Book Title: Prachin Jain Itihas Part 02
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास द्वितीय भाग । किसनदास प्रकाशक सूरत मूलचन्द कापडिया * मालिक दिगम्बर उ जैन पुस्तकालय लेखक : .बा. सूरजमल जैन इन्दौर . तन सुख. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन-जैन-इतिहास (दूसरा भाग) न:-1. रचयिता-+- ( His श्री० सूरजमल जैन (हरदानिकासी प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दि० जैन पुस्तकालय, चंदाबाड़ी-सूरत । - । " जैन विजय " प्रि० प्रेस-सूरतमें मूलचंद किसनदास कापडियाने मुद्रित किया । प्रथमावृत्ति ] वीर सं० २४४७ [ मूल्य १) संख्या ११०० - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। प्राचीन जैन इतिहासका प्रथम भाग करीब ५ वर्ष पहिले प्रकाशित हुआ था, उसी समय दूसरा भाग भी प्रकाशित होनेकी सूचना दी गई थी । परन्तु कई कारणोंसे दूसरा भाग उस समय प्रकाशित नहीं होने पाया था, अब वह श्रीयुक्त मूलचंदनी किसनदासनी कापड़ियाकी कपासे प्रकाशित हो रहा है । । हमारा विचार था कि इस भागमें चौवीसों तीर्थकरोंका पूर्ण वर्णन दे दिया जाय । परंतु इस भागके बहुत बढ़नानेसे हम अपने विचारके अनुसार कार्य न कर सके । अब तीसरे भागमें जैन इतिहास पूर्ण हो जायगा । .. पहले भागकी दिगम्बर जैन समानने साधारणतया अच्छी कद्र की है आशा है कि इस भागको भी जैन समाज अपनाकर लेखक और प्रकाशकका उत्साह बढ़ावेगी। - इस भागमें हमारे प्रूफ न देखनेसे बहुत अशुद्धियाँ रह गई हैं, इसके लिये पाठकोंसे क्षमा-प्रार्थना करते हुए हम निवेदन करते हैं कि पाठकगण कृपाकर शुद्धि पत्रके अनुसार पहेले इस पुस्तकको शुद्ध कर लें और पीछे पाठ करें। प्रार्थी-लेखक । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... विषय सूची। १-२ प्रस्तावना; शुद्धिपत्र......... .... ३ पाठ पहिला-भगवान् विमलनाथ .... ४ पाठ दूसरा-प्रतिनारायण मधु, नारायणधर्म और बलदेवत्वयंभू .... ५ पाठ तीसरा-भगवान् अनंतनाथ .... ....... ६ पाठ चौथा-प्रतिनारायण मधुसूदन और बलदेव सुप्रभ, नारायण पुरुषोत्तम ७ पाठ पांचवां-भगवान् धर्मनाथ .... ८ पाठ छठवां-प्रतिनारायण-मधुक्रीडा-नारायण पुरुष सिंह और बलदेव सुदर्शन ... ९ पाठ सातवां-चक्रवर्ति मघवा .... १० पाठ आठवां-चक्रवर्ति सनत्कुमार ....... ११ पाठ नोवां-भगवान् शांतिनाथ १३ पाठ दशवां-भगवान् कुंथुनाथ .... १३ पाठ ग्यारहवां-भगबान् अरहनाथ .... १४ पाठ बारहवां-अरहनाथके समयके अन्य प्रसिद्ध पुरुष १५ पाठ तेरहवां-चक्रवर्ति सुभौम .. .... ..... १६ पाठ चौदहवां--प्रतिनारायण निशुंभ, बलदेव, नंदिषेण, नारायण, पुंडरीक ... . १७ पाठ पंद्रहवां-भगवान् मल्लिनाथ ... . १८ पाठ सोलहवां-चक्रवर्ति पद्म .... १९ पाठ सत्रहवां-प्रतिनारायण बलिंद्र,बलदेव,नंदिमित्र नारायणदत्त३५ २० पाठ अठारहवां-भगवान् मुनिसुव्रतनाथ ... ..... ३६ २१ पाठ उगनीसवां-चक्रवर्ति हरिषेण .... २२ पाठ वीसवां-यज्ञकी उत्पत्ति .... .... २३ पाठ एकवीसवां-एक न्यायो राजाका उदाहरण... .. م . . م سم سم . سه س Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पाठ बावीसवां-राक्षसवंश और वानरवंश .... ५२ २५ पाठ तेवीसवां-आठवें प्रतिनारायण रावण व उनके बंधु ६० २६ पाठ चौवीसवां-नारद .... .... २७ पाठ पचीसवां-हनुमान .... २८ पाठ छब्बीसवां-रामचंद्र लक्ष्मण ... २९ पाठ सत्तावीसवां-सीताके पूर्वज, सीताका जन्म और रामलक्ष्मणादिका विवाह ३० पाठ अठ्ठावीसवां-महाराज दशरथका वैराग्य, __रामलक्ष्मणको बनवास ... ९२ ३१ पाठ उगनतीसवां-रावणादिकी अंतिम गति ... १२९ ३२ पाठ तीसवां-देशभूषण कुलभूषण .... .... १३० ३३ पाठ एकतीसवां-राम लक्ष्मणका अयोध्या आगमन भरतका दीक्षा ग्रहण, रामलक्ष्मणका राज्याभिषेक, वैभव और दिग्विजय तथा शत्रुघ्नका मथुरा विजय करना.... ... १३१ ३४ पाठ बत्तीसवां-सीताका त्याग, रामके पुत्रोंका जन्म १३७ ३५ पाठ तेतीसवां-रामचंद्रके पुत्र अनङ्गलवण और मदनांकुश तथा पिता पुत्रका युद्ध १४२ ३६ पाठ चौतीसवां-सीताका अयोध्या पुनरागमन, अग्नि परीक्षा, दीक्षा ग्रहण और स्वर्गवास १४६ ३७ पाठ पतीसवां-सकलभूषण .... .... १४९ ३८ पाठ छत्तीसवां-हनुमानका दीक्षा ग्रहण ... १५० ३९ पाठ सेतीसवां-लक्ष्मणके ज्येष्ठ पुत्र.... ... १५१ ४० पाठ अडतीसवां-राम लक्ष्मणके अंतिम दिन ... ४१. पाठ उगनचालीसवां-रामचंद्र लक्ष्मण ४२ सूचना और परिशिष्ट-तीर्थंकरोंके चिन्ह .... १७१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र । अशुद्धि कपिलोपुर धारण कर शुद्धि कपिलापुर धारण की। इसके इनके ९ ११ ૧૨ १० ० सप्तको ० ० राजा अयोध्यामें सिंहसेन राजा सिंहसेन . उत्पत्ति हुई प्राप्ति हुई परिशिष्ट 'क' परिशिष्ट 'क' से इस इससे लौकांकित लोकांतिक चलानेसे चलनेसे लिखे हैं लिखा है सुशीलचन्द्र खुशालचन्द्र सप्तमीको सहवाम्न सहस्त्राम्र भगवान्के भगवान् श्रावक श्राविका रहकर राज्य रहकर फिर राज्य आपके आपको शरद ऋतु शरद ऋतुके उत्पत्ति हुई प्राप्ति हुई उसका राजाके राजाओंके रक्षिता रक्षित छनवे हजार विभंगी विभंगा भी आर्यकारी अधिकारी पद्मावतीके गर्भसे मिती पद्मावतीके मिती देवियो देवियां . AY १५ उसे छनवे थी ७२ १० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ३४ છુટ ३९ ४१ ૪૨ ४२ ४५ ४६ ४८ ४९ ५३ ५३ ५३ ५९ ५९ ૬૧ ૧ દૂર ફ્ર ६२ ६२ ६४ ६५ ६६ .६६ ७० ७२ ७३ ૧ ૧૮ २ ૧૬ N F 9 १६ * ~ ~ ~ ~ ~ ~ : * ~ ~ ~ ~ ~ ४ ૨૨ ૧૧ ૧૩ ૧૪ ૧૧ १२ १५ २१ ४ १६ ૧૪ 6 G ६ 13 9 2 2 2 १३ ૧૨ १७.४ भापके पद्मश्री लिये पद्मनाम पारसी जाना मधु सवारी रुचायें निश्चय पहिलेसे राक्षकों के योजन थी नगर या लोकपति थी श्रीवास अनावत 39 स्तुति सिद्धि (६) 93 राजी व सरसी पर किया था तन्दरी प्रमाण प्रसुति मरुत मथुर के आयुका पद्म भी लिया पद्मनाभ पाटसी जानेका मधुपिंगलको सवार ऋचायें निश्चित पहिले राक्षसोंके योजनकी थी नगर था लोकपाल था । श्रीवत्स अनावर्त "" स्तुति की सिद्ध 29 राजीव सरसी यह लिया था तनूदरी प्रणाम प्रसूति मरुत मथुरा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ७५ ७५ ७५ ७६ ८ १ ८३ ८४ ૮૪ ८९ ९० ९१ ५ ૧૧ ९६ ९९ १२ ७ १३ २ ૧ર ૨૧ ६ ९१ १२ ९२ 3 ५ ९२ ૪ ९२ ९३ ९४ ९६ ९६ ९६ ९६ ९६ १५ ૫ ૨૧ 1 ७ ૧૩ १६ ૨૨ ૧૬ ४ उधि "" पगमुख कुचेष्टाओ बहु स० शत्र (७) इस पर. इन्द्रके साथ युद्ध पुत्र ये सुना जनककि चटकेगा भटमंडल जनक के परांग मुख हो लनकी दुर्लभ्य उजनी जिन प्रतिमाको नम स्कार करता था " पराङ्मुख कुचेष्टाओं को इस पृष्ठ में कई स्थानपर 'भट मंडल' शब्द छपा है उसकी जगह ' भामंडल ' शब्द होना चाहिये भट मंडलको तब भामंडलको विधुदङ्ग बाल्याखिल्ल बहुत सशस्त्र इस प्रकार इन्द्रके साथ किये हुये युद्ध पुत्र थे सुना कि जनक चढ़ावेगा भामंडल जनक ने बाल्यवस्था बाल्यावस्था सगला सफला मूर्तिको सजला सफला भुमिको हे है पराङ्मुख करने के उनकी उज्जयिनी जिन प्रतिमा बनवा ली थी जिससे कि प्रणाम करते समय जिन प्रति माको नमस्कार हो विद्युदङ्ग बाल्यखिल्ल Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ () ९९ १० और और खूब और खूब ९९ १६ प्रसिद्धी. प्रसिद्धि १०० ५,६,८,१०,११,बाल्याखिल्ल बाल्यखिल इस यह १९ वैदूर्य वैर्य १०८ इन दिनों इन दिनों इनका खड्ग हो लेलिया खड्ग लेलिया १११ ३ झण्डेके । झूठेके ११२ भटमण्डल भामण्डल ११९ २२ अपशकुन परन्तु अपशकुन हुए परन्तु ૧૨૨ होकर गिर गये . होकर लक्ष्मण गिर गये १२५ रामपक्षके कुछ कुछ पुरुष रामपक्षके कुछ पुरुष ૧૩૧ षियोगका वियोगका ૧૩૧ ૧૨ तिथिकी तिथि आदिकी १३३ १२,१ राज्यभिषेक • राज्याभिषेक ૧૩૪ धीरतामें वीरता की १४० ૨૨ मुझे ૧૨ इन ૧૪૮ 3 दुत्कृत्य दुष्कृत्य १५० कैवल्यी केवली ૧૫૧ चलकर चयकर १५२ कुदुम्ब कुटुम्ब ૧૫૨ हो गया होगया होगा। १० सम्बंधमें यदि कुछ सम्बंधमें कुछ ૧૫૮ ૧૧ ५. प्रीवका पुत्र पचास ग्रीवका पुत्र पुलसप हुआ। पुलस्त्य हुआ। वनमें वनकी १६० परांगमुख पराङ्मुख पद युवराज युवराज पद सुझे ૧૪ १५६ १५९ ४ २. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास दूसरा भाग। पाठ १. भगवान विमलनाथ (तेरहवें तीर्थकर ) (१) भगवान वासुपूज्यके मोक्ष जानेके तीस सागर बाद तीर्थकर विमलनाथ उत्पन्न हुए। आपके जन्मसे एक पल्य पहिलेसे धर्म-मार्ग बंद हो गया.था । (२) ज्येष्ठ वदी दशमीको आप गर्भमें आये । माताने सोलह स्वप्न देखे । इन्द्रादि देवों द्वारा गर्भ कल्याणक उत्सव हुआ । गर्भ में आनेके छह माह पहिलेसे जन्म होने तक रत्नों की वर्षा हुई और देवियोंने माताकी सेवा की । (३) आपका जन्म कपिलोपुरके राजा कृतवर्मा रानी जय - स्यामाके यहां माघ सुदी चतुर्दशीको तीन ज्ञान युक्त हुआ। आपका वंश इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था । ___(४) साठ लाख वर्षकी आयु थी । और साठ ही धनुषका सुवर्णके समान शरीर था। (५) आपके साथ खेलनेको स्वासे देव आते थे । और वहींसे आपके लिये वस्त्राभूषण आया करते थे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। २ (६) पंद्रह लाख वर्ष तक आप कुमार अवस्थामें रहे । बादमें राज्य प्राप्त हुआ । आपका विवाह हुआ था । (७) आपने नीति पूर्वक तीस लाख वर्ष तक राज्य किया। (८) एक दिन बादलोंको तितर वितर हो जाते देख आपको वैराग्य हुआ उसी समय लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की व इन्द्रादि अन्य देव आये । मिति माघ सुदी ४ को एक हजार राजाओं सहित दिक्षा धारण कर देवोंने तप कल्याणक उत्सव मनाया ! तब भगवानको मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ | (९) एक दिन उपवास कर दूसरे दिन नंद नगरके राजा जय सिंह के यहां आपने आहार लिया तब देवोंने राजाके यहां पंचाश्चर्य किये। (१०) तीन वर्ष तक ध्यान कर जिस वनमें दीक्षा ली थी उसी वनमें जंबूवृक्षके नीचे माघ सुदी ६ को चार घातिया कर्मोका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। समवशरण सभाकी देवोंने रचना की । और ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया। (११) आपकी सभामें इस प्रकार मनुष्य जातिके सभासद थे... ५५ मंदिर आदि गणधर ११०० पूर्व ज्ञानके धारी ३६५३० शिक्षक मुनि ४८०० अवधिज्ञानी ९००० विक्रियारिद्धिके धारी ५५०० केवलज्ञानी ५५०० मनःपर्ययज्ञानी ३६०० वादी मुनि ६६४८५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूमरा भाग। १०३ ००० आर्यिका २००००० श्रावक ४००००० श्राविकाएं (१२) आयुके एक मास शेष रहने तक आपने समस्त आर्यखंडमें विहार किया और विना इच्छाके दिव्य ध्वनि द्वारा धर्मोपदेश आदिसे प्राणियोंका हित किया । . (१३) जब आयु एक मास बाको रह गई तब दिव्य ध्वनि होना बंद हुआ और सम्मेदशिखर पर्वत पर इस एक माहमें शेष कर्मोका नाश कर आठ हजार छह सौ मुनियों सहित मोक्ष पधारे। इन्द्रोंने मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया । यह दिन आषाढ वदी अष्टमीका था। पाठ २ । प्रतिनारायण मधु और नारायण धर्म और बलदेव-स्वयंभू । (तीसरे बलदेव, नारायण और प्रतिनारायण) (१) द्वारिकापुरीके राजा रुद्रके यहाँ तीसरे नारायण धर्मका और तीसरे बलभद्र स्वयंभूका जन्म हुआ था । नारायण धर्मकी माताका नाम सुभद्रा और स्वयंभूकी माताका नाम पृथिवीदेवी था। (२) दोनों भाइयों (.नारायण और बलभद्र ) में अनुपम प्रेम था। (३) नगरपुरके राजा मधु जो कि प्रतिनारायण था और जिसने तीन खंड पृथ्वीको अपने आधीन किया था नागयणने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ४ जीता। इन दोनोंका परस्पर युद्ध इसलिये हुआ था कि किसी रानाने प्रतिनारायण मधुके लिये इतके हाथोंसे भेंट भेजी थी उस भेंटको इन दोनों भाइयोंने छुड़ा ली और दूतको मार डाला । तब नारद द्वारा समाचार सुन मधु लड़ने आया। और धर्म नारायणसे हार कर युद्ध में प्राण दिये । इसके जीते हुए तीन खंडके नारायणधर्म सम्राट हुए । प्रतिनारायणसे ही इन्होंने चक्र रत्नको प्राप्त किया था। (४) नारायणको चक्ररत्ने आदि सात रत्न और बलदेक स्वयंभूको चार रत्न प्राप्त हुए थे। (५) नारायणधर्मकी सोलह हजार रानिया थीं। (६) नारायणधर्म और प्रतिनारायण मधु ये दोनों सातवें नर्क गये और बलदेव स्वयंभूने पहिले तो भाईके मरणका बहुत शोक विया पीछे भगवान् विमलनाथके सभवशरणमें दिक्षा धारण कर मोक्ष पधारे । पाठ ३. भगवान् अनंतनाथ। ( चौदहवें तीर्थकर ) (१) भगवान् विमलनाथके नव सागर बाद चौदहवें तीर्थकर अनंतनाथका जन्म हुआ । इसके जन्मसे तीन चतुर्थाश पल्य पहिलेसे धर्म मार्ग बंद होगया था । (२) भगवान् अनंतनाथ कार्तिक कृष्ण प्रतिपदाको गर्ममे १, २, ३, का विशेष वर्णन परिशिष्ट 'क' में दिया गया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। आये । पंदरह मास तक रत्न वर्षा की गई । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक उत्सव मनाया । (३) इक्ष्वाकु वंशी काश्यप गोत्रके अयोध्याके राजा अयोध्या सिंहसेन और रानी जयश्यामा देवीके आप पुत्र थे । (४) ज्येष्ठ वदी द्वादशीको आपका जन्म हुआ। आप तीन ज्ञान सहित उत्पन्न हुए थे। इन्द्रादि देवोंने जन्म कल्याणक उत्सव मनाया। (५) आपकी आयु तीस लाख वर्षकी थी और पचास धनुष ऊँचा शरीर था । वर्ण सुवर्णके समान था। (६) साड़े सात लाख वर्ष तक कुमार अवस्थामें रहकर पंदरह लाख वर्ष तक राज्य किया। (७) आपके लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे आते थे। और साथमें क्रीड़ा करनेको स्वर्गसे देव भी आते थे । (८) एक दिन आकाशमें उल्कापात देखकर आपको वैराग्य उत्पन्न हुआ तब लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की। और भगवान् अनंतनाथने अपने पुत्र अनंतविनयको राज्य देकर ज्येष्ठ वदी बारसको सहेतुक नामक वनमें एक हजार राजाओं सहित दिक्षा धारण की । इस समय आपको मनःपर्यय ज्ञानकी उत्पत्ति हुई। (९) दो दिन उपवास कर विनीता नगरीके राजा विशेषके यहां आहार लिया । इन्द्रादि देवोंने राजाके यहां पंचाश्चर्य किये। (१०) दो वर्ष तक तप कर चैत्र वदी अमावसके दिन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ६ पीपलके वृक्षके नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया । देवोंने समवशरण सभाकी रचना की और ज्ञान कल्याणकका उत्सव किया । (११) भगवान्की सभामें इस भांति चतुर्विध संघ था । ५० जय आदि गणधर १००० पूर्व ज्ञान धारी ३२०० वादी मुनि ३९५०० शिक्षक मुनि ४३०० अवधिज्ञानके धारी ५००० मनःपर्ययज्ञानी ५००० केवलज्ञानी ८००० विक्रियारिद्धिके धारी ६६०५० १०८००० श्रिया आदि आर्यिका २००००० श्रावक ५००००० श्राविकायें। (१२) आयुमें एक मास बाकी रहने तक समस्त आर्यखंडमें आपने विहार किया । और धर्मोपदेश दिया। (१३) विहार कर सम्मेद शिखर पर्वत पर पधारे । वहां पर दिव्य ध्वनिका होना बंद हुआ। तब एक मासमें शेष चार कर्मोका नाश कर मिती चैत्र वदी आमावस्याको छह हजार एकसो साधुओं सहित मोक्ष पधारे । तब इन्द्रादि देवोंने निर्वाण्ड, कल्याणकका उत्सव मनाया । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। पाठ . प्रतिनारायण मधुसूदन, और बलदेव सुप्रभ नारायण पुरुषोतम । ( चौथे नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र) (१) भगवान् अनंतनाथ स्वामीके तीर्थकालमें काशी नरेश मधुसूदन प्रतिनारायण हुआ और सुप्रभ बलदेव हुए व पुरुषोत्तम नारायण हुए। ___(२) बलदेवका नाम सुप्रम था और नारायणका नाम पुरुषोत्तम था । (३) द्वारिकाके राजा सोमप्रभकी महारानी जयावतिसे बलभद्र-सुप्रभ उत्पन्न हुए और महारानी सीतासे नारायण-पुरुषोत्तमका जन्म हुआ। (४) नारायणकी आयु तीस लाख वर्षकी थी और शरीर पचास धनुष ऊंचा था। __ (५) नारायण सात रत्नोंके और बलभद्र चार रत्नोंके स्वामी थे। प्रतिनारायणने चक्ररत्न सिद्ध किया था । इन तीनोंकी विशेष संपत्तिका वर्णन परिशिष्ट 'क' जानना चाहिये । (६) नारायणकी सोलह हजार और प्रतिनारायणकी आठ हजार रानियां थीं। . , एक जगह उत्तरपुराणमें द्वारिकाके राजा और दूसरी जगह खड्ग पुरके राजा लिखा है । २ इसका नाम आगे चल कर उत्तरपुराणकारने ही सुदर्शना लिखा है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ८ __ (७) प्रतिनारायण मधुसूदनने विजयाई पर्वतकी इस ओर (दक्षिणबाजू) तक राज्य प्राप्त किया था । और सब राजाओंको अपने वशमें किया था। (८) मधुसूदनने जब नारायण पुरुषोत्तमसे कर व मेंट मांगी । तब वे देनेसे नामंजूर हुए । इस दोनोंका परस्पर युद्ध हुआ। मधुसूदनने नारायण पुरुषोत्तम पर चक्र चलाया पर यह चक्र नारायणकी प्रदक्षिणा देकर उनके हार्थोंमें गया तब पुरुषोत्तम नारायणने मधुसुदन पर चलाया, और जिससे उसकी मृत्यु हुई। वह मर कर सातवे नरक गया। उसके तीन खडके राज्यके अधि. कारी नारायण पुरुषोत्तम हुए । (९) नारायणने आयुपर्यंत राज्य किया। फिर मर कर नरक गये । इनके देहांतसे बड़े भाई सुप्रभने बहुत शोक किया । अंतमें सोमप्रभ जिनके समीप दिक्षा धारण कर मोक्ष गये । पाठ ५। भगवान् धर्मनाथ । (पंद्रहवें तीर्थंकर ) (१) चौदहवें तीर्थंकर भगवान् अनंतनाथ मोक्ष जानेके चार सागर बाद भगवान् धर्मनाथ ( पंद्रहवें तीर्थंकर) उत्पन्न हुए। आपके जन्मसे आघापल्य पहिलेसे धर्म मार्ग बंद था । (२) वैशाख शुक्ल त्रयोदशीको भगवान् धर्मनाथ रत्नपुरके राजा भानुकी रानी देवी सुप्रभाके गर्भ में आये । आप कुरुवंशी काश्यप गोत्रके थे। गर्भमें आनेके छह मास पूर्वसे जन्म होने Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । तक स्वर्गसे रत्न वर्षा हुई । माताकी सेवा देवियोंने की। व इन्द्रादि देवोंने गर्भ में आनेपर गर्भ कल्याणक उत्सव मनाया (३) माघ सुदी त्रयोदशीको भगवान् धर्मनाथ तीन ज्ञान सहित उत्पन्न हुए । इन्द्रादि देवोंने जन्मकल्याणक किया । (४) आपकी आयु दश लाख वर्षकी थी और शरीर एकसो अस्सी हाथ ऊँचा था, वर्ण सुवर्णके समान था । (५) ढाई लाख वर्ष तक कुमार अवस्थामें रहकर आप राज्यपद पर सुशोभित हुए। आपके लिये वस्त्राभूषण और साथ में कीड़ा करनेको देव स्वर्गसे आते थे । (६) राज्य करते हुए आपने एक दिन उल्कापात होता हुआ देखा। जिसे देखकर आपको वैराग्य हुआ । लौकांकित देवोंने आकर स्तुति की। अपने पुत्र सुधर्मको राज्य देकर माघ सुदी त्रयोदशी के दिन शालिवन में आपने दिक्षा धारण की । इन्द्रोंने तप कल्याणक उत्सव मनाया । भगवान्‌को दिक्षा धारण करते ही मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति हुई । भगवान् के साथ एकहजार राजाओंने दिक्षा धारण की थी । (७) छह दिन तक उपवास कर पाटलीपुर के राजा धन्यषेके यहां आहार लिया । देवोंने राजाके घर पंचाश्रर्य किये थे । (८) एक वर्ष तक तप कर शालिवन में सप्तछदके वृक्षके नीचे पौष सुदी पूनमके दिन भगवान्‌को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवों द्वारा समवशरणकी रचना की गई । व इन्द्रादि देवोंने केवलज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया । (९) आपकी सभा में इस भांति चतुर्संघ था Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १० ४३ गणधर ९०० पूर्व ज्ञानधारी ४०७०० शिक्षक मुनि ३६०० अवधिज्ञानधारी ४५०० केवली ७००० विक्रियारिद्धिके धारी ७००० मन:पर्यय ज्ञानी २८०० वादी मुनि. ६६५४३) ६२४०० सुवृता आदि आर्थिका २००००० श्रावक ४००००० श्राविका (११) आयुमें एक मास बाकी रहने तक आपने आर्यखंड में विहार किया। फिर सम्मेद शिखरपर पधारे । शेष एक माहमे बच्चे हुए चार कर्मों का नाश कर मिती ज्येष्ठ सुदी चौथके दिन भाठसो नो मुनियों सहित मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने निर्वाण कल्याणकका उत्सव मनाया । पाठ ६. प्रतिनारायण - मधुक्रीड़-नारायण पुरुषसिंह, बलदेव - सुदर्शन | ( पांचवें प्रति नारायण, नारायण और बलभद्र ) (१) भगवान् धर्मनाथके समय में प्रतिनारायण मधु कैटभनारायण पुरुषसिंह और बलदेव सुदर्शन हुए थे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ११ (२) बलदेव सुदर्शन और नारायण पुरुषसिंह खगपुरके राजा सिंहसेनके पुत्र थे । बलदेवकी माताका नाम विजया देवी और नारायणकी माताका नाम अंबिका देवी था । आपका वंश इक्ष्वाकु था । (३) प्रति नारायण मधुक्रीड़ या मधुकैटभ (दोनों नाम थे) हस्तिनागपुर ( कुरुजांगल देश ) का राजा था । इसने तीन खंड पृथ्वी विजयार्द्ध पर्वतकी इस ओर तक - दाहिनी बाजू तक वश की थी और सम्पूर्ण राजाओं को आधीन किया था व चक्र रत्न प्राप्त किया था । ( ४ ) नारायण पुरुषसिंह सप्त रत्न आदि संपत्ति के स्वामी हुए थे और बलभद्रको चार रत्न प्राप्त थे । इनकी संपत्तिका वर्णन परिशिष्ट 'क' में दिया गया है । (५) नारायणकी सोलह हजार रानियाँ थीं और प्रति नारायणकी आठ हजार । (६) मधुकैटभ (प्र० ना० ) ने पुरुषसिंह ( नारायण ) और सुदर्शन (बलभद्र) के वैभव व बल पराक्रमके हाल सुन कर दूत भेजा और कर व भेंट मांगी जिसे देनेसे नारायण बलभद्रने इनकार किया । तब दोनोंका परस्पर युद्ध हुआ । जिसमें नारायण पुरुष - सिंहने विजय प्राप्त की । नारायणको मारनेके लिये मधुकैटभ ने जो चक्र चलाया था वह नारायणकी प्रदक्षिणा दे उनके हाथमें जाकर ठहर गया फिर उसी चक्रक्रे नारायण द्वारा चलाने से प्रतिनारायण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . दूसरा भाग। की मृत्यु हुई और वह नरक गया । नारायणकी आयु दश लाख वर्षकी थी और शरीर पेंतालीस धनुष ऊँचा था । (७) लाखों वर्षों तक राज्य कर अंतमें नारायण-पुरुषसिंह भी नर्क गया । भाईकी मृत्युसे बलभद्रने बहुत शोक किया था । अंतमें श्री धर्मनाथ तीर्थकरके समीप दिक्षा ली और मुक्ति गये। पाठ ७। चक्रवर्ति मघवा । ( तृतीय चक्रवर्ति ) तीसरे चक्रवर्ति मघवा अयोध्याके राजा सुमित्र और रानी सुभद्राके पुत्र थे। आपका वंश इक्ष्वाकु था । आयु पांच लाख वर्षकी और शरीरकी ऊंचाई एक सो सत्तर हाथ थी। इनको चक्ररत्न आदि सात निर्जीव और सात सनीव रत्न प्राप्त हुए थे । नवनिधियां थीं, इनकी पूर्ण संपत्तिका वर्णन परिशिष्ट 'ख' में दिया गया है । इन्होंने छह खण्ड पृथ्वी विजय की। बत्तीस हजार राजाओंके ये स्वामी थे । छनवे हजार रानियाँ थीं। लाखों वर्ष राज्यकर अन्तमें अभयघोष जिनके समीप दिक्षाधारण की और तपकर मोक्ष गये । आपके पुत्रका नाम प्रियमित्र था । यही प्रियमित्र चक्रवर्ति मधवाका उत्तराधिकारी हुआ । मधवा चक्रवर्ति भगवान् धर्मनाथके तीर्थकालमें हुए थे। