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________________ १२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य प्रशसा करे किंतु व्यक्तिगत मे जैन धर्म को नास्तिक मानता हूँ । जो नास्तिक धारा का पक्षपाती-हिमायती हैं, जो वेद-व्याख्या को मान्य नही करता क्या वह म्व-और पर को जीवनोत्थान-कल्याण की दिशा दर्शन दे सकता है ? मेरी दृष्टि मे तो कदापि नही । अब आप अपना मतव्य प्रगट करें। गुरुदेव-आप विद्वन होते हुए भी दर्शनशास्त्र से अनभिज्ञ कैसे रह गये ? चार्वाक के अतिरिक्त जैन-बौद्ध, साख्य, वैशेपिक, न्याय एव योग दर्शन आदि सभी आस्तिक दर्शन माने हैं। फिर आप ने जनदर्शन को नास्तिक कैसे माना ? नास्तिक दर्शन की परिभाषा क्या आप नही जानते हैं ? "नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिक " जो आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं कन्ता, वह नास्तिक और अस्तीति मतिर्यस्य स आस्तिक --अर्थात् आत्मा की सत्ता स्वीकार करनेवाला दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाया है। हाँ, तो जैनधर्म पक्का आत्मवादी रहा है। आप बुरा न माने, ईर्ष्यालु तत्त्वो ने जनदर्शन के मर्म स्वस्प अनेकान्त मिद्वान्त को समझा नहीं, अपितु मिथ्या प्रलाप कर जैनधर्म को नास्तिक कह दिया । वेदो को नहीं मानने वाला नास्तिक नही । नास्तिक तो वह है जो आत्मा को नहीं मानने वाला है । जैनवर्म तो स्वर्ग, अपवर्ग-पुण्य पाप विपाक एव पुनर्जन्म आदि सभी को मानता है। अब बताइए नास्तिक कसे? नास्तिक दर्शन के तो सिद्धान्त ही विपरीत है । जिम ममय चारो भूत अमुक माया में अमुक रूप मे मिलते हैं, उसी समय शरीर बन जाता है और उममे चेतना आ जाती है। चारो भूतो के पुन विखर जाने पर चेतना नष्ट हो जाती है । अतएव जव तक जोओ तब तक सुख पूर्वक जीओ, हंसते और मुस्कराते हुए जीओ । कर्ज लेकर के भी आनन्द करो, जव तक देह है, उससे जितना लाभ उठाना चाहो उठाओ । क्योकि शरीर के राख हो जाने पर पुनरागमन कहां हैं ?" यह चार्वाक अर्थात् नास्तिक सिद्धान्त है । समझे? पडित-महाराज | आप का अध्ययन गहरा है । आप पूण मननशील है। वास्तव में आत्मापरमात्मा के अस्तित्व को नहीं माननेवाला ही नास्तिक की श्रेणी मे गिना जाता है। कतिपय लेखक महोदय ने मिथ्या वातें लिखकर जैनधर्म को वास्तव मे अपवित्र किया है । मैं जिज्ञासु हूँ। मैंने इसलिए समाधान चाहा । आपके समाधान से मेरे विचारो को नया मोड मिला है । मैं आपके समाधान से अत्यधिक प्रभावित हुआ हूँ। ___ मैंने आपका ममय लिया मुझे क्षमा प्रदान करें । अब मैं कभी भी जैनदर्शन को नास्तिक नही कहूंगा। १६ आग मे बाग यह घटना रतलाम से सम्बन्धित हैं । गुरुप्रवर अपने एक माथी मुनि के साथ शौच से निपट कर लौट रहे थे । मार्ग मे ही एक भाई तेज गति से हापता हुआ सेवा मे आ खडा हुआ । गुरु महाराज । मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ज्यादा वात करने का अभी समय नहीं है। आपकी शिप्या अर्थात् मेरी
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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