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________________ प्रथम खण्ड मातृ-भूमि मेवाड | ७ मातृ-भूमि, धर्म-सस्कृति-सभ्यता एव पवित्र परम्परा की सुरक्षा के लिए पूरा-पूरा योगदान प्रदान किया और जननी के धवल-दुग्ध गौरव को शुद्ध-विशुद्ध रखा है । अतएव इस भूमि का कण-कण स्वदेश प्रेम-त्याग और वलिदान की अमर-अमिट यशोगान-गाथा से परिपूर्ण है। जिसके अन्तर-कक्ष मे वीरागनाओ के जोहर की अमर कहानियां लिखी हुई है। जो मेवाड-मा की बोलती हुई आत्मा है । जिसको भाग्य ने न जाने किस धातु का फौलादी कलेजा दिया है, जो टूट जाने पर भी दस्यु-परम्परा के समक्ष झुकता नही है। उसका स्वाभिमान, उसका सम्मान, त्याग और धर्मप्रेम विश्व के हर इतिहास में अपना अनोखा ही महत्त्व रखता आया है । ऐसी समुज्ज्वल आत्माओ की जीती-जागती गुण गाथाएँ गा-गा कर आज हम भी गर्व से अपना सीना ऊंचा उठाते हैं। आर्यसस्कृति का अनुगामी मेवाड शुद्ध भारतीय सस्कृति के दर्शन हमे मेवाडवासी नर-नारी के जीवन मे मिलते हैं। प्रकृति के पवित्र पुजारी उन भद्र निवासियो मे वही भावुकता-वही श्रद्धा-सादगी एव वही सरलता-शिष्टता-मिष्टता आदि गुण प्रसन्नचित्त होकर प्रकृति मैया ने उनमे उण्डेल दिये हैं। अतएव वहाँ कृत्रिम जीवन एव दिखावटी दृश्यो का अभाव-सा है। ___ जहाँ आज का शहरी मानव विलासिता एव फैशन की चका-चौंध मे अपने से तथा अपनी शुद्ध-सस्कृति से दूर भागा जा रहा है। वहाँ मेवाड माता के लाडले अधिक रूपेण इस वीमारी से सर्वथा विमुक्त रहे हैं। उनके लिए तो वही सादी वेश-भूपा, वही सामान्य सादा खान-पान एव वही सादासीधा सस्ता रहन-सहन उपलब्ध है। जिसमे मेवाड के निवासी असीम आनन्द-अनुभूति के प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं । ऐसी वास्तविक अनुभूति शहरी जीवन के नसीब मे कहाँ ? ऊँची धोती ऊँची अंगरखी, सीधो सादो भेष । रहबाने भगवान हमेशा, दीजो मेवाड देश ॥" मेवाडमाता सुधार चाहती है - यद्यपि गुण अधिक पाये जाते हैं। तथापि जहाँ-तहाँ दुर्गुण एव निरर्थक रूढियो का साम्राज्य व्याप्त है। विद्या का काफी अभाव, अन्धा-अनुकरण, रूढिवादिता का अधिक रूप से आचरण, मृत्यू भोज, कन्या विक्रय एव लकीर के फकीर उपरोक्त चन्द वातो का समूल अन्त हो जाने पर मेवाड माता अवश्यमेव स्वर्ग सदृश्य ऋद्धि-सिद्धि एव समृद्धि से लहलहा उठेगी और प्रगति के पथ पर अग्रसर होगी। कुछ भी हो, फिर भी मातृ भूमि का महत्त्व अकथनीय-अवर्णनीय ही माना गया है । जैसा कि "जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसो" । ___ जननी और जन्मभूमि का महत्त्व स्वर्ग से भी गुरु है। पयसा कमल, कमलेन पय. पयसा कमलेन विभाति सर-जैसे पानी से पकज, पकज से पानी और पानी-पकज द्वारा सुहावने सरोवर की सुपमा मे चार चाद लग जाते हैं । उसी प्रकार वह सपूत धन्य है, जिसको भाग्यशालिनी माता की पवित्र गोद मे आने का सौभाग्य मिला है, वह जननी भी धन्य हैं कि ऐसे पुत्र रत्नो को जन्म देकर सती माता कहलाती है। और वह मातृभूमि भी अधिकाधिक गौरवशालिनी व भाग्यशालिनी है कि-ऐसी जननी एव ऐसे धर्मवीर पुत्र रत्नो को यदा-कदा धारण किया करती है। न तत् स्वर्गेऽपि सौख्य स्याद् दिव्य स्पर्शन शोभने । कुस्थानेऽपि भवेत् पुंसा जन्मनो यत्र सभवः ।। -पचतत्र अर्थात् साधारण एव रद्दी से रद्दी जन्म स्थली मे जीवधारी को एव पशु-पक्षी को जो सुखानुभूति होती है वह सुखानुभूति उन भमकेदार-भडकीले स्वर्गीय वैभव मे एव सुहाने स्पर्श मे कहाँ रही हुई है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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