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १३. पाठ ८ । सनत्कुमार | ( चौथे चक्रवर्ति ) मघवा चक्रवर्तिके (१) भगवान् धर्मनाथके ही तीर्थकालमें बाद सनत्कुमार चौथे चक्रवर्ति हुए थे । ये अयोध्या के राजा सूर्यवंशी अनंतवीर्य और रानी सहदेवीके पुत्र थे । ये बड़े भारी रूपवान थे । इनके रूपकी प्रशंसा स्वर्ग में इन्द्रादिदेव किया करते थे | साड़े इकतालीस धनुष ऊंचा शरीर था और आयु तीन लाख वर्षकी थी। चौदह रत्न, नव निधियां आदि सम्पति जो कि प्रत्येक चक्रवर्तिको प्राप्त होती है प्राप्त हुई थी । ( देखो परिशिष्ठ 'ख' ) छठ खण्डको इन्होंने विजय किया । बत्तीस हजार राजा इनके आधीन थे । छनवे हजार रानियां थीं कि एक दिन इन्द्रसे 1 आये और छिपकर संतोष हुआ । फिर (२) इनका रूप इतना सुंदर था स्वर्ग में इनके रूपकी प्रशंसा सुन दो देव रूप देखने लगे । उस रूपसे देवोंको बड़ा प्रगट होकर चक्रवर्तिसे अपने आनेका हाल निवेदन किया । (२) एक दिन चक्रवर्तिको संसारकी अनित्यताका ध्यान हुआ तब अपने पुत्र देवकुमारको राज्य दे शिवगुप्त जिनके समीप बहुतसे राजाओं सहित दिक्षा धारण की। (३) तप करते समय इनके शरीर में कुष्ट आदि अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हुए जिनसे शरीर की सुंदरता नष्ट हो गई । तब परीक्षार्थ देवोंने वैद्यका रूप धारण किया और इनके समीप आये । देवोंमें और इनमें इस भांति बातचीत हुई Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। देव ( वैद्य रूपमें)-स्वामिन् ! मैं बड़ा प्रसिद्ध वैद्य हूं। आपके शरीरमें रोगोंका समूह देख कर मुझे दुःख होता है, आज्ञा दीजिये कि मैं इन्हें दूर करूं । सनत्कुमार (मुनीश-पहिलेके चक्रवर्ती)-वैद्यवर, इन शारीरिक रोगोंसे मेरी कुछ भी हानि नहीं होती । किंतु जन्म मृत्युके जो रोग हैं वे बहुत दुःख दे रहे हैं, यदि आपमें शक्ति हो तो उन रोगोंको दूर करिये। ____ यह उत्तर सुनकर देव चुप हो गया और फिर प्रगट हो कर स्तुति की । * (४) अंतमें इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । और मोक्ष पधारे। नोट-पद्मपुराणमें सनत्कुमार चक्रवर्तिको नागपुरके राना 'लिखे हैं और उनका नाम विनय लिखा है । और सनत्कुमारके वैराग्य धारण करनेके संबंधमें लिखा है कि जब स्वर्गसे देव रूप देखने आये तब सनत्कुमार व्यायाम करके उटे ही थे उनके शरीर पर अखाड़ेकी रन लगी हुई थी जिस पर भी इनका रूप देवोंको बहुत सुंदर लगा । फिर जब ये स्नानादि कर राज सभामें बैठे तब देव प्रगट रूपसे देखने आये उस समय देवोंने कहा कि पहिले देखे हुए रूपसे इसमें न्यूनता है यह सुन कर सनत्कुमारको वैराग्य हुआ। ___ * यह कथा व रोग होने का वर्णन संस्कृतके मूल उत्तर पुराणमें नहीं है। यहां सुशीलचन्द्रजीके अनुवादसे ली गई है । पर यह कथा जैन समाजमें भी प्रसिद्ध है । पद्मपुगणकारने भी रोग होना माना है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । पाट ९। भगवान् शांतिनाथ । ( सोलहवें तीर्थंकर और पांचवें चक्रवर्ति ) (१) भगवान् धर्मनाथके पौन पल्य कम तीन सागर बाद भगवान शांतिनाथ हुए। धर्मनाथ स्वामीके तोर्थकालके अंतिम पाव पल्य तक धर्म मार्ग बंद रहा जिसे शांतिनाथ स्वामीने चलाया। (२) भगवानके पिताका विश्वसेन और माताका नाम एरादेवी था। ये हस्तिनापुरके राजा और काश्यप वंशके थे। (३) भगवान् शांतिनाथ भादों सुदी सप्तको गर्भमें आये । माताने सोलह स्वप्न देखे । गर्भमें आनेके छहमास पहिलेसे जन्म होने तक देवोंने रत्नवर्षा की । और गर्भमें आनेपर गर्भ कल्याणक उत्सव मनाया । माताकी सेवामें देविया रखी गई थीं। (४) भगवान् शांतिनाथका जन्म ज्येष्ठ वदी चौदसको हुआ। इन्द्रादि देव भगवान्को सुमेरु पर ले गये और जन्म कल्याणक उत्सव मनाया। जन्मसे आप भी मतिज्ञानादि तीन ज्ञानयुक्त थे। (५) आपकी आयु एक लाख वर्षकी थी और शरीर चालीस धनुष ऊंचा था । वर्ण सुवर्णके समान था। (६) भगवान् शांतिनाथकी दूसरी माता (विमाता)के गर्भसे चक्रायुद्ध नामक पुत्रका जन्म हुआ यह आपका छोटा भाई था। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . दूसरा भाग। (७) मगवान्का कुमार काल बत्तीस हजार वर्षका था। उसके पूर्ण होनेपर आप पिताके राज्यासन पर बैठे । (८) भगवान् शांतिनाथ पांचवें चक्रवर्ति हुए थे। इसलिये भरत आदि चक्रवर्तियोंको जो चौदह रत्न, नवनिधि, छह खंड पृथ्वीकी मालिकी आदि संपत्ति प्राप्त हुई थी वह इनको भी हुई । आपकी भी छनवे हजार रानिया थीं। (९) पचवीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ति महाराजाधिराजकी अवस्थामें रहकर भगवान् एक दिन काँच ( दर्पण ) में अपने दो मुँह देखकर चकित हुए और अपने पूर्व भवके वृत्तांत जान संसारको अनित्य समझ वैराग्यका चितवन करने लगे। तब लौकांतिक देवोंने आपके विचारोंकी स्तुति व प्रशंसा की । फिर अपने पुत्र नारायणको राज्य देकर सहस्त्राम्न वनमें आपने दिक्षा धारण की । इस समय इन्द्रादि देवोंने गर्भ कल्याणकका उत्सव मनाया था । भगवान्का दिक्षा दिन ज्येष्ठ वदी चौथ था। तप धारण करते समय भगवान्को चोथे मनःपर्यय ज्ञानकी प्राप्ति हुई । भगवान्के साथ चक्रायुध आदि एक हजार राजाओंने भी दिक्षा ली थी। (१०) पहिले ही पहिल दो दिनका उपवास धारण कर उसके पूर्ण होनेपर मंदिरपुरमें राजा सुमित्रके यहाँ आहार लिया। इसपर देवोंने राजाके आँगनमें पंचाश्चर्य किये । (११) आठ वर्ष तक तप कर पौष सुदी दशमीको भगवानके केवलज्ञानी हुए । तब इन्द्रादि देवोंने समवशरण सभा बनाई व ज्ञान कल्याणक उत्सव किया । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १७ (१२) भगवान्का चतुर्विध संघ इस भांति था । ३६ चक्रायुध आदि गणधर ८०० पूर्वज्ञानके धारी ४ १८०० शिक्षक मुनि ३००० अवधिज्ञानी ४००० केवलज्ञानी ६००० विक्रियारिदिके धारी ४००० मनःपर्ययज्ञानी २४०० वादी मुनि ६२०३६ ६०३०. हरिषेमा आदि आर्थिका २००००० हरिकीर्ति आदि श्रावक ४००००० अर्हदासी आदि श्रावका । (१३) आयुके एक मास बाकी रहने तक आपने आर्यखंडमें विहार किया । बाद सम्मेदशिखर पर पधार कर एक मासमें शेष कर्मोका नाश कर ज्येष्ठ वदी चतुर्दशीको मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने निर्वाण कल्याणकका उत्सव किया । १-मुनि, भायिका, श्रावक, श्राविका इन चारोंका संघ (समूह) चतुर्विध संघ कहलाता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। पाठ १०. भगवान कुंथुनाथ। (सत्रहवें तीर्थकर और छठवें चक्रवर्ति ) (१) भगवान् शांतिनाथके मोक्ष जानेके आधे पत्य बाद भगवान कुंथुनाथ हुए थे। (२). हस्तनागपुरके कुरुवंशी राजा सुरसेनकी रानी कांताके गर्भ में भगवान् कुंथुनाथ श्रावण वदि दशमीको आये । माताने सोलह स्वप्न देखे । गर्भमें आने पर इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणक उत्सव मनाया ! देवियां माताकी सेवामें रखी गईं । आपके गर्भ में आनेके छह मास पूर्वसे जन्म होने तक स्वर्गसे रत्न वर्षा होती थी। (३) भगवान्का जन्म वैशाख सुदी प्रतिपदाको हुआ । आप भी तीन ज्ञान सहित उत्पन्न हुए थे । इन्द्रादिकोंने मेरु पर्वत पर लेजाना, अभिषेक व स्तुत करना आदि जन्म कल्याणक उत्सव किया। (४) आपके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव और पहिरने आदिको वस्त्राभूषण आते थे। (५) आपकी आयु पंचानवे हजार वर्षकी थी । और शरीर तीस धनुष ऊंचा था। (६) आपने तेवीस हजार सातसो पचास वर्ष तक कुमार अवस्थामें रह कर राज्य प्राप्त किया। (७) आप इस युगके छठवें चक्रवर्ति हुए हैं । आपको भी चक्र रत्न आदि चौदह रत्न, नवनिधि, छह खंड पृथ्वीकी मालिकी आदि संपत्ति भरत आदि चक्रवर्तिके समान प्राप्त हुई थी। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचीन जैन इतिहास। १९ (८) एक दिन वनमें क्रोड़ाके लिये आप गये थे, वहांसे लोटते समय आपने एक मुनि देखे जिन्हें देखकर आपको वैराग्य हुआ । लौकांतिक देवोंने आकर आपकी स्तुति की। फिर पुत्रको राज्य देकर चक्रवर्ति भगवान् . कुंथुनाथने एक हजार राजाओं सहित वैशाख सुदी एकमके दिन दीक्षा धारण की । आपके मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुआ । इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणकका उत्सव मनाया । (९) दो दिन उपवास कर हस्तिनागपुरके राजा धर्ममित्रके यहां आपने आहार लिया । देवोंने रानाके यहां पंचाश्चर्य किये । (१०) सोलह वर्ष तक तप कर चैत्र सुदी तीनको भगवान् केवलज्ञानी हुए । इन्द्रादि देवोंने समवशरणकी रचना आदिसे ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया। (११) भगवान्की सभामें इस भांति चतुर्विध संघ था । ३९ स्वयंभू आदि गणधर ७०० पूर्व ज्ञानधारी ४३१५० शिक्षक मुनि २५०० अवधि ज्ञानी ३२०० केवल ज्ञानी। ५१०० विक्रिया धारी ३३०० मनःपर्यय ज्ञानधारी २०५० वादी मुनि ६००३५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दूसरा भाग। - ६०३५० भाविता आदि आर्यिका २००००० श्रावक ३००००० श्राविकायें (१२) आयुके एक मास शेष रहने तक आपने आर्य खंडमें विहार किया फिर सम्मेद शिखर पधारे । वहां दिव्य ध्वनि होना बंद हुआ और शेष कर्मोका एक माहमें नाश कर वैशाख सुदी प्रतिपदाको आप मोक्ष पधारे। इन्द्रादि देवोंने आकर निर्वाणा, कल्याणकका उत्सव किया। पाठ ११. भगवान् अरहनाथ । (बदारहवें तीर्थकर और सातवें चक्रवर्ति ) (१) भगवान् अरहनाथ तीर्थकर कुंथुनाथस्वामीके मोक्ष जानेके दश भरव वर्ष कम सवा पल्य बाद मोक्ष गये । भगवान् कुंथुनाथके शासनके अंत समयमें धर्म मार्ग बंद रहा। (२) भगवान् अरहनाथ सोमवंश काश्यपगोत्री हस्तिनापुरके राजा मुदर्शनकी महारानी मित्रसेनाके गर्भ में फाल्गुण सुदी तृतीयाको आये । आपके गर्भ में आनेके छह मास पहिलेसे जन्म होने तक पंद्रह मास स्वर्गसे रत्नोंकी वर्षा हुई। माताकी सेवाके लिये देवीया रखी गई । देवोंने गर्भकल्याणक उत्सव मनाया। मानाने पूर्व तीर्थकरोंकी माताओंके समान सोलह स्वम देखे । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। २१ (३) भगवान् अरहनाथका जन्म मार्गशीर्ष सुदी चतुर्दशीको तीन ज्ञान सहित हुआ । इन्द्रादि देवोंने मेरु पर भगवानका अभिषेक करना आदि अनेक उत्सवों द्वारा जन्मकल्याणकका उत्सव मनाया। (४) भगवान के साथ खेलनेको देवगण स्वर्गसे आते थे । और स्वर्गसे ही वस्त्राभूषण आया करते थे। (५) इनकी आयु चौरासी हजार वर्षकी थी और तीस धनुष ऊँचा शरीर था । आपका वर्ण सुवर्णके समान था । (६) इकवीस हजार वर्ष तक आपका कुमारकाल था और इकवीस हजार वर्ष तक आपने मंडलेश्वर महाराज होकर राज्य किया । फिर आप छह खंड, चौदह रत्न, नवनिधिके स्वामी होकर चक्रवर्ति महाराजाधिराज हुए। और एकवीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ति होकर राज्य किया। आपकी संपत्ति भरत आदि चक्रवर्तिके समान थी, आपकी छनंवे हमार रानियाँ थीं। (७) एक दिन शरदऋतु बादलोंके देखते देखते आपको वैराग्य हुआ। लौकान्तिक देवोंने आकर स्तुति की। फिर अपने पुत्र बिंदुकुमारको राज्य देकर आपने दीक्षा धारण की । आपके साथ एक हनार राजाओंने दीक्षा ली थी। दीक्षा दिन मार्गशीर्ष सुदी दशमी थी। दीक्षा समय आपको चतुर्थ मनःपर्यय ज्ञानकी उत्पत्ति हुई। ___(८) एक दिन उपवास कर दूसरे दिन आपने चक्रपुरके राजा अपराजितके यहाँ आहार लिया। देवोंने राजाके घर पंचाश्चर्य किये । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दुसरा भाग । (९) सोलह वर्ष तक तप करने पर मिती कार्तिक सुदी बारस के दिन भगवान् के चार घातिया कर्मोंका नाश हुआ । और केवलज्ञान प्रगट हुआ । तब इन्द्रादि देवोंने ज्ञान कल्याणका उत्सव मनाया । (१०) भगवान् की सभा में इस भांति चतुर्विध संघ था । ३० कुंभार्य्य आदि गणधर ६१० पूर्वाग ज्ञानके धारी ३५८३५ शिक्षक मुनि २८०० अवधिज्ञानी २८०० केवलज्ञानी ४३०० विक्रिया रिद्धिधारी २०५५ मन:पर्यय ज्ञानी १६०० वादी ५००३० ६०००० यक्षिला आदि आर्यिकायें १६०००० श्रावक ३००००० श्राविका (११) आयुमें एक मास शेष रहने तक आपने समस्त ! आर्यखंडमें विहार किया । और जब आयु एक मासकी रह गई तब आप सम्मेदशिखर पधारे । दिव्यध्वनि होना बंद हुई । इस एक मासमें भगवान् शेष कर्मोंको नाश कर चैत्र वदी अमाबसको मोक्ष • पधारे । इन्द्रादि देवोंने आकर निर्वाण कल्याणकका उत्सव मनाया। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । पाठ १२. अरहनाथ स्वामीके समय के अन्य प्रसिद्ध पुरुष । (१) भगवान् अरहनाथके कालमें चक्रवर्ति, नारायण, वलदेव आदिके सिवाय जो प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं उनमें से कुछ पुरुषोंकी जीवन घटना इतिहास में मिलती है शेषकी नहीं । इन पुरुषोंका नाम इस भांति हैं- सहस्रबाहु, पारताख्य, कृतवीर्य, जमदग्नि, परशुराम स्वेतराम । २३ (२) सहस्रबाहु अयोध्याका राजा था । और पारताख्य कान्यकुब्जका राजा था । यह सहस्रबाहुका ससुर था, इसने अपनी पुत्री चित्रमती सहस्रबाहुको दी थी । (३) जमदग्नि पारताख्यका मानेज श्रीमतीका पुत्र था । श्रीमती मर जानेके कारण पारताख्य तापसी होगया था । (४) कृतवीर्य सहस्रबाहु का पुत्र था । (५) एक वार स्वर्ग में पूर्व जन्मके दो मित्र उत्पन्न हुए । इन दोनोंके पूर्व जन्म के नाम दृढ़ग्राही और हरिशर्मा था । दृढ़ग्राही क्षत्रिय राजा था और हरिशर्मा ब्राह्मण था । राजा दृढ़ग्राहीने जैन साधुओं की दीक्षा ली थी। और हरिशर्मा तापशी हुआ था। दोनों मरकर स्वर्गमें उत्पन्न हुए । दृढ़ग्राही राना मर कर सौधर्म देव हुआ और हरिशर्मा ज्योतिषी देव | स्वर्ग में ग्राही राजा जीव सौधर्मने हरिशर्माके जीव ज्योतिषी देवसे कहा कि देखो हम जिन दीक्षाके प्रतापसे उच्च श्रेणीके देव हुए और तुम तापस हुए जिसके कारण निम्न श्रेणीका देव होना पड़ा । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दूसरा भाग । तब वह कहने लगा कि तापसी साधु होना कम फल देनेवाला क्यों है ? ऐसी तापसियोंके तपमें क्या अशुद्धता है ? तब सौधर्म देवने कहा कि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तुम्हे मैं पृथ्वीपर बतलाऊंगा ऐसा कहकर दोनोंने चकवाचकवीका रूप धारण किया । और ऊपर जिस जमदाग्नि तापसीका वर्णन दिया गया है उसके समीप आकर परस्पर बातें करने लगे । चकबाने कहा कि चकवी तुम यहाँ ठहरना, मैं अभी आता हूँ । इस पर चकवीने शपथ खानेका to किया । और कहा कि तुम शपथ लो कि यदि मैं न आऊँ तो " जमदग्निके समान तापसी होऊँ " चकबाने यह शपथ अस्वीकार की इस पर जमदग्नि क्रोधित होकर कहने लगा कि तू मुझ समान तपस्वी होना क्यों नहीं चाहता, तब चकवाने कहा कि महाराज ! शास्त्रोंका वचन है कि ' अपुत्रस्य गति नास्ति " अर्थात् जिसके पुत्र न हो उसकी गति नहीं होती और आपके समान तापसी होनेसे पुत्र नहीं हो सकता अतएव मैंने आप समान होने की इच्छा नहीं की तब जमदग्नि भी पुत्रके लोभसे विवाह करने को तैयार हुआ और अपने मामा पारताख्वके पास जाकर कन्या मांगी। मामाने कहा कि मेरी सौ पुत्रियोंमेंसे जो तुझे चाहे उसे मैं तेरे साथ विवाह कर दूंगा । जमदग्नि पुत्रियों के पास गया पर जो समझदार और बड़ी थीं उन्होने तो इसे नहीं चाहा । एक बालिका रेती में खेल रही थी उसे केलाका फल दिखाया और कहा कि तू मुझे चाहती है तब उसने स्वीकार किया । फिर उसीके साथ पारताख्यने विवाह कर दिया । जमदग्निने उसका नाम रेणुमती रखा । इस रेणुमतीके दो पुत्र हुए । परशुराम और श्वेतराम । ये Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । २५ दोनों बड़े बलवान् थे । जमदग्निके इस प्रकार विवाह पर उतारू हो जानेसे सौधर्मने तापसियोंके तपकी अशुद्धता अपने मित्रको बतलाई कि इन तापसियोंका मन कितना अस्थिर रहता है । जमदग्निने इस प्रकारके तापसियोंके विवाहको प्रवृत्ति धर्म कहकर प्रख्यात किया । (६) जमदग्निकी स्त्री रेणुमतीके बड़े भाई अरिंजय मुनि एक वार रेणुमतीके यहां आये और उसे सम्यक्त अंगीकार कराया और सर्व इच्छित फल देनेवाली एक धेनु (गौ) और एक फरसा (शस्त्र विशेष) रेणुमतीको दिया । ____(७) राजा सहस्रबाहु और उसके पुत्र कृतवीर्य एक वार जमदग्निके यहां आये और उस धेनुसे प्राप्त पदार्थोका भोजन किया । तब कृतवीर्यने उस धेनुको मांगा । पर रेणुमती देनेको तैयार नहीं हुई । तब कृतवीर्य बलपूर्वक उसे छुड़ाकर ले गया । और जमदग्निको मार डाला। (८) जमदग्निके-पुत्र परशुराम और स्वेतरामने घर आनेपर जब पिताके मारनेके समाचार सुने तो क्रोधित होकर वे दौड़ कर गये और मार्ग में ही सहस्रबाहु और उसके पुत्र कृतवीर्यको मारा । और फिर इकवीस वार पृथ्वी परसे क्षत्रियोंको निःशेष किया । (९) इसी परशुरामके भयसे सहस्रबाहुकी गर्भवती रानी चित्रमतीको उसके बड़े भाई सांडिल्यने वनमें रखा जिसके गर्भसे चक्रवर्ति सुमौम उत्पन्न हुए। (१०) एक वार निमित्त ज्ञानीके यह कहने पर कि तुम्हारा शत्रु उत्पन्न हो गया है और उसकी परीक्षा यह है कि जिसके आगे तुम्हारे मारे हुए राजाके दांत भोजनके पदार्थ हो जावे वही Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। तुम्हारा शत्रु होगा । इस पर परशुरामने सबका निमंत्रण किया । उसमें सुभौम भी आये । भोमनशालाके अधिकारीने क्रमशः दांत बतलाना शुरू किये । सुभौमके पास आते ही वे दांत सुगंधित चावल हो गये । बस सुभौम शत्रु समझा गया । उसे परशुरामने पकड़वाना चाहा पर निष्फल हुआ । फिर दोनोंका युद्ध हुवा । इसी युद्ध में सुभौमको चक्ररत्न और राजरत्नकी प्राप्ति हुई । चक्ररत्नसे सुभौमने परशुरामको मारा । ___ नोट:-हरिवंश पुराणकारने लिखा है कि परशुरामने ७ वार क्षत्रियों को मारा था। पाठ १३. चक्रवर्ति सुभौम । ( आठवें चक्रवर्ति) (१) आठवें चक्रवर्ति महाराजाधिराज सुभौम भगवान् अरहनाथके मोक्ष जानेके दो अरव बत्तीस वर्ष बाद उत्पन्न हुए थे। __ (२) चक्रवर्ति सुभौम इक्ष्वाकु वंशी अयोध्याके राजा सहस्रबाहुके पुत्र थे । जिस समय इनका जन्म हुआ था उस समयके पहिले ही इनके पिता व भ्राता परशुरामके हाथों मारे जा . चुके थे। . (३) जिस समय चक्रवर्ति गर्भ में थे उस समय चक्रवर्तिकी माता (गर्भवती) चित्रमतिको उसका तापसी बड़ा भाई सांडिल्य १-२ सहस्रबाहु और परशरामका वर्णन गत पाठमें दिया गया है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। २७ परशुरामके भयसे अपने साथ ले गया और बनमें सुसिद्धार्थ नामक जैन मुनिसे सब समाचार कहे व रानी चित्रमतीको बिठलाकर मुनिसे यह कहकर कि मैं अपने आश्रमको देखकर अभी आता हूं क्योंकि वह सूना है और आकर इसे ले जाऊँगा चला गया । कुछ समय बाद रानी चित्रमतीने गर्भ प्रसव किया और उससे चक्रवर्ति सुभौम उत्पन्न हुए। (४) जिस वनमें चक्रवर्ति उत्पन्न हुए थे वहांके वन देवताने इन्हें भरतक्षेत्रके भावी चक्रवर्ति समझ इनकी व माता चित्र. मतीकी उचित सेवा की । और उसकी संरक्षामें बालक सुभौम बढ़ने लगे। (५) एकवार चित्रमतीके पूछने पर मुनि सुसिद्धार्थने कहा था कि यह बालक सोलहवें वर्षमें चक्रवर्ति होगा। __ (६) कुछ समय बाद सांडिल्य अपनी बहिन और भानेनको अपने स्थान पर ले गया और पृथ्वीको स्पर्श करते हुए जन्म होनेके कारण बालकका नाम सुभौम रखा। (७) परशुरामने एकबार अपने शत्रुको जाननेकी परीक्षाके लिये सबका निमंत्रण किया उसमें सुभौम भी गये थे । भोजन करते समय परशुराम द्वारा मारे हुए रानाओंके दांत सबको दिखलाये । वे दांत सुभौमको दिखलाते ही सुगंधित चावल हो गये। बस शत्रु पकड़ लिया गया । अर्थात् सुभौम शत्रु माना गया । परशुगमने इसे बुलाया पर यह नहीं गया । तब दोनोंका युद्ध हुआ । जब सुभौम नीता नहीं जा सका तब परशुरामने अपना मदोन्मत्त हाथी सुभौम पर छोड़ा वह हाथी सुभौमके वश हुआ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दूसरा भाग। और चक्रवर्तिके सात सजीव रत्नोंमेंसे गजरत्न बना उसी समय सुभौमको हजार देवोंद्वारा रक्षिता चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई उसके द्वारा सुभौमने परशुरामको मारा । (८) परशुरामको जीतनेके बाद नव निधिया और बाँकीके बारह रत्न उत्पन्न हुए । सुभौमने छह खंड पृथ्वीकी विजय की और भरत आदि चक्रवर्तिके समान संपत्तिका स्वामी हुआ । चक्रवर्ति सुभौमकी छनवे रानियाँ थीं। (९) एक दिन चक्रवर्तिके अमृतरसायन नामक रसोइयाने कुछ पदार्थ बड़े हर्षके साथ चक्रवर्तिको परोसा । चक्रवर्ति, उस नये पदार्थको न खाकर केवल उस पदार्थके नाम मात्र सुनते ही क्रोधित हुआ और रसोइयाके शत्रुओंके बहकाने में आकर उसे दंड दिया । रसोइया क्रोधित होकर मरा और कुछ पूर्व पुण्यके उदयसे ज्योतिषी देव हुआ । वहाँ विभंगी अवधिज्ञानसे चक्रवर्ति द्वारा प्राप्त दंडका स्मर्ण कर चक्रवर्तिको मारनेके लिये व्यापारी बनकर आया और स्वादिष्ट फल चक्रवर्तिको खिलाये । जब वे फल न रहे तव चक्रवर्तिने उससे फिर मांगे। व्यापारी रूपधारी देव कहने लगा कि वे फल अब तो मैं नहीं ला सकता क्योंकि वे तो अमुक देवताने बड़े आराधनसे प्राप्त किये थे, यदि आपकी इच्छा है तो इन फलोंके वनमें चलो वहाँ आप इच्छानुसार भक्षण कर सकेंगे। जिव्हालंपटी सुभौम उस ठग व्यापारीके साथ मंत्रियोंके रोकनेपर थी गया । इधर पुण्यक्षीण हो जानेके कारण चक्रवर्तिके घरसे चौदह रत्न और नौनिधिया नष्ट हो गईं। उधर चक्रवर्तिका जिहाज जब बीच समुद्रमें पहुंचा तब व्यापारी वेशधारी देवने Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। २९ रसोईयाका रूप धारण कर अपना वैर प्रगट किया और उसका बदला चुकानेके लिये चक्रवर्तिके जिहाजको समुद्रमें डुबा दिया । चक्रवर्तिका अंत हुआ और वह मर कर नरक गया । (१०) चक्रवर्ति सुभौमकी आयु साठ हजार वर्षकी थी और शरीर सुवर्णके रंगके समान था व शरीरकी ऊंचाई अठावीस धनुषकी थी। (नोट) पद्मपुराणकारने सुभूमिके पिताका नाम कार्तिवीर्य और माताका नाम तारा लिखा है । व लिखा है कि सुभौम अतिथि बनकर परशुरामके यहां भोजनको गया तब परशुरामने दात पात्रमें रख बताये सो दात चावल होगये और पात्र चक्र हुआ । इस चक्रसे सुपौमने परशुरामको मारा । और पृथ्वीको ब्राह्मणवर्णसे निःशेष की । हरिवंशपुराणमें भी सुभौम चक्रवर्तिके पिताका नाम कार्तिवीर्य और माताका नाम तारा लिखा है । और तापसीका नाम कौशिक है । हरिवंश पुराणमें यह उल्लेख नहीं है कि वह तापस सुभौमकी माताका भाई था । और न सिद्धार्थ मुनिका ही कुछ उल्लेख है। महापुराणकारने बन देवताकी संरक्षणतामें इनका पालन होना लिखा है पर हरिवंशपुराणमें लिखा है कि ये कौशिक नामा तापसीके माश्रममें ही गुप्तरीतिसे पले थे । हरिवंशपुराणकारने भी इन्हें परशुरामके यहां निमंत्रित होकर जानेका कोई उल्लेख नहीं किया है किंतु यह लिखा है कि इनके भावी श्वसुर अरिजयपुरके विद्याधर राजा मेघनाथको निमित्तज्ञानी और केवलीकेद्वारा जब यह विदित हुआ कि उसकी पुत्री पद्मश्री चक्रवर्ति सुभौमकी पट्टरानी होगी और Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दूसरा भाग, सुभौमके जन्मादिका उसे पता मिला तब वह स्वयं हस्तिनापुरमें तापसके आश्रममें आया और सुभौमको शस्त्र शीलनमें निपुण जानकर जो कुछ के वलीके द्वारा जाना था सो सब कहा तब मेघनाथके साथ सुभौम परशुरामके यहां गया वहां इसे भोजनशालाके आर्यकारी जब भोजन कराने लगे तब क्षत्रियोंके दांत खोरके समान हो गये। बस शत्रुके आनेके समाचार परशुरामको भेजे गये और परशुराम फरसा लेकर मारने आये । इधर जिस थालीमें चक्रवर्ति भोजन कर रहे थे वह थाली चक्रके समान होगई और उसके द्वारा सुभौमने परशुरामको मारा । और इकवीसवार ब्राह्मणों को मारा । हरिवंशपुराणमें गजरत्नकी व सुभौमके मरनेकी उक्त कथाका उल्लेख नहीं पाया जाता। पाठ १४. प्रतिनारायण-निशुंभ, बलदेव नंदिषेण, नारायण पुंडरीक। (छठवें प्रतिनारायण, बलदेव और नारायण ) (१) नारायण पुंडरीक और बलदेव नंदिषेण तुभौम चक्रवर्तिके छह अर्व वर्ष बाद उत्पन्न हुए । . (२) नारायण और बलदेब इक्ष्वाकुवंशी चक्रपुरके महाराज वरसेनके पुत्र थे । बलदेवकी माताका नाम वैजयंती था और नारायणकी माताका नाम लक्ष्मीवती था। (३) नारायणकी आयु साठ हजार वर्षकी थी और शरीर अट्ठावीस धनुषका था । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। ३१ (४) इन्द्रपुरके राना उपेन्द्रसेनने अपनी कन्या पद्मावतीका विवाह नारायण पुंडरीकके साथ किया था । (५) प्रतिनारायण-निशुंभने तीन खंड पृथ्वी वश की थी। यह पुंडरीक और पद्मावतीके विवाहसे असंतुष्ट हुआ और नारायण बलदेवसे लड़नेको आया। (६) युद्ध में जब निशुंभने पार नहिं पाया तब नारायण पर चक्र चलाया, वह भी नारायणके दाहिने हाथमें ठहर गया फिर नारायणके चलाने पर उसी चक्रसे निशुंभ मारा गया और मरकर नरक गया। (७) नारायण पुंडरीक तीन खंडके स्वामी हुए। और अर्द्ध चक्री कहलाये । ये सोलह हजार रानियोंके स्वामी थे। तीन खंड पृथ्वीके अधिपति हुए । इनके यहां सात रत्न उत्पन्न हुए थे। इनके बड़े भाई बलदेवको चार रत्न प्राप्त थे । (८) नारायण अपनी आयु भोगविलाप्तोंमें ही व्यतीत कर नरक गये और बलदेव-नंदिषेणने दिक्षा ली और तप कर आठों कर्मोंका नाश किया और मोक्ष पधारे। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पाठ १५. भगवान् मल्लिनाथ । ( उगनीसवें तीर्थंकर) दूसरा भाग । (१) भगवान् मल्लिनाथ अठारहवें तीर्थकर अरहनाथके मोक्ष जानेके दस अर्ब वर्ष बाद मोक्ष गये । (२) भगवान् मल्लिनाथ बंग प्रान्तके मिथिलापुरके इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री महाराज कुंभकी महारानी पद्मावती के गर्भ से मिती चैत्र सुदी प्रतिपदाको गर्भमें आये । आपके गर्भ में आनेके छह मास पहिलेसे और जन्म होने तक इन्द्रोंने पिता के घर पर रत्न वर्षा की थीं। देवियों माताकी सेवामें रही थी । माताने सोलह स्वप्न देखे थे । इन्द्रादि देवोंने गर्भ कल्याणकका उत्सव मनाया था। (३) मार्गशीर्ष सुदी ग्यारस के दिन आपका जन्म हुआ । जन्मसे ही आप तीन ज्ञान धारी थे । इन्द्रादि देवोंने जन्म कल्याथकका उत्सव मनाया । (४) आपके लिये स्वर्ग से वस्त्राभूषण आते और वहींके देवगण साथमें क्रीड़ा करनेको आते थे । (२) आपकी आयु पचपन हजार वर्षकी थी और शरीर पचीस धनुष ऊँचा था । आपके शरीरका वर्ण सुवर्णके समान था । (६) आप सो वर्ष तक कुमार अवस्था में रहे । जब आपके विवाह की तैयारी की गई और नगर सजाया गया तब आपने इसे आडंबर और साधारण पुरुषोंका कार्य समझ बैराग्यका चितवन किया । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम।. ३३ ___ (७) वैराग्य होते ही लोकांतिक देवोंने आकर स्तुति की। फिर आपने श्वेत नामक वनमें तीनसों रानाओं सहित मार्गशीर्ष सुदी ग्यारसके दिन दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणकका उत्सव मनाया । इसी समय भगवान् मनःपर्यय ज्ञानके धारी हुए । (८) दो दिन उपवास कर मिथिलापुरमें नंदिषेण रानाके यहां आहार लिया तब देवोंने रानाके आगनमें पंचाश्चर्य किये। (९) मगवान् मल्लिनाथने छह दिनमें ही तपकर कर्मों का नाश किया और पौष वदी प्रतिपदाके दिन केवलज्ञानके धारी सर्वज्ञ हुए । इन्द्रादि देवोंने ज्ञान कल्याणकका उत्सव मनाया। (१०) आपकी सभाका चतुर्विध संघ इस मांति था । २८ विशाखदत्त आदि गणघर ५५० पूर्व ज्ञानके धारी २९००० शिक्षक मुनि २२०० अवधिज्ञानी १२०० केवलज्ञानी १४०० वादी मुनि २९०० विक्रिया रिद्धिके धारी १७५० मनःपर्ययज्ञानी ४०००२८ ५५००० बंधुषेणा आदि आर्यिका १००००० श्रावक ३०.००० श्राविकायें.. .. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। (११). आपके एक मास शेष रहने तक आपने समस्त आर्यखंडमें विहार किया और उपदेश दिया। जब एक मास भायु रह गई तब आप सम्मेदशिखर पर पधारे। इस समय दिव्य ध्वनिका होना बंद हो गया था । इस एक मासमें बाकीके चार कर्मोका नाश कर फाल्गुन सुदी पंचमीको भगवान् मल्लनाथ मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने भगवानका निर्वाण कल्याणक उत्सव मनाया। पाठ १६ चक्रवर्ति-पद्म। नौबा चक्रवति । (१) भगवान् मल्लिनाथके समयमें नौवें चक्रवर्ति पद्म उत्पन्न हुए थे । इनके पिताका नाम पद्मनाथ और माताका ऐगराणी था। इनका वंश इक्ष्वाकु था । और ये काशी देशकी वाराणसी नगरीके राना थे । चक्रवति पद्मने दिग्विनय कर छह खंड पृथ्वीको वश किया और चक्ररत्न आदि चौदहरत्न, निधि आदि चक्रवर्तिकी संपत्ति प्राप्त की । इनकी पृथ्वी सुंदरी आदि आठ पुत्रियां थीं जो सुकेत नामक विधाधरके पुत्रोंकी दी थीं। चक्रवर्ति पद्मश्री छनवे हज़ार रानियों के पति थे । एकदिन बाद. लोंको विखरते देख संसारसे उदाप्त हो दीक्षा लेनेको तैयार हुए । मंत्रीने आपको दीक्षा लेने से बहुत रोका। आपका मंत्री नास्तिक था वह परलोक आदि नहीं मानता था पर आपने नहीं माना और अपने पुत्रको राज्य दे सुकेत आदि बहुतसे रानाओंके साथ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ३५ समाधिगुप्त नामक जिनेन्द्रसे दीक्षा ली और अन्तमें कर्मो का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया। इनकी आयु तीस हजार वर्षकी थी। ( नोट ) पद्मपुराणकारने इनका नाम महापद्म लिखा है । और पिताका नाम पद्मरथ और माताका मयुरी लिखा है । और कहा है कि इनकी पुत्रियोंको विद्याधर हरके ले गये फिर उन्हे चक्रवर्तिने छुड़ाया। इन पुत्रियोंने दीक्षा ली। इन पुत्रियों को बड़ा गर्व था । ये विवाह करना नहीं चाहती थीं। चक्रवर्तिने पद्म नामक पुत्रको राज्य देकर विष्णु नामक पुत्र सहित दीक्षा ली थी। - पाठ १७ प्रतिनारायण-बलिन्द्र-बलदेव, नंदमित्र नारायण-दत्त (सातवें प्रतिनारायण बलदेव और नारायण ) — (१) ये तीनों श्री भगवान् मल्लिनाथके ही तीर्थकालमें हुए हैं । बलदेव नंदमित्र और नारायण-दत्त बनारसके इश्वाकु वंशी राना अग्निशेखरके पुत्र थे। नंदमित्रकी माताका नाम अपराजिता था और दत्तकी माताका नाम केशवती था। (२) प्रति नारायण-बलिन्द्र विजयाई पर्वतके मंदरपुरका स्वामी था । इसने तीन खण्ड पृथ्वीको अपने वश किया था । इसकी आठ हजार रानियां थीं। . (३) नारायण-दत्तकी आयु तेवीस हजार वर्षकी थी और शरीर बावीस धनुष ऊंचा था। इसका वर्ण नीला था। और बलदेवका पन्द्रो सन.न था। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ... दूसरा भाग, (४) नंदमित्र और दत्तके पास भद्र क्षीरोद नामक एक बड़ा बलबान मदोन्मत्त हाथी था उसे भेंटमें देनेके लिये प्रतिनारायणने मंगाया तब नारायणने उसके बदलेमें प्रतिनारायणकी कन्या मांगी । वस दोनोंका युद्ध हुआ। उस समय नारायणदत्तके मामा विद्याधर केशरी विक्रमने सिंहवाहिनी गरुडवाहिनी दो विद्याएं दोनों भाइकोंको दी। और युद्ध में नारायण पर प्रति नारायणने जो चक्र चलाया था उसी चक्रके द्वारा नारायणने बलिन्द्रको मारा और वह नरक गया । (५) नारायण-दत्त सात रत्न तीन खंड पृथ्वी और सोलह हजार रानियोंके स्वामी हुए । बलदेव नंदमित्रको चार रत्न प्राप्त हुए थे। (६) दत्तने भोगविलासमें ही जीवन व्यतीत किया और मर कर नरक गया । बलदेव-नंदमित्रने सभूत नामक भगवान्के समीप तप धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। पाठ १८. भगवान्-मुनिसुव्रतनाथ । (वीसवें तीर्थंकर ) (१) भगवान् मल्लिनाथके मोक्ष जानेके चौपन लाख वर्ष बाद वीसवें तीर्थकर भगवान् मुनिसुव्रत उत्पन्न हुए। ये इस भवसे तीसरे भव पहिले भरतक्षेत्रके अंगदेशमें चंपापुरके राजा थे । नाम हरिवर्मा था । उस भवमें अनंतवीर्य स्वामीसे दीक्षा लेकर चौदवे स्वर्ग गये वहांसे चय कर मुनिसुव्रतनाथ नामक वीसवें तीर्थकर हुए। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । (२) भगवान् मुनिसुव्रत, राजगृही ( मगध ) के हरिवंशी - महाराजा सुमित्रकी रानी सोमादेवीके गर्भ में श्रावण वदी द्वितियाको आये । आपके गर्भ में आनेके छह माम पूर्वसे आपके जन्म होने तक स्वर्गसे रत्नोंकी वर्षा होती रही । देवियां माताकी सेवा में नियत हुई । गर्भ में आने पर माताने सोलह स्वप्न देखे । इन्द्रादि देवोंने गर्भकल्याणकका उत्सव किया । ३७ (३) आपका जन्म मिती वैशाख वदी १० मी को हुआ । जन्मसे ही आप तीन ज्ञानधारी थे । इन्द्रादि देवोंने आकर जन्म कल्याणकका उत्सव किया । (४) आपकी आयु तेतीस हजार वर्षकी थी और शरीर वीस धनुष ऊंचा था । आपके शरीरका रंग मोरके कंठके रंग समान था । (५) आपके लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे आते थे और वहीं से देवगण भी क्रीडा करने को आया करते थे । (६) आप सोल हजार पाँचसो वर्ष तक कुमार अवस्थामें रहे बाद पंद्रह हजार वर्ष तक आपने राज्य किया । (७) एक दिन महाराज मुनिसुव्रत मेघ घटाको देख रहे थे । इन घटाओंको देखकर वहाँ एक हस्ती था उसने अपने उस बनकी (जहाँ वह हाथियोंके साथ रहा करता व पैदा हुआ था ) - याद से खाना पीना छोड़ दिया। उसकी यह हालत देखकर मुनिसुत महाराजने अवधिज्ञानसे उस हाथी के पूर्व भव जानकर समीप बैठे हुए मनुष्यों को हाथी पूर्व भव बतलाते हुए कहने लगे कि देखो यह निर्बुद्धि हाथीका जीव अपने पूर्व भवकी तो याद नहीं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग करता और बनकी यादके कारण भोजन करना छोड़ दिया है। महाराजका सब कहना हाथीने सुन लिये और उसी समय उसे अपने पूर्व भवका स्मर्ण हो आया। फिर गृहस्थके व्रत उस हाथीने धारण किये। इधर महाराज मुनिसुव्रतने वैराग्यका चितवन किया। लौकांतिक देवोंने आकर आपकी स्तुति की। फिर आपने राजकुमार विजयको राज्य देकर वैशाख वदी दशमीको एक हजार राजाओं सहित दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणकका उत्सव किया । इसी समय मुनिसुव्रतनाथ स्वामीको मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति हुई। (८) आपका मुनि अवस्थाका सबसे पहिला आहार राजगृहीमें वृषभसेन राजाके घर हुआ। देवोंने राजाके घर पर पंचाश्चर्य किये। — (९) ग्यारह महिने तप कर चैत्र वदी नौमीके दिन आपको केवलज्ञान प्राप्त हुआ । समवशरण सभाकी रचना इन्द्रादि देवोंने की और ज्ञान कल्याणकका उत्सव मनाया। (१०) आपकी सभाका चतुर्विध संघ इस भांति था। १८ मल्लि आदि गणधर ५०० हादशांग ज्ञानके धारी २१००० शिक्षक मुनि १८०० अवधिज्ञानी १८०० केवलज्ञानी २२०० विक्रिया रिद्धिके धारी .... १५०० मनःपर्यय ज्ञानके धारी १२०० वादी मुनि ३००१८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ३९ ५०००० पुष्पदंता आदि आर्यिका १००००० श्रावक ३००००० श्राविका (११) एक मास आयुमें वाकी रहने तक आपने आर्यखंडमें विहार किया । फिर दिव्य ध्वनिका होना बंद हुआ । आपने सम्मेदशिखर पर पधार कर आयुके अवशेष एक मासमें बाकीके चार कर्मों का नाश किया और फगुन वदी एकादशीको एक हजार साधुओं सहित मोक्ष पधारे । इन्द्रादि देवोंने आकर निर्वाण कल्याणकका उत्सव किया। (नोट) पद्मपुराणकारने भगवान् मुनिसुव्रतकी माताका नाम पद्मावती लिखा है । हरिवंश पुराणमें भी यही नाम है । पाठ १९. चक्रवति हरिषेण । ( दशवां चक्रवर्ति) (१) चक्रवर्ति हरिषेण तीसरे भवमें भगवान् अनंतनाथके तीर्थकालका एक बड़ा राजा हुआ था। पर उसका नाम व उसके राज्यका पता इतिहासमें नहीं है । वहांसे वह स्वर्ग गया और स्वर्गसे चय कर हरिषेण हुआ। हरिषेण भोगपुरके महाराज इक्ष्वा. कुवंशी राना पद्म नामका पुत्र था । हरिषेणकी माताका नाम ऐरादेवी था । हरिषेणकी आयु दश हजार वर्षकी थी । और शरीर वीस धनुष ऊंचा था। . . