऐने पवित्र मनस्वियो के चारु चरणारविदो मे सदा यन्दना जंजलियाँ समर्पित हो ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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