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________________ दीसा-साधना के पथ पर सफलता का सूर्योदय -- पारिवारिक सदस्यो द्वारा सहर्प मौन स्वीकृति मिल जाने पर वैरागी प्रताप अविलम्ब देवगढ से लसाणीगाव मे चल आया। जहाँ श्री हर्पचन्द्रजी महाराज आदि सतद्वय अपना वर्षावास बिता रहे थे। काफी दिनो तक उनकी सेवा मे रहने का सौभाग्य मिला। फलत ज्ञान-ध्यान श्रमणोचित आचारविचारव वैराग्यभाव, प्रत्याख्यान आदि को आशातीत वल भी मिला । सकल्प पर मेरु की तरह मजबूत रहने की मुनि श्री द्वारा सत्प्रेरणा भरी सुसीख भी मिलती रही। इस प्रकार प्रण-पालक प्रताप अहर्निश उस पवित्र वेला की प्रतीक्षा में रहता था कि "वह शुभ-घडी पल कब आएगी? जिस दिन मैं निर्ग्रन्थ के पद चिन्हो का अनुगामी बनकर सघ, समाज, गुरु एव गुरु भ्राताओ की महान् सेवा शुश्र पा कर अपने जीवन को समृद्धिशाली बनाऊंगा जेही के जेही पर सत्य सनेह । सो तेही मिला न कक सदेहु । "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' शुभ भावना के अनुसार सिद्धि प्रसिद्धि तो साधक के चरणो का चुम्बन किया करती है। वस, ठीक वीर प्रताप विजय-दशमी के शुभ दिन दिग विजय के शुभ सकल्प को मन मजूपा मे विराजित कर लसाणी ग्राम से मदसौर के लिए चला आया। जहाँ महामहिम शासन प्रभाकर वादी मान-मर्दक गुरु प्रवर श्री नन्दलालजी म० शिष्य परिवार सहित सवत् १९७६ का चातुर्मास सम्पन्न कर रहे थे। विना पत्र-समाचार अकस्मात् प्रताप को आते देखकर मुनिमण्डल विस्मित हुए और वस्तुस्थिति ज्ञात होने पर प्रसन्न चित्त भी हुए। नर-रत्नो के पारखी, गुरुरूपी जौहरी ने सच्चे हीरे को पहिले से ही खूब टटोल एव देख-भाल कर रखा था। किन्तु सघ-समाज ने अभी तक कसोटी पर कसा नहीं था। ऐरे-गैरे ढोगी-धूर्त -नर-नारी विमल वैराग्य अवस्था को निज स्वार्थ के पीछे कलुपित कलकित किया करते हैं। एव वैराग्य का चोगा लटकाकर गरु एव संघ की आखो मे धूल झोक जाते हैं । अतएव सघ की तरफ से कसौटी पर आना अत्यावश्यक ही था। कसौटी के तस्ते पर प्रतापअब कसौटी करने के लिए स्थानीय सघ के सदस्यो ने वैरागी प्रताप को सन्निकट एकान्त मे बुलाकर कुछ-प्रश्न पूछे-"दीक्षा किस लिए लेते हो? क्या साधु वनने मे ही मजा एव मोक्ष है ? गृहस्थावस्था मे भी तो जीवनोत्थान-कल्याण बहुतो ने किया हैं ? अतएव हमारा तो नम्र निवेदन यही है कि अभी हाल रुको, अथवा हमारे यहा पर ही नौकरी करो और सुख से कमाओ-खाओ।" प्रश्नो का मेधावी वालक ने साहस पूर्वक समयोचित उत्तर दिया। पच्छको का मन-कोष-तोष से भर उठा। इसी प्रकार घरों में भी खाद्य-पेय पदार्थों द्वारा दुवारा कसौटी और हुई। परन्तु शान्त मूर्ति प्रताप के मुख से एक शब्द तक नहीं निकला कि-यह कडुमा है, वह शीत है, यह उष्ण है, यह तीखा और वह कसला है।" वल्कि समय पर जैसा 'असन-पान खाद्य-स्वाद्य थाली मे आया, वैसा खा-पीकर सतुष्ट रहे ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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