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। (२) एक बार चक्रवति हरिषेण अपने पिता पद्मनाभके साथ वनमें गया। वहां अनंतवीर्य मुनिसे धर्मतत्व श्रवण कर पद्मनाभने हरिषेणको राज्य देकर दीक्षा ली । और हरिषेणने श्रावकके व्रत लिये। (३) चक्रवर्तिके पिता पद्मनाभने बहुत तप किया और तपसे कर्मोका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । जिप्स दिन पद्मनाभ केवलज्ञानी हुए उसी दिन हरिषेणकी शस्त्रशालामें चक्ररत्न, खड्ग रत्न और दंड रत्न आदि उत्पन्न हुए । वनपालने पद्मनाभके केवलज्ञानके समाचार और शस्त्रशालाके अधिपतने रत्नोंकी उत्पत्तिके समाचार एक साथ कहे । चक्रवति हरिषेण पहिले पिताके केवलज्ञानकी पूजाको गया। वहांसे आकर रत्नोंकी उत्पत्तिका हर्ष मनाया । नगरमें सात सनीव रत्नोंमेंसे पुरोहित, गृहपति, सिलावट और सेनापति ये चार रत्न उत्पन्न हो चुके थे । तीन सनीव रत्न-अश्व-हाथी और चक्रवर्तिकी पट्टरानी होने योग्य कन्या विद्याधर विनयाई पर्वतसे लाये । फिर चक्रवर्तिने छह खंड पृथ्वीकी दिग्विजय की । पूर्वके चक्रवर्तियोंके समान इनकी भी संपत्ति थी। और ये भी छनवे ह नार रानियोंके पति थे। . (४) एक वार कार्तिक मासकी अष्टान्हिकामें महा व्रतकी पूजा कर आप आकाश देख रहे थे सो आकाशमें चंद्रको राहू द्वारा ग्रसित देख आपको वैराग्य उत्पन्न हुआ और अपने पुत्र महासेनको राज्य दे सीमंतक पर्वत पर श्री नाग मुनिश्वरके निकट जिन दीक्षा धारण की । दीक्षा ग्रहण करनेके पहिले आपने बहुत Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ४१ कुछ दान दिया था। आपके साथ बहुतसे राजाओंने भी दीक्षा ली थी । अंतमें मृत्यु हो जाने पर चक्रवर्ति हरिषेणका जीव सर्वार्थसिद्धिको गया । (नोट) पद्मपुराणकार हरिषेणके पिताका नाम हरिकेतु और माताका नाम वद्रा लिखते हैं। इनके वर्णनमें लिखा है कि इन्होंने जिनमंदिरोंको बनवा कर पृथ्वी पारसी दी थी। ये कपिल नगरके राजा थे । - - पाठ २० यज्ञकी उत्पत्ति । दशवे चक्रवर्ति हरिषेणके हक हमार वर्षके बाद अयोध्यामें महाराना सगर हुए थे । इन्हीके द्वारा पशुओंके हवन करनेवाले यज्ञ चले हैं । इसीके समय में अथर्ववेदकी उत्पत्ति हुई । यज्ञकी प्रवृत्ति और अथर्ववेदकी उत्पत्तिके विषयमें जैन इतिहास इस प्रकार कहता है कि:---- ( क ) चारणयुगलपुर नामक नगरका राना सुयोधन था। इसकी रानीका नाम अतिथि था । इनकी एक सुलप्ता नामक कन्या थी । इस कन्याका स्वयंवर सुयोधनने किया और उसमे राजकुमारोंको निमंत्रित किया। ( ख ) सगर भी जानेको तैयार हुआ । पर तैल लगाते समय माथेके वालोंमें सफेद बाल दिखनेके कारण जाना उचित नहीं समझा । पर मंदोदरी नामक धाय और विश्वभूत मन्त्रीने आकर कहा कि हम आपके ऊपर प्रयत्नसे सुल Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दूसरा भाग । साको आशक्त कर सकेंगे आप अवश्य पधारें । इन दोनोंके कहने में आकर राजा सगरने जाना निश्चय किया । इधर विश्वभूत और मंदोदरीने जाकर सुलसाको भी सगरपर आशक्त किया । पर सुलसाकी माताने अपने भाई पोदन. पुर नरेश महाराज नृगनिंगल के पुत्र मधुपिंगलके वरमाला पहनाने का आग्रह किया, इसे सुलसाने स्वीकार किया | मंदोदरीका आना जाना सुलप्साकी माताने बंद कर दिया तब मंत्री विश्वभूतिने मधुपिंगलको स्वयंवर सभामें ही न आने देनेका षड्यंत्र रचा। अर्थात् वर परीक्षा संबंधी एक स्वयंवर विधान नामक ग्रंथ लिखकर जमीन में गाढ़ आया और कुछ दिनोंबाद प्रगट किया कि यह महत्त्व पूर्ण ग्रन्थ पृथ्वी तलसे निकला है और बहुत मान्य है । और उसे राजकुमारों की सभा में पढ़कर सुनाया । उसमें लिखा गया था कि जिसकी आंख पीली हो उसे न तो कन्या देना चाहिये और न ऐसोंको स्वयंवर में आने देना चाहिये । मधुपिंगलकी आँखें पीली थीं अतएव वह स्वयं वहाँसे अपने में यह दुर्गुण जानकर लज्जित और क्रोधित होकर निकल गया और हरिषेण गुरुके निकट तप धारण किया । राजा सगरका सुलसा के साथ विवाह हो गया । और मधुपिंगल संयमी होकर तप करने लगा । एक दिन वह किसी नगर में आहार लेने गया । वहाँ एक निमित्तज्ञानीने इसके शरीर लक्षनौको देखकर कहा कि यह राजा होना चाहिये फिर यह Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ४ ३ भीख क्यों माँगता है | इससे मालूम होता है कि लक्षण शास्त्र सत्य नहीं है । तब दूसरे निमित्त ज्ञानीने कहा कि नहीं, पहिले तो यह राजा ही था परन्तु सगरके मंत्रीके जालके कारण इसे यह पद धारण करना पड़ा है । निमित्त ज्ञानियोंकी बातचीत से मधुपिंगलको क्रोध उत्पन्न हुआ । और निश्चय किया कि मैं भविष्य में इस तपके प्रभाव से सगर का नाश कर सकूं ऐसी शक्तिका धारक बनूं । ( ग ) मरकर मधुपिंगल तपके प्रभाव से असुरकुमार जातिके चौंसठ हजार महिषासुरोंका अधिपति महाकाल नामक महिषासुर हुआ । और अवधिज्ञान से पूर्वभवके सगर राजाके वैरको जानकर बदला लेनेको उद्यत हुआ । (घ) वह वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण कर व कई असुरोंको शिष्यके रूपमें साथ लेकर पृथ्वी तलपर आया और वनमें फिरते हुए क्षीरकदंब के पुत्र पर्वत से मिला । क्षीरकदंब धवल प्रदेशके स्वस्तिकावतीनगरीका राजपुरोहित था । इसके पुत्र का नाम पर्वत था । पर्वतकी बुद्धि मंद थी और अर्थको विपरीत रूपसे ग्रहण करती थी । पर्वत क्षीरकदंब के पास पढ़ा था । इसके साथ साथ स्वस्तिकावतीका राजपुत्र और एक विदेशी ब्राह्मण कुमार नारद भी क्षीरकदवसे पढ़ा था । ये तीनों सहाध्यायी भी थे । नारद विद्वान् और धर्मात्मा था। एक दिन क्षीरकदंब अपने तीनों शिष्योंके साथ वनमें गया था वहाँ श्रुतघर नामक 1 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। दिगम्बर जैन साधु अपने तीन शिष्योंको अष्टांग निमित्तज्ञान पढ़ा रहे थे । क्षीरकदंव और उसके शिष्योंके वनमें पहुँचने पर श्रुतधर मुनिने अपने शिष्योंसे क्षीरकदंवके तीनों शिष्योंका भविष्य पूछा। शिष्योंने कहा कि वसु नामक राजपुत्र हिंसा धर्मको सत्य धर्म प्रगट करने के कारण नरक जायगा। पर्वत नामका शिष्य यज्ञकी प्रवृत्ति चलानेके कारण नरक जायगा । और नारद अहिंसा धर्मका प्रचार करेगा और सर्वार्थसिद्वि जायगा । इस भविष्यको क्षीरकदंव भी सुन रहा था उसे यह भविष्य सुनकर बड़ा दुःख हुआ पर भवितव्य पर श्रद्धा रख कर समय व्यतीत करने लगा। कुछ दिनों बाद राजा वसके पिता महाराज विश्वासने तप धारण किया और वसु रान सिंहासन पर बैठा । एक दिन वसु वनमें गया, वहां पर ठोकर खाकर आकाशसे पक्षो गिरते देखा। इसने अपना बाण फेंका वह भी ठोकर खाकर गिरा। वसु यह भेद जानने के लिये ब णके गिरनेके स्थान पर पहुंचा वहां उसे आकाश स्फटिक नामक पाषाणका स्तंभ दिखा जो कि दूसरों की दिखाईमें नहीं आता था । इस स्तंभको वसु अपने यहां लाया और उसका सिंहासन बनाया । वह सिंहासन अधर रहता था उस पर बैठ कर बसु राज्य कार्य करने लगा । लोगोंमें यह प्रसिद्धि हुई कि महारान वमुका सिंहासन न्याय और सत्यके कारण अधर रहता है । अब क्षीरकदंवके पास दो शिष्य रह गये। एक दिन ये दोनों शिष्य वनमें हवनकी काष्टादि सामग्री लेने गये थे वहां Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ४५ नदीका जल पीकर मोरडियोंका समूह लौट कर आ रहा था । नारदने दूर ही से देख कर कहा कि पर्वत ! इन मोरोंमें एक मोर और सात मोरडी हैं। आगे जाकर जब वे मोर आदि देखे तो मालूम हुआ कि नारदका कहना सत्य है । फिर आगे चल कर नारदने कहा कि पर्वत इस मार्गसे एक अंधी हथनी जिस पर गर्भवती स्त्री सवारी थी गई है। स्त्री सफेद साड़ी पहने थी। और उस गर्भवतीने संतानका प्रसव भी कर दिया है । नारदका यह भी कहना सत्य निकला । तब पर्वतने आकर मातासे कहा कि मुझे पिताने पूरी विद्या नहीं पढ़ाई, नारदको पढ़ाई है। पर्वतके पितासे उसकी माताने यह बात कही। उन्होंने पर्वतकी बुद्धि की मंदता बतला कर कहा कि मुझे सब शिष्य समान हैं, इसकी बुद्धि ही विपरीत है । तब परी. क्षाके लिये आटेके दो बकरे बनाकर क्षीरकदंवने पर्वत और नारद दोनोंको दिये और आज्ञा दी कि जहां कोई न देख सके ऐसे स्थानपर इनके कानोंको छेदकर मेरे पास लाओ । पर्वत वनमें जाकर निर्जन स्थान देख कान छेद लाया । पर नारदने कहा कि पहिले तो ऐसा स्थान ही नहीं मिलता जहाँ कि कोई न देख सके । दूसरे यद्यपि यह जड़ वस्तु है तो भी इसमें पशुका भाव रख उसकी स्थापना की गई है अतएव इसके कर्ण छेदनेमें अवश्य कुछ न कुछ मेरे भाव हिंसारूप होंगे अतः मैं यह कृत्य नहीं कर सकता । तब क्षीरकदवने अपने पुत्रको अयोग्य Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। समझ राना वसुसे उसकी और उसकी माताकी पालना करनेको कहकर और अपने पद पर नारदको विठला कर दीक्षा धारण की । नारद और पर्वत दोनों उसो नगरमें पठन पाठनका कार्य करने लगे । एक दिन सर्व साधारणके सन्मुख दोनोंका शास्त्रार्थ इस विषय पर हुआ कि हवनादिमें अन शब्दका क्या अर्थ करना चाहिये । नाद कहता था कि जिनमें उत्पन्न होनेकी शक्ति नहीं है ऐसे जूने नौ (नव) को अन कहते हैं और पर्वत अन शब्दसे पशुका अर्थ करता था । पर पर्वतका अर्थ मान्य नहीं हुआ । लोगोंने इसे संघसे पृथक् कर दिया तब यह बनमें गया और इसे वहाँ ब्राह्मण रूपधारी उक्त महाकाल नामक असुर मिला। (ङ) असुरने पर्वतके समाचार सुनकर कहा कि मैं तेरे शत्रुको नष्ट करूँगा । तूं मेरे धर्मभाई क्षीरकदंवका पुत्र है। वे मेरे सहाध्यायी थे । ऐसा कहकर उसे अथर्ववेद बनाकर पढ़ाया। इसकी साठ हजार रुला थीं। जब वह पढ़ गया तब महाकालने अपने साथी असुरोंको सगर राजाके ग्राममें बीमारी फैलानेकी आज्ञा दी जिसे उन्होंने तत्काल मानकर बीमारी फैलाई । इधर महाकाल और पर्वत सगरके पास जाकर कहने लगे कि यदि आप हमारे कहनेके अनुसार सुमित्र नामका यज्ञ करो तो रोगादिकी शांति हो जाय । और अथर्ववेदकी आझा दिखलाकर यज्ञके लिये साठ हजार पशु व अन्य Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ४७ सामिग्री इकट्ठी करनेके लिये सगरसे कहा । सगरने . उनका कहना मानकर यज्ञ करना प्रारम्भ किया। उस यज्ञ पर श्रद्धा दिलाने को महाकालने अपने सेवकों द्वारा फेलाये हुए रोगोंको बंदकर दिया और यज्ञमें होमे हुए पशु ओंको विमानमें बिठलाकर आकाशमें फिरते हुए दिखाया। तब रानाने अपनी रानी सुलसाको भी यज्ञमें होम दिया । पर पीछेसे उसके वियोगसे दुःखी होकर एक जैन साधुसे पूछा कि मैंने जो यह कृत्य किया है वह धर्म है या अधर्म । जैन साधुने उसे अधर्म बतलाया और कहा कि तेरा सात दिन बजपातसे मरण होगा और तू नरक जायगा । प्तगरने यह बात उस महाकाल व पर्वतसे कही। उन्होंने मैन साधुको झूठा सिद्ध करनेके लिये सुलसाको विमानमें बैठी हुई मगरको दिखलाई और उस बनावटी सुलसासे कहलाया कि मुझे यज्ञके प्रभावसे स्वर्ग मिला है । तब सगरने फिर दृढ़तासे यज्ञ करना प्रारम्भ रखा और अन्तमें वज गिरनेके कारण अपने साथियों सहित नरक गया । (च) सगरके मन्त्री विश्वासुने सगरका राज्य लिया और फिर यज्ञ करनेका विचार किया। क्योंकि इसे मी मारनेके लिये महाकालने सगरका रूप व सुलताका रूप बनाकर स्वर्गाके आनंदके साथ विश्वभूतको दिखलाया था। जब नारदने सुना कि विश्वभूत यज्ञ करना चहता है तब नारद उसके पास जाकर अहिंसा धर्मका उपदेश देने लगा। पर्वतने कहा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ दुसरा भाग। कि इसका कहना झूठ है हम दोनों एक गुरुके पाप्त वेद पढ़े थे और उन्होंने हिंसाको धर्म बतलाया है । हमारे साथमें राजा वसु भी पढ़े थे । उनसे पूछा जाय । अंतमें राजा वसुसे पूछना निश्चय हुआ और विश्वभूत पर्वत आदि वसुके पास गये । वसुको पर्वतकी माताने अपने पुत्रकी विनय करनेके लिये कह रखा था। वसुसे पूछते ही उसने तीनों वार पर्वतका कहना सत्य बतलाया। उसके यह कहनेसे जगतमें अशांति उत्पन्न हो गई, आकाश गड़गड़ाने लगा, रक्तकी वर्षा होने लगी और पृथ्वी फटने का भयानक शब्द हुमा । और वसु जिस आसन पर वह बैठा था उस आसन सहित झूठके कारण पृथ्वीमें घुस गया । और मर कर नरक गया । पर महाकालने उसे भी विमानमें बैठा हुआ आकाशमें लोगोंको दिखलाया जिससे कि वेद और यज्ञके ऊपर अश्रद्धा न हो । वसुको देख. कर विश्वभूतने प्रयागमें जाकर यज्ञ करना प्रारम्भ किया। इस पर महापुर आदि राजाओंने इन लोगों की निंदा की और नारदको धर्मका रक्षक जान कर गिरितट नामक नगर प्रदान किया । विश्वासुके यज्ञमें नारदकी आज्ञासे दिनकर देव नामक विद्याधरने अपनी विद्यासे नागकुमार जातिके देवोंको बुलाया और तब नागकुमार जातिके देवोंने उस यज्ञमें विघ्न डाला। उस विघ्नसे बचनेके लिये, यज्ञकुंडके आसपास महा कालने जिनेन्द्रकी मूर्ति रखनेकी सम्मति पर्वतको दी । क्योंकि जहां जिनेन्द्रकी मूर्ति होती Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ४९ । है वहां नागकुमार कुछ कर नहीं सकते, तब पर्वतने चारों ओर जिन मूर्तियां रखीं । यह देख नागकुमार विघ्न न कर सके और इस तरह विश्वभूतका यज्ञ भी पूर्ण हो गया और वह मरकर नरक गया। तब महाकाल असुग्ने अपना असली रूप प्रकट कर कहा कि सगर सुलता और विश्वभूतसे मेरा बैर होनेके कारण मैंने यह यज्ञकी प्रवृत्ति चलाई है । पर सत्य धर्म अहिंसा ही है । उसके इस कहने का उस समय कुछ अधिक असर नहीं पड़ा क्योंकि यज्ञको प्रवृत्ति चल पड़ी थी और पशुओंको स्वर्ग जाते देख कई लोगोंने उस मार्गपर श्रद्धा कर ली थी । तथा पशुओं के हवन से यज्ञ करना प्रारंभ कर दिया था । नोट:-- पद्मपुराण में और इस कथा में बहुत अंतर है । इसमें तो क्षीरकदंब शिष्यों का भविष्य मुनियोंसे सुनकर घर पर आया है और बहुत दिनों बाद वसु राजाको पुत्रकी व स्त्रीकी रक्षाका भार सौंप दीक्षा ली ऐसा लिखा है, पर पद्मपुराणमें वर्णन है कि भविष्य सुननेके साथ ही क्षीरकदंबने दीक्षा ली और क्षीरsant स्त्रीने गुरु दक्षिणाके बदले में वसुसे अपने पुत्रकी बातको कहनेको लिये वाधित किया और वसुने वैसा किया जिसके कारण वसु नरक गया । राजा सगर, सुलसाका स्वयंवर, महाकाल, असुर आदिका और क्षीरकंदवके द्वारा ली हुई नारद पर्वतकी परीक्षाका पद्मपुराण में वर्णन नहीं है । भगवद् गुणभद्राचार्यने तो राजा वसुके पिताका क्षीरकदंवसे पहिले से ही दीक्षा लेना लिखा है पर पद्मपुराणकारने पीछेसे दीक्षा लेना बतलाया है। दोनोंमें वसुके पिता के नाम में भी अंतर है । पद्मपुराणकारने "ययाति नाम लिखा है और महापुराणकार विश्वासु" नाम लिखते हैं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। पाठ २१. इस समयके एक न्यायी राजाका उदाहरण । ___मलयदेशमें रत्नपुर नगरके स्वामी महाराना प्रजापति थे । इनके पुत्र का नाम चन्द्रचूल था। चंद्रचूलका प्रेम मंत्रोके पुत्र विजयसे बहुत था । लाड़ प्यारके कारण इन दोनोंको उचित शिक्षा न मिल सकी। अतएव ये दोनों दुराचारी हो गये । एक दिन इस नगरके कुवेर नामक एक प्रसिद्ध सेठने कुबेरदत्ता नाम: की अपनी लड़कीका विवाह उसी नगरके वेश्रवण सेठके पुत्र श्रीदत्तके साथ करने का विचार किया। किसी पापी रान कर्मचारीने यह बात राजकुमारसे कही और कुबेरदत्ताके रूपकी प्रशंसा की। राजकुमार उस कन्याको अपने आधीन करने पर उतारू हुआ। यह देख वैश्योंका समुदाय महाराजा प्रनापतिके पास पहुंचा। अपने दुराचारी पुत्रसे वह पहिले ही अप्रसन्न था इसलिये इस समाचारसे वह और भी अधिक क्रोधित हुआ और कोतवालको आज्ञा दो कि दोनों युवकों को प्राण दण्ड दिया जाय । कोतवाल इस आज्ञाको पालन करने के लिये तैयार हुआ। परंतु मंत्रोने नगर वासियों सहित महाराजासे इस आज्ञाको लौटाने की प्रार्थना की । क्योंकि महाराजाका उत्तराधिकारी वह एक ही पुत्र था । महारानाने मंत्रीकी प्रार्थना यह कह कर अस्वीकृत कर दी कि तुम मुझे न्यायमार्गसे च्युत करना चाहते हो। फिर मंत्रीने दंड देनेका भार अपने शिर पर लिया । और अपने पुत्र तथा राजकुमारको साथ लेकर वनगिरि नामक पर्वत पर गया : वहां राजकुमारसे कहा कि आपका काल समीप है क्या आप मरने को तैयार हैं ? राज Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ५१ कुमारने निर्भय होकर अपने को तत्पर बतलाया । फिर मंत्री पर्वत पर चढ़ा । वहां महाबल नामक गणधर मुनि विराजमान थे उनकी वंदना कर अपने आनेका कारण निवेदन किया । गणधर देवने कहा कि ये दोनों युवक तीसरे भवमें नारायण और बलदेव होनेवाले हैं । उनकी तुम चिंता मत करो। यह सुनकर मंत्रीने उन दोनों कुमारोंको गणधर देवके समीप उपस्थित कर धर्मोपदेश दिलाया जिससे श्रवण कर दोनों कुमारोंने दीक्षा धारण की । मंत्री लौट गया और राजासे कहा कि मैं एक सिंहके समान निर्भय वनवासी पुरुषके सुपुर्द दोनों कुमारोंको कर आया हूं। वह अपने काममें बहुत तीव्र है । और उसने सब सुख छोड़ रखे हैं । राजाको यह सुनकर पुत्र वियोगका दुःख उमढ़ा और कुछ चिंतित हो गया । फिर मंत्रीसे सत्य २ कहनेके लिये कहा। मंत्रीने जो कुछ घटना हुई थी ठोक २ कह दी उसे सुन राना प्रापति बहुत प्रसन्न हुआ। और स्वयं भी दीक्षा लेनेको उद्यत हुआ । अपने कुलके एक योग्य पुरुषको राज्य देकर उसने भी महाबल गणधरसे ही दीक्षा ली। वे दोनों कुमार तप करने लगे। एक बार गत पाठमें बतलाये हुए नारायण और बलभद्रको परम ऐश्वर्यके साथ नगरमें प्रवेश करते देखकर निदान बंध किया कि हम भी इसी प्रकार नारायण बलभद्र बनें । आयुके अंतमें चार आराधनाओंको आराध कर दोनों कुमार सनत्कुमार स्वर्गमें उत्पन्न हुए । इन्हीं दोनोंके जीव इस स्वर्गसे चय कर निदान बंधके कारण राम और लक्षमणके रूपमें बलदेव नारायण हुए। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। पाठ २२. राक्षस वंश और वानर वंश । (१) विद्याधरोंकी जातिमें ही एक राक्षस वंश हुआ है। विद्याधरोंकी जाति मनुष्योंमें ही होती है । ऐसे मनुष्योंका एक पृथक् देश है और उनका विद्याएँ सिद्ध करनेका व्यापार है। . (२) विद्याधरोंमें निम्नलिखित घटनाके पूर्व इस प्रकार प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं। नमि, रत्नमाली, रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वनजङ्घ, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वन, वनध्य, वज, सुवन, वज्रभृत् , वजाभ, वज्रबाहु, बज्राङ्क, वज्रसुंदर, वज्रास्य, वज्रपाणी, वज्रभानु, वज्रवान् , विद्युन्मुख, सुवक्र, विद्युदंष्ट्र, विद्युत्व, विद्युद्दाम, विद्युद्वेग, दृढ़रथ, अश्वधर्मा, अश्वाभ, अश्वध्वन, पद्मनाभि, पद्ममाली, पद्मरथ, सिंहनाति, मृगधर्मा, मेघास्त्र, सिंहप्रभु. सिंहकेतु, शशाङ्क, चन्द्राहूं, चन्द्रशेखर, इन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध, चक्रध्वज, मणिगीव, मण्यङ्क, मणिभासुर, मणिरथ, मन्यास, विम्योष्ठ, लम्बिनाधार, रक्तोष्ठ, हरिचन्द्र, पूर्णचन्द्र, बलिन्द्र, चंद्रमा, चूड़, व्योमचंद्र, उड़यानन, एकचूड़, द्विचूड़, त्रिचूड़, वज्रचूड़, भूरिचूड़, अर्कचूड़, वह्निनटी, वह्नितेज, । ___(३) इस विद्याधर जातिमें भगवान् अनितनाथके समयमें पूर्णधन नामक प्रसिद्ध राजा हुआ । उसने तिलक नगरके स्वामी सुलोचन नामक राजाकी कन्या उत्पलमतीसे विवाह करना चाहा पर उसने नहीं दी। तब दोनोंमें युद्ध हुआ । पूर्णधनने सुलोचनको मारा । तब सुलोचनके पुत्र वनमें जाकर छिप रहे । इधर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ५३ सगर चक्रवर्तीको कोई अश्व उसी वनमें उड़ा लाया वहां सुलोच. नके पुत्र सहस्र - नयनने सगर चक्रवर्ती के साथ अपनी बहिन उत्पलमतीका विवाह किया । चक्रवर्तीने सहस्र - नयनको विद्याधरोंकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाया । तब उसने पूर्णधनसे अपना बदला चुकाने के लिये युद्ध किया । युद्धमें पूर्णधन और उसके कई पुत्र मारे गये । केवल एक पुत्र मेघवाहन नामक बचा । वह भाग कर भगवान् अजितनाथके शरण में आया । इन्द्रने उसे भयभीत देख उसके भयका कारण पूछा तब उसने अपना सब वृत्तांत कहा । सहस्रनयन भी भगवान् के समवशरण में आया । वहां दोनोंने अपने पिता आदिके पूर्व भव वृत्तांतको जान परस्परका वैर छोड़ मैत्री - धारण की। तब मेघवाहन पर प्रसन्न हो कर राक्षकोंके इन्द्र भीम सुभीमने लङ्का ( जो कि लवण समुद्रके पार है) और पाताल लङ्काका राज्य दिया । लङ्का ३० योजन थी । पाताल लङ्कामें एक अलङ्कारोदय नगर या जो कि एक सौ साढ़े इकतीस योजन १३ ( डे) कला चौड़ा था । इसके साथ २ मेघवाहनको उन्होंने राक्षस नामक विद्या भी दी। अंतमें मेघवाहनने भगवान् अजितनाथ समवशरण में दीक्षा धारण की। मेघवाहनकी स्त्रीका नाम सुप्रभा था। और पुत्रका नाम महारिक्ष। मेघवाहनके दीक्षा लेनेके बाद महारिक्ष राज्याधिकारी हुआ । महारिक्षने भी श्रुतसागर समीप दीक्षा धारण की । इनके बड़े पुत्र अमराक्ष राजा हुए और लघु पुत्र भानुरक्ष युवराज । इन्होंने भी अपने पुत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण की । (४) महारिक्षकी कई पीढ़ियोंके बाद एक रक्ष नामक राजा हुए । उनकी स्त्रीका नाम मनोवेगा था । इस दम्पतिसे राक्षस Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । और अपने पिताके पश्चात् राज्यका स्वामी हुआ। इसकी रानीका नाम सुप्रभा था। इसी राक्षस नामक राजाके नामसे उसकी सन्तान राक्षसवंशी कहलाने लगी। इस वंशमें इस प्रकार प्रसिद्ध पुरुष हुए हैं-आदित्यगति, बृहत्कीर्ति ये दोनों राजा राक्षसके पुत्र थे । इनमेंसे पहिला राजा था और दूसरा युवराज । दोनोंकी स्त्रियोंके नाम क्रमशः सदनपद्मा और पुष्पनखा था। आदित्यगतिका पुत्र भिम-प्रभ हुआ। इसके १००० रानियाँ थीं और १०८, पुत्र जो बड़े बलवान थे। उन्हें पुराणकारोंने पृथ्वीके स्तम्भकी उपमा दी है। इन राजाओंके पश्चात इस प्रकार राजाओंके नाम पुराणों में और मिलते हैं-पूनाई, जित-भास्कर, सम्पद-कीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुचन्द्र, अमृतवेग, भानुगत, द्विचिन्तगत, इन्द्र, इन्द्रप्रमु, मेघ, मृगीदमन; पवि, इन्द्रजित, भानुवर्मा, भानु, मुरारि, त्रिजित, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चाकार, वजमध्य, प्रमोद, सिंह, विक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म, द्रुपवाह, अरिमर्दन, निर्वा भक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्त, अनुत्तर, गतभ्रम, अनि, चण्ड, लङ्क, मयूरवाहन, महाबाहु, मनोज्ञ, भास्करप्रभ, बृहद्गति, बृहदाङ्कत, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, ग्रहक्षोभ, नक्षत्रदमन, इत्यादि । इन सबोंकी बाबत पूराणकार कहते हैं कि ये बड़े बली थे, क्रान्तिवान थे, धर्मात्मा थे । और इनकी राजधानी लंका थी। नक्षत्रदमनकी कितनी ही पीढियों बाद महारान धनप्रभ-जिनकी रानीका नाम पद्मा था-का पुत्र कीर्तिधवल हुआ। यह कीर्तिधवक बहुत ही प्रसिद्ध और बलवान राजा हुआ था। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ५५ ___ (५) कीर्तिधवलके समयमें एक श्रीकण्ठ नामक विद्याधर राजा था। इसकी बहिन देवीका रत्नपुरके राना पुष्पोत्तरने अपने पुत्र पद्मोत्तरके साथ विवाह करनेके लिये श्रीकण्ठसे कई बार निवेदन किया परन्तु श्रीकण्ठने अपनी बहिन पद्मोत्तरको न दे लङ्काके राजा कीर्तिधवलको दी । एक दिन श्रीकण्ठ मुमेरु पर्वतके चैत्यालयोंकी वन्दना करके वापिस लौट रहा था तब उसे मार्गमें पुष्पोत्तरकी पुत्री पद्माभाका गाना सुनाई दिया । पद्मामा उस समय अपने गुरुके समीप वीणा बजा रही थी। पद्माभाके मधुर कण्ठ पर मोहित होकर श्रीकण्ठ, पद्माभाके सङ्गीत-गृहमें आया । इधर श्रीकण्ठके रूपको देखकर पद्माभा उसपर आसक्त हो गई। पद्माभाको आसक्त जान श्रीकण्ठ, अपने विमान पर चढ़ा कर आकाश-मार्गसे पद्माभाको ले चला ! जब पुष्पोत्तरने सुना तब वह श्रीकण्ठ पर और भी अधिक क्रुद्ध हुआ और उस पर चढ़ाई कर दी । श्रीकण्ठ भागकर अपने बहिनोई कीर्तिधवलकी शरणमें गया वहां भी पुष्पोत्तरकी सेना पहुची। कीर्तिधवलने युद्धकी तैयारी की और दूतों द्वारा पुष्पोत्तरको समझाया । इधर पद्माभाने भी कहला भेना कि मेरा पति श्रीकण्ठ ही है। दूसरेके साथ विवाह न करनेकी मुझे प्रतिज्ञा है तब पुष्पोत्तरने युद्ध बंद कर कन्याके साथ श्रीकण्ठका विवाह मार्गशीर्ष शुक्ला १ को कर दिया। कीर्तिधवलने अपने साले श्रीकण्ठको उसके पूर्व निवास स्थानपर नहीं जाने दिया और उसे बानर द्वीप दिया । (६) यह द्वीप समुद्रके मध्यमें तीनसौ योजनका था। इसमें बन्दर बहुत ही चतुर और मनोहर होते थे। पुराणकारोंने Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ दूसरा भाग । उन्हें मनुष्योंके समान हाथ-पैर वाले लिखा है । वह राजा भी उन बन्दरोंपर बहुत ही प्रसन्न हुआ । और उसने स्वयं कई पाले तथा उनके चित्र बनवाये । राजा श्रीकण्ठने आष्टारिकामें देवोंको नन्दीश्वर द्वीप जाते देख नन्दीश्वर जानेका विचार किया। और अपने विमान द्वारा गमन किया परन्तु जब मानुषोत्तर पर पर्वत से आगे उसका विमान न जासका तब उसने अपनी निंदा की और भविष्य में नंदिश्वर जानेके योग्य होने की इच्छासे दीक्षा धारण की । अपना राज्य बड़े पुत्र वज्रकण्ठको दिया । (७) वज्रकण्ठने अपने पुत्र इन्द्रायुद्ध - प्रभो राज्य देकर वैराग्य धारण किया । इन्द्रायुद्ध - प्रभके बाद इन्द्रमति, इन्द्रमतिके बाद मेरु, मेरुके पश्चात् मंदिर, मंदिरके अनंतर समीरणगति, और समीरणगतिके बाद अमरप्रभ वानर द्वीपके उत्तराधिकारी हुए । अमरप्रभने लंका राक्षसवंशी राजाकी कन्या गुणवती से विवाह किया । गुणवती जब घर पर आई और उसने श्रीकण्ठके बनवाये चित्रोंको देखा तब वह बहुत डरी। उसे डरते देख अमरप्रभ अपने सेवकों पर नाराज हुआ कि ऐसे चित्र मेरे महल में क्यों बनवाये गये । परन्तु जब उसे यह मालूम हुआ कि ये चित्र उसके आदि पुरुष महाराज श्रीकण्ठने बनवाये हैं । और श्रीकण्ठके बादके उत्तराधिकारी मी मंगलिक कार्यों में उन चित्रोंको बनवाते रहे हैं तब उसने उन चित्रोंकी बड़ी प्रतिष्ठा करना प्रारम्भ की। यहां तक कि सबको मुकुट और ध्वजा पर भी बंदरोंका चित्र रखने की आज्ञा दी । तथा विजयार्द्धकी दोनों श्रेणियोंका विजय किया । इसने जब ध्वजाओं पर वानरोंका चित्र रखनेकी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ५७ आज्ञा दी तब इसका वंश वानर वंशके नामसे प्रसिद्ध हुआ । अमरप्रभ भगवान् वासुपुज्यके समयमें हुआ था। (८) अमरप्रमके बाद कपिकेतु, विक्रमसम्पन्न, प्रतिबल, गगनानंद, खेचरानंद, गिरिनंद आदि क्रमशः उत्तराधिकारी हुए। (९) भगवान् मुनिसुव्रतनाथके समयमें वानरवंशमें महोदधि नामक राजा हुआ । और लंकाका उरत्ताधिकारी विद्युत्केश हुआ । इन दोनोंमें बहुत गाढ़ी मैत्री थी । विद्युत्केश दीक्षा धारण कर स्वर्ग गया। जब यह समाचार महोदधिने सुने तब उसने भी दीक्षा धारण की.। (१०) विद्युत्केशका उत्तराधिकारी सुकेशी और महोदधिका प्रतिचन्द्र हुआ । प्रतिचन्द्रने भी अपने पुत्र किहिकन्धको राज्य दे और छोटे पुत्र अंधको युवराज बना दीक्षा धारण की। (१२) राजा किहिकन्धके गले में आदित्यपुरके राजा विद्यामंदिरकी पुत्री श्रीमालाने स्वयम्वर मण्डपमें वर-माला डाली । इसपर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके रत्नपुर नामक नगरके राजा अशनिवेगका पुत्र विजयसिंह क्रोधित हुआ और दोनोंका युद्ध हुआ। युद्ध में विजयसिंह मारा गया । तब विजयसिंहके पिता अशनिवेगने युद्ध किया। इधर लङ्काके राजा सुकेशीने किहिकन्धकी सहायता की । परन्तु युद्ध में अशनिवेगने किहिकन्धके छोटे भाई अन्ध्रको मारा । तब विहिकन्ध, सुकेशीके इस प्रकार समझानेसे कि इस समय शत्रु बलवान् है अतएव इसे निर्बल होने तक छिप कर रहना उचित है, युद्धसे पीठ दिखा कर अपने मित्र सुकेशीके साथ पाताल लङ्का चला गया । कुछ दिनों बाद किहिकन्धने करन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। तट नामक वनमें किहिकन्धपुर नगर वसाया और वहीं रहने लगा। अशनिवेगके दूत निर्धातने लङ्का ले ली। सुकेशी पाताल लङ्कामें ही रहता था। सुकेशीके माली सुमाली और माल्यवान नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनोंने निर्घातको मारकर अपनी राजधानी लङ्का पुनः छुड़ा ली तथा विमयार्धकी दोनों श्रेणियोंको जीत लिया । . (१३) बानर वंशमें किहिकन्धके सूर्यरज और रक्षरज नामक दो पुत्र हुए । और सूर्यकमला नामक पुत्री हुई । जिसका मेघपुरके राजा मेरुके पुत्र मृगारिदमनके साथ विवाह किया। ... (१४) माली, सुमाली और माल्यवान् इन तीनों माइयोंकी एक २ हजार रानिया थीं । सुकेशीके वैराग्य धारण करने पर बड़े पुत्र माली उत्तराधिकारी हुए। उधर किहिकन्धने भी सूर्यरजको राज्य देकर दीक्षा धारण की । माली और उसके दोनों भाई बड़े बलवान तथा अभिमानी थे, इन्हें इन्द्र विद्याधरने युद्ध में जोता । (१५) इन्द्र, रथनूपुरके राजा सहस्रारि विशाधरका पुत्र था। (१६) इन्द्र बड़ा बलवान राजा था। जब इन्द्र गर्भ में आया था उस समय उसकी माताको इन्द्रके समान विलास करने. की इच्छा हुई थी । इसीलिये इसका नाम भी इन्द्र रक्खा । इन्द्रने भी अपने सर्व कार्य स्वर्ग तथा इन्द्रके समान किये। लोकपालोंकी स्थापना की । और उनके नाम भी वेही रक्खे जो उर्व लोकके स्वर्गके लोकपालोंके हैं। अपनी सभाके सभासद भी स्वर्ग ही के समान नियत किये । मन्त्रीका नाम बृहस्पति रक्खा । हाथीका ऐरावत नाम रक्खा । सारांश यह है कि जैन शास्त्रोंमें स्वर्ग और उसके इन्द्रकी विभूति, सभा आदिका निस प्रकार वर्णन है, उसकी नकल विद्याधर इन्द्रने की। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ५९ (१७) इन्द्रकी सहायता के अभिमान से जब विद्याधरोंने लंकाके स्वामी मालीकी आज्ञा मानने में आनाकानी की तब मालीने विद्याधरों पर चढ़ाई की। विद्याधरोंने इन्द्रकी सहायता से मालीको युद्धमें मारा । (१८) मालीके मरने पर सुमाली और माल्यवान्का इन्द्रने पीछा किया। और कुछ दूर आगे जाकर सोम नामक लोकपालको लंका विजय करनेकी आज्ञा दे आप लौट आया । और अपने माता पिताके चरणोंपर नमस्कार किया । माली मारे गये । (१९) सुमाली और माल्यवान् भागकर पाताल लंका पहुंचे । (२०) लंका विजय कर इन्द्रने अपनी ओरसे वैश्रवण नामक विद्याधरको लंकाका लोकपति बनाया । वैश्रवण बड़ा बली श्री । इसके पिताका नाम विश्रव था जो यज्ञपुरका स्वामी था । इसकी माता कौतुकमङ्गल नामक नगर के राजा कामबंदुकी कन्या कौशिकी थी। जिसकी छोटी बहिन केकसीका विवाह सुमालीके पुत्र रत्नश्रवाके साथ हुआ था । (२१) रत्नश्रवा महान् विद्वान और धर्मात्मा था । इस पुष्पक नामके वनमें विद्या सिद्ध की थी । विद्या सिद्ध करते समय उसकी सेवा के लिये कामबिंदुने अपनी पुत्री केसीको भेज दिया था । वनमें रत्नश्रवाको मानस-स्तम्भीनी विद्या सिद्ध हुई । उस विद्या के द्वारा उसने उस वनमें पुष्पाङ्कित नगर बसाया और फिर केकसीके साथ विवाह किया । केकसी महान गुणी और रूपवती थी । इस दम्पतिमें परस्पर बड़ा प्रेम था । येही दोनों रावण के मातापिता हैं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० दूसरा भाग। पाठ २३ । आठवें प्रति नारायण रावण और उनके बन्धु । * (१) रानी केकसीने रावणके गर्भमें आनेके पहिले तीन स्वप्न इस प्रकार देखे थे (१) एक सिंह अनकों गजेन्द्रोंके गण्डस्थल विदारण करता हुआ आकाशसे पृथ्वीपर आया और रानीके मुखमें प्रविष्ट होकर कुक्षिमें ठहर गया । (२) सूर्य रानीकी गोदमें आया । (३) चन्द्रको अपने सन्मुख उपस्थित देखा । (२) इन स्वप्नोंके फलमें राजा रत्नश्रवाने रानीसे कहा कि तेरे तीन पुत्र होंगे । जो बलवान् , धर्मात्मा और बड़े तेजस्वी होंगे । पहिला पुत्र क्रूर और उद्धत होगा । (३) जिस समय रावण गर्भ में आया उसी समयसे माताकी चेष्टा क्रूर हो गई और उसका स्वभाव उद्धत हो गया । (४) रावण जब उत्पन्न हुआ तब उसके वैरियोंके यहाँ अशुभ चिन्ह हुए । रावण महा बलवान् सुन्दर और तेजस्वी था । राक्षस वंशके मूल पुरुष मेघवाहनको भीम इन्द्रने जो हार दिया था उसे रावणने उत्पन्न होनेके पहिले ही दिन-पास रक्खा हुआ था सो-उठा लिया। उस हारकी रक्षा हजार देव कहते थे । हारकी ज्योतिमें रावणके कई प्रतिबिम्ब रावणके पिताको दिखाई दिये अतएव उसका नाम दशानन प्रसिद्ध हुआ । (५) रावणके बाद कुम्भकर्ण, कुम्भकर्णके बाद चन्द्रनखा और Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। ६१ उसके पश्चात् विभीषण उत्पन्न हुआ। कुम्भकर्ण और विभीषण शान्त प्रकृतिके थे। रावण बड़ा क्रूर, अभिमानी और उद्धत था। (६) एक दिन वैश्रवण (जो कि इन्द्र द्वारा नियुक्त लङ्काका अधिकारी था) विमान पर बैठा बड़े गर्वके साथ आकाश-मार्गसे जा रहा था। उस समय रावण अपनी माताकी गोदमैं बैठा हुआ था। रावणने मातासे पूछा कि यह कौन है ? माताने उत्तरमें कहा कि यह तेरी मौसीका बेटा है । और इन्द्रका कर्मचारी है । लङ्कामें इन्द्रकी ओरसे रहता है । बड़ा अभिमानी और बलवान् है । इन्द्रने तेरे दादा मालीको मार कर हमसे लङ्का छीन ली है । तेरे पिता लङ्काको पुनः अपने अधिकारमें लौटा लानेकी चिंतामें सदा मग्न रहते हैं और तेरे पर उनका भरोसा है । इस पर विभीषणने मातासे कहा कि-"जननी ! तू योद्धाओंकी माता है । तुझे इस प्रकार दूसरोंकी प्रशंसा करना उचित नहीं। रावण बड़ा बलवान है। इसके समान किसीमें बल नहीं है । इसके शरीरमें श्रीवास आदि कई शुभ लक्षण हैं । " रावणने कहा " माता ? मैं स्वयं अपनी प्रशंसा क्या करूँ ! परन्तु इतना मैं कहता हूं कि जितना बल सम्पूर्ण विद्याधरोंमें है, उतना मेरी एक भुजामें है। (७) इसके बाद रावण और उसके साथ दोनों भाई भीमनामक बनमें विद्या सिद्ध करनेके लिये गये। इनके कार्यमें जम्बूद्वीपके रक्षक अनानत नामके देवने विघ्न डाले परन्तु इन तीनों भाइयोंने विघ्नोंकी पर्वाह नहीं की। तब रावणको अनेक विद्याएं सिद्ध हुई तथा कुम्मकर्णको पांच और विभीक्षणको चार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ . दूसरा भाग, विद्याएँ सिद्ध हुई । उक्त अनावत देवने रावणके धैर्यको देख कर स्तुति और आपत्तिके समयमें स्मरण करने पर उपस्थित होनेका वचन दिया । रावणकी विद्यासिद्धिसे राक्षसवंश और वानरवंशमें महा हर्ष हुआ । रावणको जो विद्याएँ, सिद्धि हुई उनमें से कईए. कोंके नाम इस प्रकार हैं नभः संचारिणी, कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगत्कंपा, प्रगुप्ति, भानु मालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोमा, मनस्तं. भकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वध्पकारिणी, सुविधाना, तमोरूपा दहना. विपलोदरी, शुभपदा, रजोरूपा, दिन रात्रि विधायिनी, वजोदरो, समाकृष्टि, अदर्शिनी, अजरा, अमरा, अनव स्तंभी, तोयस्तंभिनी, गिरिदारिणी, अवलोकिनी, ध्वंसी, धीराघोरा, भुजंगिनी, वीरिनी, एक भुवना, अवध्यादारुणा, मदनासिनी, भास्करी, भयसंभुति ऐशानि, विनिया, जमाबंधिनी, मोचनी, बाराही, कटिलाकृति, चितोद्भवकरी, शांति, कौवेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्साही, चंडा, भीति प्रविषिणी इत्यादि। (८) कुम्भकर्णकी उन पांच विद्याओंके नाम जो उसे सिद्धि हुई इस प्रकार हैं:-सर्व हारिणी, अति संवर्धिनी, जंभिनी, व्योमगामिनी, और निद्रानी। (e) विभीषणको जो चार विद्याएं सिद्ध हुई उनके नाम इस प्रकार हैं:-सिद्दार्था, शत्रुदमनी, व्याघाता, आंकाशगामिनी । (१०) इन तीनों भाइयोंको विद्या सिद्ध होनेपर मुमाली, माल्यवान् , रत्नश्रवा, केकसी, सूर्यरज, रक्षरज आदि रावणके पास आये । और उन्होंने रावणकी बहुत २ प्रशंसा की। रावणने Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ६३ भी इनको बहुत सेवा की । विद्याओंकी सिद्धिसे रावणकी कीर्ति बहुत कुछ फैल गई थी। (११) असुरसङ्गीत नगरके राना मयने अपनी पुत्रीका विवाह रावणके साथ करने का विचार कर पुत्रीको लेकर रावणके पास आया । रावण उस समय चन्द्रहास्य खगकी सिद्धि कर सुमेरु पर्वत पर चैत्यालयोंकी वन्दना करने गया था। अतएव रावणकी भगिनीने राजा मय, उनकी पुत्री, और उनके मंत्रियोंका आतिथ्य-सत्कार किया। (१२) फिर रावण आकर सबोंसे मिला । चैत्यालयमें जाकर पूनन की। पूननके अनन्तर जब रावण, मय आदि आकर बैठे तब रावणकी दृष्टि मयकी पुत्री मन्दोदरी पर पड़ी । मन्दोदरी बड़ी रूपवती थी । मन्दोदरीको देखकर रावण मोहित हुआ। रावणको मोहित जान मयने मंदोदरीको रावणके सन्मुख उपस्थित कर प्रार्थना की कि आप इसके पति होना स्वीकार करें । रावणने स्वीकार किया और उसी दिन रावणसे मन्दोदरीका विवाह हुआ । (१३) मन्दोदरी रावण की अन्य राणियोंकी पट्टरानी हुई। एक दिन राबण मेघवर पर्वत पर क्रीड़ा करने गया था वहाँ छः हजार रानकन्याएँ भी क्रीड़ा कर रही थीं। रावण भी उनके साथ क्रीड़ा करने लगा। उन कन्याओंमें और रावणमें परस्पर अनुराग उत्पन्न हो गया । अतएव उन कन्याओंके साथ रावणने गन्धर्व विवाह किया । यह देख उन कन्याओं के साथ जो सेवक आये थे उन्होंने उन कन्याओंके माता पितासे जब यह निवेदन किया तब वे बड़े क्रोधित हुए और अपने सामन्तोंको रावणको पकड़नेके Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। लिये भेना परंतु रावणने उन्हें मार भगाया तब वे स्वयं कई राना मिल कर रावणपर चढ़ कर आये। यह देख उन कन्याओंने रावणसे छिप जानेके लिये कहा। तब रावणने कहा तुम मेरा बल नहीं जानती । मैं इन सबको मार भगाऊँगा । यह कह विमान पर चढ़ और आकाश मार्गमें युद्ध किया और मुख्य २ राजाओंको नागपाशमें बांध लिया । तब उन कन्याओंने रावणसे प्रार्थना कर अपने गुरुजनोंको छुड़ाया। उन्होंने भी रावणको बड़ा बलवान् योद्धा समझ अपनी २ कन्याओंके साथ रावणका विवाह कर दिया । रावण उन छः हजार स्त्रियोंके साथ स्वयंप्रभनगर आया, वहां उसका बहुत सत्कार हुआ। (१४) कुम्भकर्णका विवाह कुम्भपुरके राजा मन्दोदरकी पुत्री तड़ित्मालासे हुआ। (१५) और विभीषणका ज्योतिप्रभ नगरके राजा विशुद्धकमलकी पुत्री राजी व सरसीसे हुआ। जैन पुराणकारोंका कहना है कि कुम्भकर्ण और विभीषण बड़े धर्मात्मा और सदाचारी थे। तथा कुम्भकर्णको बहुत ही अल्प निद्रा थी। (१६) कुम्भकर्ण वैश्रवणके राज्यमें उत्पात मचाने लगा। तब वैश्रवणने सुमालीके पास दूत भेज कर कहलाया कि तुम अपने पौत्रौंको अन्यायसे रोको नहीं तो तुम्हारे लिये ठीक नहीं होगा। दुतके इस कथन पर रावण बड़ा क्रोधित हुआ और उसे मारनेको तैयार हुआ परन्तु विभीषणके मना करने पर उसने दुतको न मार सभासे बाहर निकाल दिया। वैश्रवणसे जब इतने यह Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ६५ समाचार कहे तब रावण व वैश्रवणका युद्ध गुञ्ज नामक पर्वत पर हुआ । उस युद्ध में रावणकी जय हुई। रावणने युद्ध में भिंडिपाल नामक अस्त्र विशेषके आघातसे वैश्रवणको मूर्छित कर दिया था। जब वैश्रवण आरोग्य हुआ तब वह इतना अशक्त हो गया था कि वह स्वयं कहने लगा कि जिस तरह पुष्प रहित वृक्ष किसी कामका नहीं उसी प्रकार बलरहित सामंतका होना निरर्थक है । पर विचार कर उसने दीक्षा धारण की । वैश्रवणके पास जो पुष्पक विमान था उसे रावणने प्राप्त किया। इस प्रकार अपनी प्राचीन राजधानी लंकाको हस्तगत कर फिर विद्याधरोंकी दक्षिण श्रेणी विनय की। (१७) दक्षिण श्रेणी विनय कर जब रावण लौट रहा था तब रास्तेमें हरिषेण चक्र के वनवाये हुए मंदिरोंकी वंदना की और वहां ठहरा । दूपरे दिन एक मदोन्मत्त गनराजको वशमें किया जिसका नाम त्रैलोक्य-मण्डल रक्खा । यहीं पर एक दृतने वानर वंशियों और इन्द्रके यम नामक लोकपालके परस्पर युद्ध होनेके समाचार कहे तथा वानर वंशियों की सहायतार्थ प्रार्थना की। यह समाचार सुनते ही रावण विना किसीको लिये वानरवशी गजा सुर्यरन और रक्षाजकी सहायतार्थ चल दिया यह देख सेनापति और सेना भी रावणके पीछे चल दी । यम बड़ा बलवान् था। उसने अपने राज्यमें एक नकली नरक बनवा रक्खा था। जिप्समें वह शत्रुओं और अपराधियोंको कैद करवा कर दुःख दिया करता था । रावणने पहिले पहिल इनी नरकको ध्वंश किया। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। और उससे सूर्य-रज, रक्षरज तथा अन्य बन्दी जनों को छुड़वाया। यह समाचार सुनते ही यम विशाल सैनाके साथ रावणसे लड़ने आया । घनघोर युद्ध हुआ। अंतमें रावणकी जय हुई । यम अपने जमाई और स्वामी इन्द्र के पास भाग गया। रावणने किहिकंधपुर सूर्यरजको दिया । वानर वंशियोंकी यही पुरानी राजधानी थो । निसको इन्द्रने छीन किया या । रक्षरनको किहिकम्पुरका रान दिया । यमके द्वारा इन्द्रने जब रावणके समाचार सुने तब इन्द्र रावणसे लड़नेको उद्यत हुआ । परन्तु मंत्रियोंने रावणके बलकी प्रशंसा कर इन्द्रको इस युद्धसे पराङ्गमुख किया । इस प्रकार रावणका प्रभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। यमको जीत कर रावण अनेक रानाओंके साथ लंकामें आये । सर्व प्रना रावणके पाप्त आकर रावणकी प्रशंसा करने लगी। ___(१८) एक दिन रावण राना प्रवरकी पुत्री तन्दरीसे विवाह करनेके लिये गया हुआ था। इस अवसरमें राना मेघवभका पुत्र खरदूषण आकर रावणकी बहिन चन्द्रनखाको हर ले गया । खरदूषण बलवान् और चौदह सहस्र विद्याधरोंका स्वामी था। इसे प्रबल समझ कुम्भकर्ण विभीषणने पीछा नहीं किया। रावण जब घर आया और यह समाचार सुना तब क्रोधित हो और विना किसीको संग लिये खरदूषणको मारने जाने लगा। मंदोदरीने उन्हें उस समय मना किया और कहा कि तुम्हारी बहिन जब खरदूषण हर ले गया ऐसी अवस्थामें उसे मारनेसे चन्द्रनखा विधवा हो जायगी। अतएव अब खरदुषणका पीछा करना उचित नहीं । यह सम्मति रावण मान गया । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ६७ __(१९) इघर वानर वंशियोंमें सूर्यरजके यहां बाली और . सुग्रीव नामक दो पुत्र तथा श्रीप्रभा नामक कन्या उत्पन्न हुई। सूर्यरज बालीको राज देकर मुनि हो गये । बाली बड़ा बलवान् और धर्मात्मा था। इसे देवशास्त्र गुरुके सिवाय अन्यको प्रणाम न करनेकी प्रतिज्ञा थी। बलके कारण यह रावणको भी कुछ नहीं समझता था। इसी लिये क्रुद्ध होकर रावणने दूतके द्वारा बालीसे कहलाया कि तुम यातो मेरी आज्ञा मानों, प्रमाण करो, और अपनी बहिन श्रीप्रभा मुझे दो अथवा युद्ध करो। बालीने प्रणाम करने की बातके सिवाय अन्य सब स्वीकार किया। परन्तु रावण ने स्वीकार न कर बालीपर चढ़ाई की। बाली भी युद्ध के लिये उद्यत हुआ परन्तु मन्त्रियोंने उसे रोका। उस समय बालीने अपने य उद्गार निकाले-" मंत्रिगण ! मैं आत्मश्लाघा नहीं करता परन्तु मैं इस रावणको और इसकी सेनाको बाये हाथकी हथेलीसे चूर कर सकता हूँ। परन्तु मैं विचार करता हूं कि इस क्षणिक जीवनके लिये मैं निर्दय कर्म क्यों करूँ ? । मेरे जिन हाथोंने भगवान् जिनेन्द्रको प्रणाम किया, भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा की, और दान किया, तथा पृथ्वीकी रक्षा की, वे हाथ दूसरेको प्रणाम कैसे कर सकते हैं ? जो हाथोंको जोड़कर दूसरों को प्रणाम करता है वह तो किंकर है-गुलाम है। उसका जीवन और ऐश्वर्य निरर्थक है ।" यह कह कर बालीने अपने छोटे भाई सुग्रीवको राज्य देकर श्रीगगनचंद्र मुनिके द्वारा दीक्षा ली। और विकट तप करने लगे। सुग्रीवने रावणकी आज्ञा मानना स्वीकार किया और अपनी बहिनका रावणके साथ विवाह किया । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दूसरा भाग । 1 (२०) रावणने विद्याधरोंकी सम्पूर्ण सुंदर २ कन्याओंके साथ विवाह किया। एक दिन रावण नित्यलोक नगरके राजा नित्यलोकजिनकी राणीका नाम श्रीदेवी था - की पुत्री रत्नावली से विवाह कर नव वधूको साथ ले पुष्पक विमान द्वारा आरहा था । कैलाश पर्वत पर आते ही जिन मंदिर और वाली मुनिके प्रभावसे विमान आगे न चल सका । वाली मुनि उस समय वहां तप कर रहे थे । रावण विमान अटकनेका कारण अपने मंत्री मारीचसे पूंछा | मंत्रीने कहा अनुमान होता है कि यहां कोई साधु ध्यान कर रहे हैं । अतएव यातो नीचे उतर कर उनकी वंदना करो अथवा विमान लौट कर दूसरे मार्गसे ले चलो । तब रावण नीचे उतरा । वाली मुनिको देख कर रावणको पूर्व शत्रुता स्मरण हो आई और वाली मुनिराजकी निंदा करने लगा । तथा विद्याबलसे पर्वतके नीचे बैठ पर्वतको उखाड़ना चाहा | पर्वत डगमगाने लगा । उस समय मुनिराजने पर्वत परके जिन मंदिरोंकी रक्षाके विचारसे अपनी काय ऋद्धिको कार्य में परिणत करना उचित समझ अपने पैर के अंगुष्ठको पर्वत पर धीरे से दबाया । उनके अंगुष्ठ दबाने मात्र से जो रावण पर्वतको उखाड़ फेंकने का विचार कर रहा था वह पर्वतके भारसे दवने लगा । आँखें प. ट कर बाहर खानेकी दशा में हुईं, नेत्रोंसे आंसू गिरने लगे । तब रावणकी स्त्री, मंत्री आदिने क्षमा प्रार्थना की जिससे मुनिराज ने अपने अंगुष्ठको ढीला किया फिर रावणने पर्वतके नीचे से निकल कर वाली मुनिकी स्तुति और अपराधक्षमाकी प्रार्थना की। उस समय भक्ति के वश हो रावणने अपनी भुजा में से Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ६९ बस निकाल कर उससे वीणा बजाई । इस घटनाके पूर्व समय तक रावण " रावण न कहला कर दशानन कहलाता था । परन्तु इस घटनामें पर्वतके भारसे जब उसे रुदन करना पड़ा तबसे वह "रावण " कहलाया। वाली मुनिने यद्यपि जिन मंदिर कैलाश पर्वत तथा जीवोंकी रक्षाके लिये काय ऋद्धि द्वारा रावणसे कैलाश पर्वतकी रक्षा की थी तो भी यह कार्य मुनि धर्मके विरुद्ध था। इसलिये अपने गुरुसे आपने प्रायश्चित्त लिया और घोर तप कर केवल ज्ञान प्राप्त किया । (२१) इस समय रावणने जो स्तुति गान किया था उससे प्रसन्न होकर धरणेन्द्र वहां आया और रावणसे कहा कि स्तुति गानसे मैं बहुत प्रसन्न हुआ ई इस लिये वर मांगो । रावणने कहा कि जिनेन्द्र-भक्तिसे अधिक और कोई वस्तु नहीं जो मैं माँगू । धरणेद्रने कहा कि यह आपका कहना ठीक है, जिनेन्द्र-भक्तिसे ही मनुष्य बड़े २ सांसारिक पद और परम्परा मोक्ष प्राप्त कर सकता है, तो भी हमारा तुम्हारा मिलन निरर्थक न जावे; इसलिये अमोघ विनया नामक शक्ति मैं तुम्हें देता हूं। तुम इसे ग्रहण करो। रावणने धरणेद्रके द्वारा दी हुई शक्ति ग्रहण की । और करीब १ मास तक कैलाश पर्वत पर रहा। (२२) (क) कैलाशसे आकर रावण दिगविनयके लिये 'निकला । संपूर्ण राक्षसवंशी और वानरवंशी विद्याधरोंने रावणकी आधीनता स्वीकार की। (ख) फिर रावण रथनपुरके स्वामी इन्द्रको विनय करने चला । पाताल लंकामें जाकर डेरा दिया। वहांके Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० दूमरा भाग। स्वामी स्वदूरषणने-जो रावणका बहिनोई था-रावणको रत्नोंका अर्घ दिया और आधीनता स्वीकार कर अपनी सेना रावणकी सेवामें उपस्थित की। खरदूषणको रावणने अपने ही समान सेनापति बनाया । खरदूषणकी सेनामें हिडम्ब, हैहिडंब, विकट, स्त्रिजट, हय, माकोट, सुनट, टंक, किहिकन्धाधिपति, सुग्रीव, त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल, वसुन्दर, आदि अनेक राजा थे। रावणकी सेना एक हजार अक्षौहिणीसे भी कुछ अधिक हो गई थी। (ग) खरदूषण पाताललंकाके चन्द्रोदर नामक विद्याधरके मर जाने पर वहांका अधिकारी बन गया था। और उसकी स्त्री अनुराधाको निकाल दिया था। अनुराधा उस समय गर्भिणी थी । अतएव बड़े कष्टोंसे वह बन २ भटकती फिरी और इसी प्रकारकी दुःखमय स्थितिमें उसने प्रसुति की। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । पुत्रका नाम विराधित रक्खा गया। जब यह बड़ा हुआ तब अपने शत्रु खरदूषणसे बदला लेने का प्रयत्न करने लगा। परन्तु इसका कोई सहायक नहीं था। जहां जाता वहां इसका कोई सन्मान नहीं करता। लाचार निनेन्द्रके मंदिरोंकी वंदना करना तथा तटस्थ होकर आकाश मार्गसे पृथ्वीके संग्रामादिको देख कर ही मनोविनोद करना इसने उचित समझा। . (घ) पाताल लंकासे चल कर रावण विंध्याचल पर्वत परसे होता हुआ नर्मदाके तट पर आया । और वहां डेरा दिया । इसके डेरेसे कुछ ऊंचास पर माहिस्मती नगरीका राजा सहस्ररस्मि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ७१ जलयन्त्र के द्वारा जल बांध कर अपनी रानियों सहित क्रीडा कर रहा था । प्रातःकाल जब रावण जिनेन्द्रकी पूजा करने लगा तब सहस्ररस्मिके जलयंत्रोंसे बंधा हुआ जल छूट गया और जलप्रवाह बड़े वेग से रावणके स्थान पर आया । रावणने जिनेन्द्रकी प्रतिमाको मस्तक पर रख कर सहस्र रम्मिको पकडने की आज्ञा दी और आप फिर जिनेन्द्रकी पूजा करनेमें लग गया । आज्ञा पाकर कई राजा, सेना सहित सहस्ररस्मिको पकड़ने गये । पहिले ramat सेना आकाश मार्ग से मायामयी शस्त्रास्त्रोंके द्वारा युद्ध करती थी । परन्तु देववाणीके द्वारा देवोंने इसे अन्याय युद्ध कहा क्योंकि सहस्ररस्मि भूमिगोचरी था और भूमि परसे युद्ध कर रहा था । तत्र रावणकी सेना लज्जित हो पृथ्वी पर आई; दोनोंमें घोर युद्ध हुआ । सहस्ररस्मिकी सेना पहिले हटी परन्तु फिर सहस्ररस्मिके युद्ध के लिये स्वयं उद्यत होने पर उसने रावणकी सेनाको हटाया | रावणकी सेना करीब १ योजन पीछे हट गई । यह संवाद सुन रावण स्वयं आया । और युद्ध कर सहस्रर स्मिको जीता पकड़ा। उस समय सन्ध्या हो गई थी । रात्रि में सहस्ररस्मि कैद रहा । सहस्ररस्मिके पिता शतबाहुने- जिन्होंने मुनि दीक्षा ले ली थी - जब सहस्ररस्मिके कैद होनेका वृत्तांत सुना तब स्वयं रावण के पास आये । रावणने मुनि शतबाहुकी बहुत अभ्यर्थना की । शतबाहुने सहस्ररम्मिको छोड़नेके लिये कहा । रावणने सहखरस्मिको छोड़ कर उनसे कहा कि मैं आपकी सहायता से इन्द्रको जीतूंगा और फिर तुम्हारा मेरी पत्नी मंदोदरीकी छोटी बहिन के Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ दूसरा भाग। साथ विवाह करा दूंगा। परन्तु सहस्ररस्मिने कहा कि मुझे अब वैराग्य हो गया है. इसलिये मैं अब इन सांसारिक कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होना चाहता । यह कह कर अपने पिता मुनि शतबाहुसे दीक्षा ली और अपने मित्र अयोध्याके स्वामी अरण्यके पास दीक्षा ग्रहणके समाचार भेजे । अरण्यने भी सहस्त्ररस्मिके दीक्षा ग्रहणके समाचार सुन दीक्षा ली क्योंकि दोनों मित्रोंमें एक साथ दीक्षा लेनेकी प्रतिज्ञा थी। (ङ, यहांसे रावण फिर आगे उत्तर दिशाकी ओर बढ़ा । मार्गमें सम्पूर्ण रानाओंको वशमें करता, चलता था। जिन मंदिर बनवाता था । जीर्णोद्धार करता था । हिंसकोंको दण्ड देता था । दरिद्रियोंको दान देता और जैनियोंसे प्रेम करता था। (च) मार्गमें राजपुर नामक नगर मिला । वहाँका राजा मरूत यज्ञ कर रहा था । देवर्षि नारद आकाश मार्गसे जा रहे थे । उन्होंने राजपुरमें विशेष चहल पहल देखी । नारदका स्वभाव कौतूहली था। वे पृथ्वी पर उतरे । जब उन्होंने देखा कि राजा यज्ञ कर रहा है और उसमें पशुओंका हवन कर रहा है तब नारदने राजासे यज्ञ न करनेके लिये कहा । इस पर रानाने कहा कि हम कुछ नहीं समझते । हमारे यज्ञाचार्य सम्वर्तसे आप धार्मिक चर्चा करो। तब नारद और सम्बर्तमें विवाद हुआ । जब सम्वर्त नारदको न जीत सका तब कई यज्ञकर्ता ब्राह्मणों के साथ नारद पर आक्रमण करने लगा । नारदने भी अपने शारीरिक अंगों द्वारा उनके प्रहारोंको बचाया और स्वयं प्रहार किया। परन्तु प्रहार करनेवाले अधिक थे इसलिये नारदके प्राण संकटमें आ पड़े। इधर रावणका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ७३ दूत राजपुरके राजाके पास आया था, उसने जब यह हाल देखा. तब वह दौड़ा हुआ रावणके पास गया। और नारदको यज्ञकर्ताओं द्वारा दुःख पहुंचानेके समागर कहे । रावणने अपने कई सामन्तोंको नारदकी रक्षाके लिये भेना। और स्वयं भी तेन बाहनों पर चढ़ कर वहां पहुंचा । नारदको उनसे बचाया और यज्ञकर्ताओंको बहुत पीटने लगा । यज्ञकर्ता, रावणसे विनय अनुनय करने लगे और आगेसे ऐसा न करनेकी प्रतिज्ञा की : तब नारदने रावणको समझा कर यज्ञकर्ताओंको छुड़ाया । राजापुर नरेशने भी रावणकी स्तुति कर आधीनता स्वीकार की और अपनी पुत्री कनकप्रभाका रावणसे विवाह किया। रावण वहां एक वर्ष तक रहा । कनकप्रभासे कृतचित्रा नामक पुत्रीका जन्म हुआ। (छ) रावणको इसी बीचमें इतना समय लग गया कि कृतचित्रा विवाह योग्य हो गई थी। इसलिये रावणने मंत्रियोंसे सलाह ली कि कृतचित्राका विवाह किसके साथ करना उचित है । क्योंकि इन्द्रके साथ युद्ध करनेमें जीतनेका कुछ निश्चय नहीं अतएव कृतचित्राका विवाह कर डालना उचित है। तब मथुरके नरेश हरिवाहनने अपने पुत्र मधुको बुला कर रावणको दिखलाया। मधु विद्वान् , रूपवान, चतुर और विनयी था। रावणका भक्त था । रावणने उसे पसंद किया। मंत्रियोंने भी उसीके लिये सम्मति दी । अतएव रावणने कृतचित्राका विवाह मधुके साथ कर दिया । मधुको असुरेन्द्रके द्वारा त्रिशूलरत्नकी प्राप्ति भी हुई थी। क्योंकि असुरेन्द्र और मधु दोनों पूर्व Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । जन्मके मित्र थे । असुरेंद्र पूर्वजन्म में दरिद्री था और मधु राजा था । मधुके जीवने दरिद्रमित्रको धन धान्यादि सामग्री से पूर्ण कर अपने समान बना लिया था । पूर्वजन्मकी इस कृपा के बदले में असुरेंद्रने मधुको त्रिशूलरत्न दिया था । (ज) कृतचित्राका विवाह कर रावण सेना सहित आगे बढ़ा । और कैलाश पर्वतके निकट पहुंचा । गंगाके तटपर डेरा डाला । यहां तक आने में रावणको १९ वर्षका समय लगा । यहींसे इन्द्रसे युद्ध करना था | क्योंकि इन्द्रका नलदूंवर नामक लोकपाल इसी स्थान के समीप उधिपुरमें रहता था । जब लोकपालने रावणका आना सुना तब उसने इन्द्रको दूतों द्वारा पत्र भेजा । इन्द्र पाण्डुक वनके चैत्यालयोंकी वंदनाको जा रहा था । नलदूंवर के दूत उसे मार्गही में मिल गये । इन्द्रने उत्तर दिया कि तुम नगरकी रक्षा करो | मैं 1 बहुत शीघ्र दर्शन करके लौटता हूं। तब नलदूंवरने नगरके आसपास सौ योजन ऊँचा और तीन योजन चौड़ा वज्रशाल नामक कोट बनवाया । इसकी बुर्जे सर्पाकृतिकी थीं। इसमें से अग्निके फुलिङ्गे निकलते थे । एक योजन में ऐसे यन्त्र बना दिये थे जो मनुष्योंको जीता ही निगल जाते थे । रावण मन्त्रियों सहित इस यन्त्र रचनाको तोड़नेके विचार में लगा । इधर नलदूंवर की स्त्री रावण पर आसक्त थी । उसने रावणके पास अपनी दूती भेजी । रावणने पहिले तो दूतीको यह दुष्कृत्य करनेके लिये अस्वीकार किया । परन्तु विभीषण आदि मन्त्रियोंने कहा कि राजा छलकपट करके भी अपनी कार्य सिद्धि करते हैं । अतएव नलदूँवरकी स्त्रीको यहां बुला लो | वह आप पर आसक्त है । अतएव नगरविजयका मार्ग - ७४ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ७५ आपको सम्भव है कि वह बतला दे । रावणने यही उपाय किया। और उसकी सखीसे कहा कि तुम्हारा कहना हमें स्वीकार है। उसे यहां ले आओ । उपारम्भा (नल(वरकी स्त्री) रावणके पास आई और सम्भोग करनेकी इच्छा प्रगट की । रावणने कहा कि मेरी इच्छा उर्लघिपुर नगरमें तुम्हारे साथ रमनेकी है । अतएव नगरके कोटको नष्ट करनेका उपाय बताओ । तब उसने आसाल नामक विद्या दी । और नानाप्रकारके दिव्यास्त्र दिये, जिनके द्वारा रावणने उस रचनाको नष्ट किया। नलदूंबर रावणको नगर जीतते देख युद्धके लिये सन्मुख हुआ । दोनों ओरसे युद्ध हुआ पर विभीषणने उसे पकड़ लिया । रावणने नलदूंबरकी स्त्रो उपारम्भाको बहुत समझा कर दुष्कृत्यसे परांगमुख किया । उसकी बात गुप्त रक्खी । नलदूबर अपनी स्त्र की कुचेष्टाओंओ नहीं जान सका । नलदूंबरने रावणकी आधीनता स्वीकार की। रावणने उसे छोड़ दिया। यहां रावणके कटकमें सुदर्शनचक्र-रत्न उत्पन्न हुआ। (झ) इस तरह नलदूंबरको जीत रावण आगे बढ़ा और वैताव्य पर्वतके समीप डेरा डाला । इन्द्रने रावणको समीप आते देख पितासे कहा कि मैंने कई वार रावणको नष्ट कर डालनेका विचार किया परन्तु आप मनाही करते रहे, अब शत्रु प्रबल हो गया है। अब क्या उपाय करना चाहिये ? इन्द्र के पिता सहस्त्रारने कहा कि तुम शीघ्रता मत करो, मंत्रियोंसे सम्मति मिला लो। हमारी समझसे रावण प्रबल है उससे युद्ध करना उचित नहीं। उससे मिल लेना ही ठीक है और अपनी रूपवती कन्याका भी उसके साथं पाणि ग्रहण करना ठीक है । इस पर इन्द्रको क्रोध उत्पन्न Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। हुआ । उसने पिताके वचनका तिरस्कार करते हुए कहा कि संग्राममें प्राण देना उचित है परन्तु किसीके आगे नम्र होना उचित नहीं । यद्यपि हम दोनों विद्याधर होनेके नाते बराबर हैं परन्तु विद्या, बुद्धि और बलमें हम रावणसे अधिक हैं । ऐसा कह कर आयुधशालामें ना युद्धी तैयारी करने लगा। रावण और इन्द्रमें घोर युद्ध हुआ। अंतमें इन्द्रको रावणने पकडा । तब इन्द्र के पिताने रावणसे मिल कर इन्द्रको छुड़ाया। इस पर इन्द्र बहु उदास हुआ और उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । इतनेमें वहां चारण मुनि आये । उनसे इन्द्रने दीक्षा धारण की । (ञ) इस प्रकार इन्द्रको जीत कर रावण चैत्यालयोंकी वंदनाके लिये गया । मार्ग में अनंतवीर्य केवलोकी गंधकुटी देख वहां केवलो भगवान्के दर्शनार्थ रावण गया । कुम्भकर्ण, विभीषण आदि भी साथमें थे। कुम्भकर्णने धर्मका विशेष व्याख्यान सुननेकी निज्ञामा प्रगट की । रावणादिने उपदेश सुना तब धर्मरथ मुनिने रावणसे कुछ प्रतिज्ञा लेनेके लिये कहा । तब रावणने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक कोई पर स्त्री मुझे न चाहेगी, मैं उसके साथ संभोग नहीं करूंगा। कुम्भकर्णने जिनेन्द्रका अभिषेक प्रति दिन करने तथा मुनियोंके आहारका समय टल जाने पर आहार करनेकी प्रतिज्ञा ली । विभीषण और हनुमानने श्रावकके व्रत धारण किये। .. ..(२३) रावणके १८००० रानियां थीं । रावण प्रतिनारायण थे । और इनका जन्म भगवान् मुनिसुव्रतनाथको मोक्ष हो जानेके बाद हुआ था। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ७७ पाठ २४. नारद ( १ ) 1 एक बह्मरुचि नामक ब्राह्मण था । उसकी स्त्रीका नाम कुर्मी था । वह ब्राह्मण तापसी हो गया । और वन में जाकर कन्द - फल फलादिसे उदर निर्वाह करता हुआ रहने लगा । उसकी स्त्री उसके साथ रहती थी । वहां उसे गर्म रहा । एक समय कुछ मुनि वहाँ आये । तापसी ब्रह्मरुचि अपनी स्त्रीके साथ उनके पास गया । स्त्रीको गर्भिणी देख मुख्य मुनिराजने तापसीसे कहा कि भाई ! जब तूने संसारको छोड़ वनमें रहना स्वीकार किया है फिर कामादिका सेवन क्यों करता है ? मुनिके उपदेश से उसने मुनिव्रत स्वीकार किया । स्त्रीने भी श्रावकके व्रत लिये और वनमें ही रहने लगी । दशवें मास पुत्र प्रसव किया । पुत्र लक्षणों मे धर्मात्मा और पुण्यात्मा प्रतीत होता था । कुर्मीने विचार किया कि जीवोंका इष्टानिष्ट कर्माधीन है। माताकी गोंद में रहते भी पुत्र मरणको प्राप्त हो जाया करते हैं तो यदि मैं इस पत्र के साथ भी रहूं तो भी कुछ लाभ नहीं । जो कुछ इसके भाग्यमें होना होगा वह होगा यह विचार कर पुत्रको वनमें छोड़ अलोकनगर में आकर इन्द्रमालिनी नामक आर्यिका से दीक्षा ली । इधर उस पुत्रको ज्रभ्भ नामक देव उठा कर ले गया । और उसका लालन पालन कर विद्या पढ़ाई । वह बड़ा विद्वान् हुआ । उसे युवा अवस्था में ही आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हुई । और उसने क्षुल्लके व्रत धारण किये। परन्तु उसका स्वभाव न तो Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। अधिक वैराग्यमय था और न गृहस्थावस्थाका ही प्रेमी था । महाशीलवान् था । कौतूहली था । कलहप्रिय था । गानेका बहुत बडा शौकीन था। इसका राजा महाराजाओं पर बहुत प्रभाव पड़ता था। पुरुष स्त्रियोंमें बहुत इप्सका सन्मान था । सदा आकाशमार्गमें भ्रमण किया करता था । लोग इसे देवर्षि कहकर पुकारते थे । इसका दूसरा नाम नारद था। इनकी गणना १६३ महा पुरुषोंमें है । ये मोक्षगामी हैं । पर इस पर्यायसे नरक गये हैं क्योंकि यह कलहप्रिय थे । स्थान २ पर इनके सम्बन्धमें नो वर्णन आया है उससे पाठक इनके स्वभावका परिचय पाजावेंगे। पाठ २५. हनुमान । (१; विनयाई पर्वतको दक्षिण श्रेणी में आदित्यपुर नामक नगर था। वहांके राजाका नाम प्रह्लाद था । उनकी राणी केतुमती थी । राना प्रह्लाद जैनी और राणी केतुमती नास्तिक थो। इनके पुत्रका नाम पवनञ्जय था। पवनञ्जयका दूसरा नाम वायुकुमार भी था। (२) पवनञ्जयके साथ महेन्द्रपुरके राजा महेन्द्र ने अपनी पुत्री अञ्जनीका विवाह करनेका विचार किया । राजा महेन्द्र कैलाश पर्वत पर आये । प्रह्लाद भी उन्हें वहां आ मिले। तक राजा महेन्द्रने अपने विचार प्रगट किये । राना प्रह्लादने उनके कथनको स्वीकार किया । ज्योतिषियोंने तीन दिनके बाद ही मान Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ प्राचीन जैन इतिहास | सरोवर के तट पर पवनंजय और अञ्जनाके विवाहका मुहूर्त दिया । (३) पवनञ्जय ने जब अपने विवाहका समाचार सुना तब उन्हें अञ्जनाको देखने की प्रबल इच्छा हुई । अपनी इच्छा को उन्होंने प्रहस्त नामक मित्रसे प्रगट की । अञ्जना बड़ी विदुषी, रूपवान् और चित्रकला - प्रवीण नारी थी । पवनञ्जय और प्रहस्त विमानोंद्वारा अंजनाको देखनेके लिये गये ! अंजना उस समय अपनी दासियों के साथ महलके झरोखों में बैठी हुई थी। इसके रूपको देखकर पवनंजय सन्तुष्ट हुआ । उस समय दासी वसंततिलकाने पवनंजय के साथ पाणिग्रहण होनेके कारण अंजनाके भाग्यको सराहा । परन्तु दूसरी दासीको पवनंजयकी प्रशंसा अच्छी नहीं लगी ! उसने कहा कि पवनंजय अयोग्य वर है । यदि विद्युत्प्रभकुमारसे सम्बन्ध होता तो उचित था । पवनंजयको दासीके इन वचनों से क्रोध उत्पन्न हो आया । और वह दासी तथा अंजनाको मारनेका विचार करने लगा। परन्तु प्रहस्त मित्रके अनुरोधसे उसने अपने क्रोधका संवरण किया और डेरे पर आकर अपने नगरको जाने के लिये उद्यत हुआ तब पिता और श्वसुरने बहुत रोका । अंत में - यह निश्चय कर कि विवाह करके अंजना को छोड़ दूगा वहीं ठहर गया । (४) मानसरोवर पर विवाह हुआ । पवनञ्जय अपने निश्चयके अनुसार अंजना से सम्बंध नहीं रखता था । अंजना पतिकी अप्रसन्नता से सदा दुखी रहती थी। वह महा सती और प्रतिव्रता थी । इस दुःखके कारण यहां तक शक्ति हीन हो गई थी कि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। अपने पतिका चित्र बनाते समय भी वह लेखनीको स्थिर नहीं रख सकती थी। ___(५) कितने ही वर्षों के बाद एक वार रावणने वरुणसे युद्ध ठान रक्खा था । और वरुणके पुत्रने खर-दूषणको पकड़ लिया था। इस कारण रावणने अपने कई आधीन रानाओंको सहायतार्थ बुलाया था । अतः प्रल्हाद जानेको उद्यत हुए । परन्तु पवनंजयने पितासे कहा कि मेरे होते हुए आपको जाना उचित नहीं। विशेष अनुरोधसे पिताकी आज्ञा प्राप्त कर पवनंजय रावणकी सहायतार्थ चले । उस समय पतिके दर्शनार्थ अंजना द्वार पर आई। इस पर पवनंजय बहुत क्रुद्ध हुआ । पवनंनय सेनाके सहित चले और मानसरोवर पर डेरा डाला । वहां चकवीको चकवाके वियो. गसे दुःखी देख उन्हें अंजनाके दुःखका भान हुआ और अब वे अंजनासे मिलनेके लिए विकल होने लगे। परन्तु पितासे विदा हो कर आये थे इससे किस प्रकार घर लौटना, इस पर विचार करने लगे। भित्र प्रहस्तसे सम्मति ली । अंतमें बहाना करके जानेका निश्चय किया। (६) तदनुसार मुद्गर नामक सेनापतिको सेनाका भार कर दोनों मित्र चेत्यालयोंकी वंदनाके बहाने अपने घर आये । वहां अंजना और पवनंजयका संयोग हुआ। प्रातःक ल जब पवनंजय जाने लगे तब अंजनाने गर्भकी आशंका प्रगट का और माता पितासे अपने आनेके समाचारोंको कहनेके लिये पवनंजयमे अनुरोध किया ! पर पवनंजय वैसा करना उचित न समझ सरना कंकण और मुद्रिका अंजनाको दे शीघ्र आनेका वचन दे कर चले गये। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ८९ .. (७) अंजनाको गर्म रहा । पबनंजयको माताने अंजना पर व्यभिचारका दोष लगाया । और क्रूर नामक कर्मचारीके साथ अंजनाको उसके पिताके नगरके समीप वनमें छुड़ा दिया । (८) अंजना पिताके यहां गई परन्तु उसकी ऐसी स्थिति देख पिताने भी दुराचारिणी समझ अपने नगरसे निकलवा दी । दूसरे रिश्तेदारोंने भी उसे आश्रय नहीं दिया । तब अपनी सखी वसंतमालाके साथ वनमें चली गई । (९) वन महा-भयंकर था । किसी गुफामें रहनेका विचार कर दोनों एक गुफामें पहुंची । उसमें एक चारण ऋद्विधारी मुनिके दर्शन हुए। दोनोंने वंदना कर अंजनाके कर्मोंका वृत्तांत पूछा । मुनिने सब वृत्तान्त कह धीरन बंबाया और आकाश मार्गसे चले गये । दोनों बाला वहां रहने लगीं । एक रात्रिको वहां सिंह आया । वसन्तमाला स० शस्त्र थी। उसने अञ्जनाके रक्षकका कार्य किया; परन्तु भयभीत दोनों थीं। यह देख अपनी स्त्रीके अनुरोबसे उस गुफाके रक्षक एक गन्धर्व देवने अष्टापदका रूप धारण कर सिंहको भगाया और इन दोनोंका भय दूर किया । (१०) उस गुफामें दोनों बालाएँ मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा विराजमानकर उसको भक्ति करने लगीं। उसी गुफामें अञ्जनाकी प्रसूति हुई । बालकके जन्मसे अँधेरी गुफा प्रकाशित हो गई । बालक बड़ा शुभ लक्षणवाला था । उसे देखनेसे अञ्जनाको परम सन्तोष हुआ । अञ्जनाके पुत्रका जन्म चैत्र मुदी ८ (अष्टमी) को अर्द्धरात्रिके समय हुआ। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । जाते देख करने लगी । विमान नीचे ८२ सब वृत्तान्त (११) दूसरे दिन आकाशमार्गसे एक विमान इन्हें फिर भय हुआ | अञ्जना भयके कारण रुदन एक अबलाकी आक्रन्दन ध्वनि सुन विमानवालोंने उतारा । और उस गुफामें आकर बड़ी नम्रता से पृछा । वे हनुरुद्ध द्वीप के स्वामी राजा प्रतिसूर्य थे जो कि अञ्जनाके मामा थे । जब उन्होंने अपना वृत्तान्त प्रगट किया तब अञ्जनाको परम हर्ष हुआ । अञ्जनाका दुखमय वृत्तान्त सुन प्रतिसूर्य ने उन्हें अपने घरपर चलने के लिये कहा । अञ्जना और उसकी सखी दोनों प्रतिसूर्यके विमानपर आरूढ़ हो चलीं । पुत्रको खिला रही थी कि (१२) मार्गमें अञ्जना अपने उसके हस्तसे बालक छूट पड़ा और नीचे जमीनपर आ गिरा । सब विलाप करने लगे । अञ्जना विकल हो गई। फिर विमान नीचे उतारा गया । और बालकको देखा तो एक पर्वत पर बालक पड़ा हुआ हँस रहा है । बालकके आघातसे पर्वतके खण्ड २ हो गये थे । क्योंकि यह चरमशरीरी था और कामदेव था । बालक 1 का यह प्रताप देख सब प्रसन्न हुए और इसे भावी सिद्ध समझ कर प्रतिसूर्यने सह-कुटुम्ब तीन प्रदक्षिणा दे नमस्कार किया । वहांसे बालकको उठा विमानके द्वारा हनुरूह द्वीप पहुंचे। वहां बहुत उत्सव किया गया । और पर्वत पर गिरने तथा पर्वत खण्ड करनेके कारण बालकका नाम श्रीशैल रक्खा | और हनुरूह क्षेत्र में आनेके कारण दूसरा नाम हनुमान भी रखखा । इस प्रकार हनुमानका जन्म हुआ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ८३ ___(१३) इधर हनुमानके पिता पवनंजयने वरुणको जीता और उसे रावणकी शरणमें लाये । इस पर युद्ध समाप्त होने पर जब पवनञ्जय घर पर आये तब मातापितादिका अभिवादन किया। मित्रको अञ्जनाके महलोंमें भेना । परन्तु वहां जब उसे न देखा तब इधर उधर तलाश कर दोनों मित्र राना महेन्द्रके यहां गये । वहां भी जब न पाई तब वनमें गये । और हाथी व वस्त्राभूषणका त्याग कर वियोगी योगीका रूप धारण किया । और अपना समाचार मित्रके द्वारा पिताके पास भेजा। __(१४) पिता, श्वसुर, मामा आदि कुटुम्बी पवनञ्जयके पास आये । माता पिताने समझाया पर पवनं नय न माने । तब मामा प्रतिसूर्यने जब अञ्जनाके समाचार कहे तब उनका चित्त शान्त हुआ। और सहकुटुम्ब हनुरूह द्वीप गये । वहांसे अन्य सब चले आये । पवनञ्जय, हनुमान, अञ्जना वहीं रहे । (१५) इधर वरुणने फिर रावणके विरुद्ध शिर उठाया । . अतः रावणने अपने आधीनस्थ राजाओंका स्मरण फिर किया । तब प्रतिसूर्य और पवनञ्जय, हनुमानको राज्य दे युद्ध में जानेको तैयार हुए । परन्तु हनुमानने वैसा न करने दिया और स्वयं युद्धमें गया । रावणने इसका बहुत सत्कार किया। युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई । शत्रुके पुत्रोंको बन्दी किया। युद्ध समाप्त होनेके बाद रावणने अपनी बहिन चन्द्रनखाकी पुत्री अनङ्गकुसुमाके साथ हनुमानका विवाह किया । और कर्णकुण्डलपुरका राज्य दिया । (१६) किहकंपुरके राना नलकी पुत्री हरमालतीके साथ भी हनुमानका विवाह हुआ। यहां एक हजार स्त्रियों के साथ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। हनुमानने विवाह किया । यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि पूर्वकालमें कन्याओंका विवाह पूर्ण युवावस्थामें हुआ करता था। वर्तमान कालके समान अबोध बालिकाएं नहीं ब्याही जाती थीं। जहां २ विवाहका प्रसङ्ग आया है पुराणकारोंने कन्याओंके यौवनकी प्रशंसामें बहुत कुछ लिखा है। साथमें पहिलेकी कन्याएं प्रायः अपने पतिको स्वयं चुनतीं थीं। इसके लिये यातो स्वयंवर किया जाता था या चित्रका उपयोग होता था। राजा सुग्रीवकी पुत्री पद्मरागाको जब कई राज-कमारोंके चित्र दिखलाये गये तब वह हनुमानके चित्रको देख कर उनके साथ विवाह करनेको स्वीकृत हुई । इसी तरह पद्मरागाका चित्र हनुमानने देख कर विवाह करना स्वीकार किया। - (१७) इन्द्रके साथ युद्ध में भी हनुमान राबणके साथ थे। (१८) जब दिग्विजय कर रावण लौट रहा था तब हनुमानने अनंतवीर्य श्रुत केवलीके पाससे श्रावकके व्रत लिये । (नोट) हनुमानका इससे आगेका वर्णन प्रसंगानुसार दिया जायगा। पाठ २६. रामचन्द्र-लक्ष्मण । ( आठवें बलदेव और नारायण ) तथा उनके साथी अन्य प्रसिद्ध पुरुषः(१) महाराज दशरथ राजा अरण्यके पुत्र ये । जब राजा अरण्यने पुत्र अनंतवीर्यके साथ दीक्षा ली तब राज्य-भार दशर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचीन जैन इतिहास। ८५ यको दिया । दशरथने दर्भस्थलके राजा कौशलकी पुत्री कौशल्या और कमलशंकुल नगरके राना सुबंधुकी पुत्री सुमित्रा और महारान नामक राजाकी पुत्री सुप्रभासे विवाह किया। (२) दशरथ बड़े धर्मात्मा थे । उन्होंने अपनी माताके बन. चाये मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया । दशरथको सम्यग्दर्शन हो गया था । दशरथने नवीन मंदिर भी बहुतसे बनवाये थे। (३) एक दिन नारदने आकर दशरथसे कहा कि रावणसे किसी निमित्तज्ञानीने कहा है कि दशरथ और जनककी संतानके द्वारा रावणका मरण होगा। इस पर विभीषणने आप दोनोंको ( दशरथ और जनकको ) मारनेका प्रण किया है । इस पर इन दोनों राजाओंको नारदने राज्यसे निकल जानेकी सलाह दी और मंत्रियोंने अपने २ राजाओंके पुतले इस प्रकारके बनवाये जो इन्हींके रूप-रंगके थे । तथा उनमें शारीरिक कोमलता थी; और कृतिम रक्त भी था। उन पुतलोंको महलों में रख कर यह प्रसिद्ध कर दिया कि महाराज बीमार हैं । रावणके दूत राजाओंकी बीमारीका वृत्तांत ले कर विभिषणके पास आये । विभीषणने आकर दोनों पुतलोंका सिर काट समुद्रमें डाला । और रावणके मारे जानेके मयसे निश्चिन्त हो गया। परन्तु पीछे इस घोर पापका विचार कर पश्चात्ताप किया और आगेसे ऐसा कुकर्म न करनेकी प्रतिज्ञा की। (४) दशरथ और जनक घूमते २ कौतुकमंगल नगर पहुंचे। वहांके राजा शुभमति और रानी पृथुश्रीकी पुत्री कैकयीका स्वयंवर हो रहा था । कैकयी बड़ी विदुषी कन्या थी। नाट्यशास्त्र, युद्धशास्त्र, सङ्गीतशास्त्र, षड्दर्शन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। और व्याकरणमें निपुण थी। ये दोनों राजा भी स्वयंवरमें एक ओर जाकर खड़े हो गये । कैकयीने लक्षणोंसे दशरथको किसी बड़े कुलका और प्रतापी समझ उनके गलेमें वरमाला डाली। इस पर अन्य कई उपस्थित राजकुमार बड़े अप्रसन्न हुए। और युद्ध करनेको तैयार हुए। इनमें हेमप्रभ मुख्य था । दशरथने युद्ध किया । कैकयीने उनके रथके सारथीपनेका कार्य किया। कैकयीने इस चतुरतासे सारथीका कार्य किया कि एक मात्र दशरथने हज़ारों योद्धाओंको जीता । कैकयीके इस कार्यसे प्रसन्न हो दशरथने उसे वर मांगनेके लिये कहा । कैकयीने कहा कि आव. श्यकता पड़नेपर इस वरका उपयोग करूंगी। दशरथने स्वीकार किया। (५) रावणद्वारा आई हुई विपत्ति दूर होजानेपर दशरथ राज्यमें आ गये । यहाँ रामचन्दका जन्म कौशल्याके गर्भसे हुआ। गर्भके समय कौशल्याको चार स्वप्न आये । पहिले स्वप्नमें ऐरावत हाथी देखा । दूसरे स्वप्नमें केशरीसिंह, तीसरे और चौथेमें क्रमशः सूर्य और पूर्ण चन्द्र देखे । इन स्वप्नोंके फलके लिये रानी पतिके पास गई । पतिने कहा कि इन स्वप्नोंपरसे विदित होता है कि तुम्हारी कुक्षिसे मोक्षगामी, परमबलवान् पुत्र उत्पन्न होगा । समचन्द्रके जन्म समय बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया । ... (६) सुमित्राके गर्भसे लक्ष्मण उत्पन्न हुए । इनके गर्भ में आते समय सुमित्राने भी उत्कृष्ट स्वप्न देखे थे। जिस दिन दशरथके घर लक्ष्मणका जन्म हुआ उसी दिन रावणके घर अशुभ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ८७ घटनाएँ हुई। (७) फिर कैकयीसे भरत और सुप्रमासे शत्रुघ्न उत्पन्न ८) जब ये चारों पुत्र बड़े हुए तब इन्हें पढ़नेके लिये गुरूको सौंपा । इनका-बाणविद्याका गुरु आरिनामक एक ब्राह्मण था। पाठ २७. सीताके पूर्वज, सीताका जन्म और रामलक्ष्मणादिका विवाह । (१) भगवान् मुनिसुव्रतनाथके पुत्र रानासुव्रतने बहुत समय तक राज्य किया। फिर अपने पुत्र दत्तको राज्य दे कर दीक्षा ली और मोक्ष गये । (२) दत्तका पुत्र एलावर्धन, एलावर्धनका श्रीवर्धन, श्रीवर्धनके श्रीवृक्ष, श्रीवृक्षके सञ्जयन्त, सञ्जयन्तके कुणिमा, कुणिमाके महारथ, महारथके पुलोमई आदि अनेक राजाओंके पश्चात् महाराज वासबकेतु हुए । ये मिथिला नगरीके राजा थे । इनकी राणीका नाम विपुला था । इनसे महाराजा जनक उत्पन्न हुए । (३) महारान जनकको राणीका नाम विदेहा था। इनसे पूत्र और पुत्रीका एक साथ जन्म हुआ । परन्तु पुत्रको उसके पूर्व जन्मका वेरी एक देव आकर ले गया । पहिले तो वह द्वेषसे मारनेके अभिप्रायसे ले गया था परन्तु पीछे इस कार्य को बुरा समझ अपने पाससे आभूषण पहिनाकर नवनात बालकको पृथ्वी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग । ८८ पर रख गया । पुत्रहरणसे विदेहको बहुत कष्ट हुआ | जनकने दशरथकी सहायतासे बालकको बहुत ढूंढाया परन्तु नहीं मिला । जनक बहुत छोटे राजा थे । सम्भव है कि वे केवल मिथिला नगरीके ही राजा हों। क्योंकि उन्हें छोटी २ बातों में महाराज दशरथकी सहायता लेनी पड़ती थी । a (४) पुत्रीका नाम सीता रक्खा गया । उसे देव द्वारा छोड़े हुए बालकको रथनूपुरका राजा चंद्रगति नामक विद्याधर ले गया और उसे पुत्र समान रक्खा । नगर में यह घोषणा की कि रानीको गुप्त गर्भ था, उससे पुत्र उत्पन्न हुआ है । और बहुत उत्सव मनाया । (५) सीता परम सुंदरी थी । जब सीता युवा अवस्थामें आई तब जनकने रामचन्द्र के साथ इसका विवाह करना चाहा । क्योंकि महाराज जनक रामचंद्र के गुणोंपर उस समय से बहुत मोहित हो गये थे जब अर्द्ध बर्बरदेशके म्लेच्छोंने आर्यावर्त पर आक्रमण किया था । म्लेच्छ बढ़ते २ जब जनककी राज्य सीमापर आये तब जनक और उनके भ्राता कनकने युद्ध किया और महाराज दशरथ से भी सहायता मांगी । दशरथने अपने पुत्र राम, लक्ष्मणको सेना सहित भेजा । जिस समय जनक और कनक म्लेच्छों से युद्ध करते २ म्लेच्छोंके प्रबल आक्रमणके कारण पीछे हट रहे थे, उसी समय उन्हें रामकी सहायता मिली । रामचंद्रने घनघोर युद्ध किया और उन म्लेच्छोंका नाश किया । उनके भाग समय म्लेच्छ सेनामें केवल दश सवार ही शेष रह गये थे । म्लेच्छ महा दुष्ट थे, मांस भक्षी और बड़े अत्याचारी थे, उनका Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ८९ रङ्ग काला और ताम्र वर्ण था । दांत कोढ़ीके समान थे । गेरू आदिके रङ्गसे शरीर रङ्गते थे । छाल पहिनते थे । वृक्षों के पत्तका छत्र उनपर फिरता था । जब इन भयानक पुरुषोंसे रामचंद्रने जनककी रक्षा की तत्र जनकने रामके गुणोंपर मुग्ध हो सीताका उनके साथ विवाह करना चाहा । (६) नारदने जब सुना जनक कि सीताका रामके साथ विवाह करना चाहता है । तब नारद सीताको देखने गये । सीता उस समय अपने निवास गृहमें कांच में मुंह देख रही थी । नारद सीता के पीछेसे आये । कांच में जटाधारी, अपरिचित साधुवेशधारी पुरुषका प्रतिबिम्ब देख सीता डरकर वहांसे भागी । नारद भी महलों में सीता के पीछे जाने लगे । परन्तु द्वारपालोंने रोका और पकड़नेको तैयार हुए। नारद आकाश मार्ग में चले गये । (७) अब नारदको बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और वे सीतासे ईर्षा करने लगे । उन्होंने सीताका एक चित्रपट तैयार किया । और उसे भामण्डल (जो कि सीताका भाई था जिसे देव लेजाकर पृथ्वी पर छोड़ गया था और चन्द्रगति विद्याघर ने अपना पुत्र माना था) को दिखलाया । यद्यपि भामण्डल उसका भाई था । परन्तु उसे यह विदित नहीं था । वह अपनेको चन्द्रगति विद्याघरका पुत्र मानता था । भामण्डल सीता पर आशक्त हुआ । जब यह समाचार चन्द्रगतिको विदित हुए तो उन्होंने चपलवेग विद्याधरको जनकके लाने को भेजा । उस विद्याधरने घोड़ेका रूप धारण कर अपने ऊपर जनकको बिठला चन्द्रगतिके पास आका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ... दूसरा भाग। शमार्गसे उड़ा लाया। चन्द्रगतिने अपने पुत्रके लिए सीताको मांगा । जनकने कहा कि मैंने रामचन्द्रको देना स्वीकार किया है। इस पर बहुत वादविवाद हुआ। अंतमें यह निश्चय हुआ कि विद्याधरोंके पास जो वजावर्त और सागरावर्त नामक धनुष है उनमें से जो वज्रावर्त धनुषको चटकेगा वही सीताका पति होगा। दोनों धनुष जनकके यहां पहुँचाये गये। (८) जनकने स्वयंवर किया । इक्ष्वाकुवंशी, नागवंशी, सोमवंशी, उग्रवंशी, हरिवंशी, क्रूरवंशी, राजागण उपस्थित हुए। जनकने क्रमशः वज्रावर्तके पास रानाओंको मेना परन्तु उन धनुषोंकी विकरालता देख सब भयभीत होकर वापिस आ जाते थे । धनुषमेंसे विजलीके समान चारों ओरसे अग्निकी ज्वाला निकलती • थी, माया रचित सर्प फूंकार करते थे। जब किसी राजाका साहस नहीं हुआ तब रामचंद्रने उस धनुषको चढाया । रामचंद्रके देखते ही वह धनुष शान्त हो गया था। उसको चढ़ाते समय बड़ा भयानक शब्द हुआ था। अब सीताने रामके गलेमें वरमाला डाली। (९) लक्ष्मणने सागरावर्त धनुष चढाया । लक्ष्मणके कृत्य पर मोहित हो विद्याधरोंने अपनी १८ कन्याओंके साथ लक्ष्मणका विवाह किया। (१०) रामका प्रताप और बल देख भरत मन ही मन विचारने लगे कि हम एक माता-पिताके पुत्र और एक कुलके होते हुए भी इनके समान बल और प्रताप मुझमें नहीं है । सीता अद्भुत सुंदरी और परमपुण्यात्मा है ! भरतकी मुखमुद्रासे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ९१ सीताने भरतका अभिप्राय जान रामसे कहा कि नाथ ! मरत मन ही मन उदास हो रहा है । कहीं विरक्त न हो जाय । अतएव मेरे काका कनककी पुत्रीका स्वयंवर करके उसके द्वारा इनके गले में वरमाला डलवा देना उचित है । सीताका कथन सबने स्वीकार किया । तदनुसार कनकने अपनी पुत्री लोकसुंदरीका स्वयंवर किया । लोक सुंदरीने भरतके गलेमें वरमाला डाली । फिर सीता और लोकसुंदरीका क्रमशः राम और भरतके साथ विवाह हुआ । (११) जब इनके विवाह समाचार भटमंडलने सुने तब वह सीताको हरनेके लिये तत्पर हुआ । माता पिताने बहुत समझाया पर न माना और मंत्रीगण सहित अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित हो सीताको हरनेके लिये चला । जब वह उस स्थान पर आया जहां देव इसे जन्मते ही उठा कर रख गया था । भटमंडलको जाति स्मरण हुआ । उसने अपने पूर्बभव तथा वर्तमान भवके वृत्तांत जान लिये । जातिस्मरण होते ही भटमंडल मूर्छित हो गया । मंत्रीगण चंद्रगति के पास ले आये । जब भटमंडल मूर्छा - रहित हुआ तब उसने अपना सब वृत्तांत पिता से कहा और भगिनी सीता के साथ विवाह करनेकी अपनी इच्छाकी निंदा करने लगा । चंद्रगतिने संसारकी पापमय तथा भ्रमपूर्ण दशा देख तप करनेका निश्चय किया । और सर्वमूर्ति आचार्यके पास दीक्षा लेने आया । उस समय सर्वमूर्ति मुनि चातुर्मासके कारण अयोध्या के समीपवाले महेन्द्रोदय नामक वनमें आये हुए थे । चंद्रगति भी वहां आया । वहीं उसने दीक्षा ग्रहण की तथा भटमंडलको राज्य दिया और कहा कि तुम्हारे पूर्व माता-पिता तुम्हारे लिये दुःखी होंगे; तुम Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। भाग उनसे मिलो । दशरथ भी चंद्रगतिके दीक्षाग्रहण उत्सवमें शामिल हुए । रामचंद्र, लक्ष्मण, सीता आदि भी आये । महाराना जनक भी आये । वहीं भटमंडलका सबसे परिचय हुआ । भटमंडलने पिता जनकसे अपने नगरको चलनेके लिये कहा । जनकके भाई कनकको राज्य दिया और भटमंडलके साथ गये । भटमंडल एक मास तक अयोध्या रहे थे ! पाठ २८. महाराज दशरथका वैराग्य, राम लक्ष्मणको वनवास। (१) कुछ दिनों बाद राजा दशरथ फिर आचार्य सर्वभूतिके पास वन्दनार्थ गये । वहां अपने पूर्वभव तथा धर्मोपदेश सुन चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। घर आकर मन्त्री, सामन्त तथा कुटुम्बियोंका दरबार कर उसमें वैराग्य ग्रहण करनेकी इच्छा प्रगट की। कुछ लोगोंने मना किया परन्तु नहीं माना । पिताकी इच्छा देख भरतने भी वैराग्य धारणकी कामना की। कैकयीने जब पति पुत्रको वैराग्य लेते देखा तब पुत्रको वैराग्यसे परांगमुख करनेके लिये राजसभामें आई और आधे सिंहासन पर बैठी। राना दशरथको वैराग्य न लेने के लिये समझाया। जब उन्होंने नहीं माना तब अपना वर चाहा । रानाने कहा कि " मांगो, तुम्हें क्या चाहिये ?" तब रानीने कहा कि राज्य मेरे पुत्रको दो । दशरथने स्वीकार किया । और रामचन्द्रको बुलाकर कहा कि " बेटा ! मैंने तेरी कैकयी माताके कार्यसे प्रसन्न हो एक Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ९३ बार कहा था कि जो चाहो सो मांगो तब कैकयीने कहा था कि अभी मुझे आवश्यकता नहीं है, आप अपना बचन रक्खें; जबआवश्यकता होगी तब मांगूंगी । सो आज जब उसने मुझे और अपने पुत्र भरतको वैराग्य लेते देखा तब मोहसे विह्वल हो पुत्रको वैराग्य से पराङ्गमुख होनेके लिये मुझसे वर माँगा है, कि मैं भरतको राज्य दृ । यद्यपि नीति और न्यायके अनुसार तुम्हें राज्य देना चाहिये परन्तु अपने बचनकी रक्षा तथा कैकयीकी रक्षा के लिये मुझे ऐसा करना पड़ता है । अगर न करूं तो कैकयी प्राण त्याग करेगी । तुम सुपुत्र हो, आशा है कि स्वीकार: करोगे । " रामचन्द्रने उत्तर दिया- "पूज्यवर ! पुत्रका धर्म यही है कि पिताके पावित्र्यकी रक्षा करे । हमारे होते यदि आपके बचन भंग हुए तो हमारा होना न होना समान है । आप मेरी चिन्ताको छोड़ो, मैं अब कहीं अन्यत्र जाकर रहूंगा । ऐसा कह पिता के चरणोंमें नमस्कार कर अन्यत्र जानेको तत्पर हुए | (२) रामको जाते देख दशरथको मूर्छा आगई। फिर माता के पास गये । माताने भी बहुत रोका, साथ चलने का हठ किया, परन्तु सबको समझाकर जानेको उद्यत हुए । पतिको जाते देख सीता भी उद्यत हुई। उसने भी सासु-वसुरसे विदा मांगी। इस घटना से लक्ष्मणको क्रोध उत्पन्न हुआ । और मन ही मन पिताकी निन्दा करने लगे । परन्तु फिर यह विचार कर कि मुझे इन विचारों से क्या ? पिताजी दीक्षा लेनेको उद्यत हुए हैं ऐसे समय में मुझे ऐसे विचार करना अनुचित है । अतएव शान्त हुए और Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ दूसरा भाग। रामचन्द्रके साथ जानेको उद्यत हुए । जब ये दोनों भाई सीताके सहित चले, तब मातापिता, भाई इनके साथ २ जाने लगे। रामने मातापिताको बहुत कुछ समझा कर धैर्य बंधाया और लौटा दिया। नगरके लोग हाहाकार करने लगे। रामचन्द्र के जानेसे सर्व जन दुःखी हुए । सामन्त, मन्त्री आदि बड़ा पश्चाताप तरने लगे। सामन्तोंने भेटे दीं परन्तु रामने कुछ भी स्वीकार नहीं किया । राम लौटाने की चेष्टा करते पर कोई नहीं मानता । अन्तमें नगरके बाहर आकर अर्हनाथ स्वामीके मंदिरमें दर्शनार्थ गये और वहीं रात्रिभर ठहरना निश्चित किया । रात्रिको फिर माता यहां पर आई। अन्तमें सबकों सोते हुए छोड़ अर्द्धरात्रिके समय तीनों जनें उठकर चल दिये। (३) परन्तु कुछ लोगोंकी उस समय भी निद्रा खुल गई और वे रामचंद्रके पीछे हो लिये । उन्हें रामचंद्रने बहुत समझाया। कुछ तो मान कर लौट आये, कई साथ ही में रहे । जब परियात्रा नामक वनमें पहुंचे तब फिर साथियोंको समझाया उस समय भी कुछ अपने २ स्थानोंको लौट गये और कई फिर भी साथमें रह गये । इस वनमें एक महाभयङ्कर अथाह नदी थी। उसके आसपास भीलादि जंगली मनुष्य रहा करते थे । जब इस नदीके तीरपर रामचंद्रादि पहुंचे तब उनके साथी नदीको देखकर बड़े चिन्तित हुए । और रामसे प्रार्थना करने लगे कि आप हमें पार लगाओ। परन्तु रामने लनकी एक भी नहीं सुनी । राम लक्ष्मण, सीता तीनों नदी पार करने लगे। पुण्यके प्रतापसे नदीका जल कमर २ रह गया । यह देख इस तटपर खड़े हुर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ९५ 1 साथी सब आश्चर्य करने लगे और लौटने लगे । विदग्व-विजय, मेरुक्रूर, श्रीनागदमन, धीर, शत्रुदमन आदि राजाओंने दीक्षा ली । कईएकोंने श्रावकों के व्रत लिये । (४) रामके वन चले ज नेके पश्चात् दशरथने सर्वभूति मुनिके पाससे दीक्षा धारण की और तप करने लगे । परन्तु इन्हें कभी २ पुत्रोंका स्मरण हो आया करता था । अन्तमें संसार भावनाका बार २ चितवन करने से दशरथका मोह छूटा | (५) इधर रामचन्द्रकी माता कौशल्या और लक्ष्मणकी माता सुमित्रा पुत्र शोकसे विह्वल रहने लगीं । जब कैकयीने अपनी इन सपत्नियोंकी यह दशा देखी तब उसे करुणा उत्पन्न हुई । उसने पुत्र भरत से कहा कि बेटा, यद्यपि तुम्हारी बड़े २ राजा सेवा करते हैं परंतु राम, लक्ष्मणके विना राज्यकी शोभा नहीं है, वे परम गुणवान् और प्रतापी हैं, उन्हें शीघ्र जाकर लाओ । मैं भी उन्हें लौटा लानेके लिये तुम्हारे पीछे आती हूं । भरत इस आज्ञासे परम संतुष्ट हुए । और रामको लौटा लाने के लिये १००० सवारों तथा कई राजाओं सहित रामके पास गये । छः दिनों में रामचन्द्र के पास पहुंचे । कैकयी भी पहुंच गई बहुत कुछ कहा परन्तु राम नहीं लौटे । प्रत्युत भरतका अपने हाथसे वनमें राज्याभिषेक भी कर दिया । भरत आदि लौट आये | भरतने घर आकर द्युतिमट्टारककी साक्षीसे प्रतिज्ञा ली कि अबकी बार रामचन्द्रका मिलन होते ही मैं दीक्षा धारण करूंगा । तथा श्रावक के व्रत लिये । भरत धर्मात्मा थे । 1 + Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.६ दुसरा भाग संसारकी ओर बाल्यवस्थासे ही उनकी रुचि कम थी । वे दिन में तीनवार जिनेन्द्रका दर्शनपूजन करते थे व दान देते थे । (६) राम चलते २ तापसियोंके आश्रम में पहुंचे। तापसियोंके आश्रम में स्त्रियां भी रहा करती थीं । उन लोगोंने रामका बहुत आविष्य सत्कार किया । वहांसे रामचन्द्र मालवदेशमें आये । इस समय घर छोड़े ४॥ मासके अनुमान हो गया था । मालवदेश की सगला सफला मूर्तिको देखकर इन्हें परम सन्तोष हुआ परन्तु इस देशकी सीमा में कुछ दूर तक आनाने पर भी जब इन्हें बस्ती नहीं मिली तब इन्हें कुछ सन्देह हुआ कि इस परमानन्द दायिनी भूमिमें मनुष्यों की बस्ती क्यों नहीं ? आखिर एक वृक्षके नीचे बैठकर लक्ष्मणको आज्ञा दी कि वृक्षपर से चढ़कर देखो कि कहीं आसपास बस्ती है या नहीं | लक्ष्मणने देखकर कहा कि नाथ ! समीपमें नगर तो बहुत विशाल दिख रहा है, परन्तु हे उजाड़ । मनुष्य एक भी नहीं दिखाई देता । केवल एक दरिद्री पुरुष शीघ्रता से इधर आ रहा है। रामने लक्ष्मणके द्वारा उस दरिद्रीको बुलवाकर पूछा कि नगर उजाड़ क्यों है । उसने कहा कि उज्ज - नीके राजा सिंहोदरका सामन्त वज्रकर्ण यहां रहता है । इस नगरका नाम दशांगपुर है | राजा वज्रकर्ण बहुत दुराचारी था । परन्तु एक दिन जैन साधुके उपदेशसे इसने दुराचारोंको छोड़ प्रतिज्ञा की कि में सिवाय जिनेन्द्रके अन्यको नमस्कार न करूंगा । परन्तु अपने स्वामी सिंहोदर के भयसे उसने यह चाल चली कि अंगूठी में एक जिन प्रतिमाको नमस्कार करता था । किसीने यह रहस्य सिंहोदरसे कह दिया । सिंहोदरने वज्रकर्णको बुलाया | परन्तु Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | मार्ग ही वज्रको सिंहोदरके कोपका कारण मालूम हो जानेसे वह अपने नगरको लौट आया। और अपनी रक्षाका प्रबन्ध कर रहने लगा । सिंहोदरने आकर नगर घेर लिया है। इसलिये यह नगर उजाड़ दीख रहा है । इस उजड़े हुए नगरसे बर्तन आदि इधर-उधर पड़ी हुई वस्तुएँ मैं उठाने जा रहा हूँ । रामचंद्रने उस दरिद्रीको रत्नोंका हार दिया | और आप उस नगर में पहुंचे । नगर के बाहर चन्द्रप्रभुके मंदिर में ठहर लक्ष्मणको भोजनसामग्री लेने भेजा । नगरके बाहर सिंहोदरका कटक था । इनसे सिंहोदरके द्वारपाल आदि बुरी तरह पेश आये । उन्हें नीच समझ लक्ष्मण नगरकी और जाने लगे । द्वार बंद था । वज्रकर्णके सामन्त द्वारपर खड़े थे और स्वयं वज्रकर्ण द्वारके ऊपर बैठा हुआ था । द्वार-रक्षकोंने लक्ष्मण से पूछताछ की। इनका सुन्दर रूप और आकृति देखकर वज्रकर्णने सादर इन्हे बुलाया और सब समाचार पूंछकर भोजनकी प्रार्थना की। इन्होंने कहा कि हमारे बड़े भ्राता अभी चंद्रप्रभु स्वामोके मंदिर में ठहरे हैं उनके विना हम भोजन नहीं कर सकते । तब वज्रकर्णने भोजनकी सब सामग्री बनाकर सेव - कोंके साथ भेजी । रामचंद्र, लक्ष्मण, और सीताने भोजन किया । भोजन के पश्चात् रामचंद्रने लक्ष्मणसे कहा कि वज्रकर्ण सज्जन और धर्मात्मा है । उसकी रक्षा करना अपना धर्म है । अतः तुम जाकर सिंहोदरसे युद्ध करो । लक्ष्मण, रामचन्द्रकी आज्ञानुसार सिंहोदर के पास भरतके दूत बनकर गये। और कहा कि - "भरत महाराज ने कहा है कि तुम वज्रकर्णसे विरोध मत रक्खो । " सिंहोदर ने उत्तर दिया कि भरतको इसमें हस्तक्षेप करनेकी क्या ९७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। आवश्यकता है ? वह हमारा सेवक है । उसके अपराध पर दण्ड देना हमारा काम है । भरतको इसके बीचमें पड़ना अनुचित है। लक्ष्मणने कहा कि वजकर्ण सजन और धर्मात्मा है । तुम्हे उससे प्रीति कर लेना उचित है । अन्यथा तुम्हारा मला नहीं । इस प्रकार कुछ देर तक कहा सुनी होनेके पश्चात् सिंहोदरकी आज्ञानुसार उसके सामंत लक्ष्मणसे युद्ध करने लगे। लक्ष्मणने सबको परास्त किया । फिर सिंहोदर स्वयं युद्ध करने आया । उससे भी लक्ष्मणने युद्ध किया और उसे बाँध लिया । सिंहोदरके बंधते ही उसकी सेना तितर-वितर हो गई। रानीने आकर लक्ष्मणसे अपने पति सिंहोदरकी भिक्षा मांगी । लक्ष्मण सबको रामके पास लाये । सिंहोदर रामसे प्रार्थना करने लगा कि कृपया मुझें छोड़ दो और आप जैसा उचित समझो, मेरे राज्यकी व्यवस्था कर दो। रामचन्द्रने बज्रकर्णको बुलाया। वजकर्णने आकर सिंहोदरको छोड़नेकी रामसे प्रार्थना की। रामने दोनोंमें मित्रता करवाकर तथा सिंहोदरका आधा राज्य वज्रकर्णको दिलबाकर सिंहोदरको छोड़ दिया । वज्रकर्णने विघुदङ्गको सेनापति बनाया । (७) वजकर्णने अपनी आठ कन्याओंका लक्ष्मणके साथ वाग्दान किया तथा सिंहोदर आदि राजाओंने भी अपनी ३०० क यायोंका वाग्दान किया । लक्ष्मणने इन कन्यायोंके साथ विवाह नहीं किया यही उत्तर दिया कि हम रा स्थान निश्चित हो जाने पर हम वि. वाह करेंगे । र मचन्द्र जहाँ जाते वहाँ ही ऐसे मिल जाते कि व के निवासी आपको अन्यत्र नहीं जाने देते थे । दशङ्ग नग Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ९९ रमें भी ऐसा ही हुआ । तब लाचार होकर एक दिन आधी रातके समय आप इस नगरसे चल दिये । और नलकूबर नगर पहुँचे । (८) वहाके नरेश बाल्याखिल्ल की पुत्री कल्याणमाला पुरुष वेषसे राज्य कर रही थी। जब उस नगरको एक सरोवरी पर लक्ष्मण पानी लेने गये तब कल्याणमाला भी घूमते घूमते उधर आ निकली । वह इन पर आसक्त हो गई । लक्ष्मण को बुला कर सब वृत्तान्त पूछा और कहा कि यहीं रहो । जब उन्होंने कहा कि मेरे साथ मेरे भ्राता और भाबी भी हैं तब कल्याणमालाने उन्हें भी बुलाया और और खूब आदरसत्कार किया । भोजनके पश्चात् कल्याणमालाने जब अपना स्त्री वेष धारण किया तब रामने कारण पूछा कि तुमने पुरुष वेष क्यों ले रक्खा है ? कल्याणमालाने कहा कि यह राज्य सिंहोदरके आधीन है । उससे यह सन्धि है कि मेरे पिताके यहाँ पुत्र होगा तो उसे राज्य मिलेगा अन्यथा पिताके पश्चात् राज्य सिंहोदर लेलेगा। जब मेरा जन्म हुआ तब पिताने पुत्र उत्पन्न होनेकी प्रसिद्धी की । इसलिये मैं पुरुष वेषमें हूं। मेरे पिताको म्लेच्छ लोग पकड़ लेगये हैं। इस समय राज्यकार्य मैं ही चला रही हूं । पिताके वियोगसे माता बहुत दुखी हैं । यदि आप हमारी सहायता करें तो बड़ी कृपा होगी। यह कहते २ कल्याणमाला दुःखके भावेशसे भूर्छित हो गई । सीताने उसे गोदीमें लेकर शीतोपचार किया । मूर्छा दूर होने पर राम, लक्ष्मणने धैर्य बंधाया । तीन दिनों तक वहां रहे । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। फिर गुप्त रीतिसे-क्योंकि कल्याणमाला उन्हें आने नहीं देती थी-चल दिये। (९) मेकला नदीको पार कर विन्ध्याटवीमें पहुंचे। वहां म्लेच्छोंसे युद्ध कर उन्हें परास्त किया । म्लेच्छोंका अधिपति रामके पास आकर अपनी कथा कहने लगा । रामने बाल्याखिलको छोड़ने की आज्ञा दी और कहा कि तुम बाल्याखिल्लके मन्त्री होकर उसका राज्यकार्य संभालो तथा इस पाप-कर्मसे विरत हो। उसने बाल्याखिल्लको छोड़ दिया। और आप मन्त्री होकर रहने लगा। इसका नाम रौद्रभूत था । इसके मन्त्री हो जानेसे म्लेच्छों पर भी बाल्याखिल्लकी आज्ञा चलने लगी। यह देख सिंहोदर बाल्याखिल्लसे अब डर कर चलने लगा। जब बाल्याखिल्ल अपने राजा मैं पहुंचा तब कल्याणमालाने बहुत उत्सव मनाया । (१०) इस प्रकार एक कन्या और राज्यका उद्धार कर रामचंद्र आगे चले। और एक ऐसे मनोज्ञ देशमें पहुंचे जिसके मध्यमें ताप्ती नदी बहती थी। इस देशके एक निर्जन वनमें सीताको बहुत जोरसे तृषा लगी । वहाँ जल नहीं था । तब धैर्य बँधाते हुए सीताको अरुण नामक ग्राममें लाये । यहां कृषक-वर्ग रहता था । ब्राह्मण भी रहते थे। एक ब्राह्मणकी अग्निहोत्रशालामें ये तीनों ठहर गये । ब्राह्मणीने इनकी बहुत कुछ सेवा की और जल पिलाया । जब वह ब्राह्मण आया और इन्हें अग्निहोत्रशालामें ठहरे देखा तब इनसे और ब्राह्मणीसे लड़ने लगा। लक्ष्मणको बड़ा क्रोध आया ! उसने ब्राह्मणको उठा कर घुमाया Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । १०१ और औंधा कर दिया । रामचन्द्रने कहा कि जिन शासनकी आज्ञानुसार ब्राह्मण जैन साधु आदिको कष्ट देना अनुचित है तब ब्राह्मणको लक्ष्मणने छोड़ा। (११) फिर आप तीनों वहांसे चल दिये । रास्तेमें वर्षा होने लगी। तब आप एक वट वृक्षके नीचे ठहर गये । उस वृक्षके रक्षक यक्षने अपने स्वामीसे कहा कि कोई परम प्रतापी पुरुष वृक्षके नीचे आये हुए हैं । उसने आकर देखा और इन्हें बलभद्र नारायण जानकर इनके लिये विद्याबलसे सुन्दर मायामयी नगरकी रचना की । इस यक्षका नाम नूतन था । (१२) रामचन्द्रके कारण इस नगरका नाम रामपुर प्रसिद्ध हुआ । उस अग्निहोत्री ब्राह्मणने जिसने अपनी शालासे इन्हें निकाला था, आकर जङ्गलमें नगर देखा तब उसे आश्चर्य हुआ । उसने सब हाल पूछा । एक स्त्रीने उत्तर दिया कि महा प्रतापी रामचंद्रके कारण यह सब हुआ है । वे बड़े दानी हैं । और श्रावकोंको बहुत दान देते हैं । तब उसने अपनी स्त्रीके सहित चारित्र शूर नामक मुनिके पास श्रावकके व्रत लिये और फिर अपने पुत्रको कंधे पर बिठला रामके पास आया । मंदिरोंके दर्शन कर नब रामके महिलोंमें गया तब लक्ष्मणको देखते ही भागा । राम, लक्ष्मणने बुला कर उसे धैर्य बंधाया और खूब दान दिया । सज्जन पुरुष अपने शत्रु पर भी उपकार विना क्रिये नहीं रहते, यही रामचंद्र की इस कथासे शिक्षा मिलती है । अस्तु, कुछ दिनों तक उस नगरमें रह कर रामचंद्रादि आगे जानेको उद्यत हुए । तब Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ दूसरा भाग उस यक्ष रामचंद्रको हार, लक्ष्मणको मणिकुण्डल, और सीताको चूड़ामणि, भेंटमें दी । " (१३) वहां से चल कर रामचंद्र विजयपुर नगर के समीप बालोद्यान में ठहरे | यहांका राजा पृथ्वीधर था । रानीका नाम इन्द्राणी और पुत्रीका वनमाला था । वनमालाने लक्ष्मणके रूप, गुणकी प्रशंसा सुन रक्खी थी इसलिये वह मन ही मन लक्ष्मण पर आसक्त थी । जब यह सुना गया कि दशरथने दीक्षा ली और लक्ष्मण वनको गये तब उसके पिताने इन्द्रनगर के युवराज बालमिant वनमाला देना चाही । परन्तु वनमाला इस सम्बन्धसे अप्रसन्न थी । और उसने प्रण कर लिया था कि मैं इस सम्बन्ध होने के • 1 पहिले प्राण त्याग दूंगी । इसने उपवास करना शुरू कर दिया । एक दिन रात्रिको वन-क्रीड़ाकी आज्ञा मांग वनमाला अपने सेवकों सहित वन में पहुंची । जब उसके सेवक सो गये तब आप प्राण देने की इच्छासे अपने सेवकोंको छोड़ आगे गई । दैवयोगसे राम, लक्ष्मण यहां ठहरे हुए थे । लक्ष्मणने पत्र - पुष्पोंकी शय्या पर रामको सुला दिया था और आप जाग रहे थे । जब वनमालाको दूरसे जाते देखा तब यह समझा कि शायद इसे कोई कष्ट होगा जभी यह स्त्री अकेली वनमें आई है । आप भी पीछे २ गये । जब वनमाला कपड़ेसे फांसी लगा कर प्राण देने को तैयार हुई तब उसने कहा कि हे वनके रक्षक देवो ! यदि लक्ष्मण घूमते घूमते यहां आयें तो कहना कि वनमालाने तुम्हारे वियोग से यहां प्राण त्याग किये हैं । इस जन्ममें तो संयोग नहीं हुआ परन्तु आगामीमें तुम्हारे संयोगकी उसकी उत्कट इच्छा है । लक्ष्मण छु Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचान जैन इतिहास । १०३ हुए यह सब देख सुन रहे थे । वनमालाका कथन समाप्त होते ही लक्ष्मण प्रगट हुए और उसे अपना परिचय दिया । वनमाला बड़ी प्रसन्न हुई । और दोनों रामके पास आये । इधर वनमाला के सेवक भी ढूँढ़ते २ राम, लक्ष्मणके पास आ पहुँचे । वनमालाको यहाँ बैठी देख और रामादिका परिचय पा नगर में गये । वहां अपने स्वामी से सब वृत्तान्त कहा । उसने बड़ी प्रसन्नता से रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीताका नगर प्रवेश कराया । (१४) यहां पर रामचंद्र, लक्ष्मणने सुना कि नन्द्यावर्तके राजा अतिवीर्यने भरतको लिखा है कि तुम मेरे आधीन होकर रहो | इस पर शत्रुघ्नने अतिवीर्यके दूतका बड़ा अपमान किया तथा रौद्रभूत ( पृथ्वीधरका मन्त्री ) के साथ अतिवीर्यकी सेनामें धाड़ा डाल कर उसके ७०० हाथी और कई हजार घोड़े लूट लाये । इस पर दोनोंका परस्पर युद्ध होनेवाला है। अतिवीर्यने पृथ्वीधरको सहायतार्थ बुलानेके लिये दूत भेजा था । दूतके द्वारा यह सब समाचार जान पृथ्वीघर के पुत्रको साथमें ले राम, लक्ष्मण और सीता नन्द्यावर्त गये । सीताने कहा कि रघुकुलका अपमान करनेवाले अतिवीर्यको अवश्य ही दण्ड देना उचित है । राम, लक्ष्मण ने सीताको उनकी इच्छा पूरी होनेका आश्वासन दे विचार किया कि युद्ध करनेसे तो दोनों ओरकी सेना निरर्थक मारी जावेगी । अतएव दोनोंने नृत्यकारिणीका रूप धारण किया और अतिवीर्यकी सभा में पहुंचे । इनके नृत्य और गायन से अतिवीर्य व उसकी सभा जब मोहित हो गई तब लक्ष्मण ने कहा कि अतिवीर्य ! बलवान् भरतसे तू क्यों युद्ध करता है, देख, मारा जायगा ! Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दूसरा भाग। इस प्रकार उसे क्रोध उत्पन्न करनेवाली जब बातें कहीं तघ क्रोधित हो इन्हें मारनेको उद्यत हुआ । बस, चट लक्ष्मणने सिंहासन पर चढ़ अतिवीर्यको बांध लिया और उसके सभासदोंसे कहा कि यातो भरतकी आधीनता स्वीकार करो अन्यथा तुम्हारी भलाई नहीं । तब सब सभासदोंने भरतकी जय बोली। अतिवीर्यको बांध कर डेरे पर लाये । और भरतके आधीन रहनेका आदेश किया । परन्तु उसने संसारको अप्तार जान दीक्षा धारण की। और अपने पुत्र विजयरथको राज दिया । राम, लक्ष्मणने विजयरथका अभिषेक किया। विजयरथने अपनी बहिन परम सुंदरी रत्नमालाका लक्ष्मणके साथ विवाह किया।। तथा भरतसे भी जाकर मिला । और उन्हें भी अपनी दूसरी बहिन विजयसुंदरी दी। इस प्रकार गुप्त रीतिसे राम, लक्ष्मण ने भरतका कष्ट दूर किया। क्योंकि भरतसे अतिवीर्य बलवान् राजा था । भरतको अपना उद्धार करनेवाली नृत्यकारिणियोंका रहस्य प्रगट नहीं होने पाया । वह इन्हें कोई देवी ही समझते रहे । इस प्रकार शांति हो जाने पर भरत गृहस्थावस्थाके अपने शत्रु अतिवीर्य मुनिकी वंदनाको गये । और वंदना कर अयोध्या लौट आये। रामचंद्र भी पृथ्वीधरके राज्यमें लौट आये । और वहां कुछ दिनों तक रहे । लक्ष्मणने वनमालाको अपने जानेके सम्बन्धमें समझा बुझा कर धैर्य बंधाया। और फिर एक दिन छुपी रोतिसे तीनों उठ कर चले गये । (१५) और दोमांजलि नगरके पास वन में जाकर ठहरे । वहाँ लक्ष्मणने भोजन बनाया । दाखोंका रस तैयार किया । और Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । १०५ तीनोंने उसे खाया । लक्ष्मण रामचन्द्रकी आज्ञा लेकर नगर देखने गये । वहां सुना कि नगरके राजा शत्रुदमन अपनी पुत्रीका विवाह उसके साथ करेगा जो उसके हाथकी शक्तिकी चोटको झेल सकेगा। लक्ष्मण बड़े बलवान् थे । और ऐसी २ बातोंको कुछ नहीं समझते थे। वे कायर नहीं थे, जो आपत्तिके भयसे डर जाते । किन्तु लक्षमण वीर थे और वे स्वयं आपत्तियोंको बुलाते थे । आपके इसी साहसका प्रताप था जो जाते थे आपत्तियोंके अग्निकुण्डमें, परन्तु वही आपत्ति अग्निकुण्ड उनके लिये सरोवर हो जाता था जिसमें से सुखदायी रत्नोंको वे पाते थे। अपने इसी स्वभावके अनुसार आप राजसभामें जा पहुंचे और राजासे कहने लगे कि शक्ति चलाओ। जितपद्मा भी नहीं बैठी थी। वह इन्हे देखकर मोहित हो गई और शक्ति लग जानेकी आशंकासे इन्हें इशारेसे शक्तिकी चोट झेलनेके लिये मनाई करने लगी। इन्होंने भी कहा कि भय मत करो । मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता। इनका आग्रह देख शत्रुदमनने पांच शक्तियां चलाईं। इन्होंने दो शक्तियोंको दोनों हाथोंमें झेला दोको बगलोंमें और एकको दांतोंसे दबाया। इनकी बल-परीक्षा कर लेने पर शत्रुदमनने जितपद्माके विवाहके लिये कहा। परन्तु इन्होंने कहा कि मेरे ज्येष्ठ-भ्राता-जो कि समीप ही हैं-को आज्ञाके विना मैं नहीं कर सकता । तब सब मिल कर रामचंद्रके समीप आये और उनकी भक्ति करने लगे । यहां तक कि शत्रुदमन राजा तो उनके सामने नृत्य ही करने लगा। जितपद्माका विवाह हुआ । राम, लक्ष्मणादि कुछ दिनों तक यहां रहे । एक दिन लक्ष्मणने जितपद्माको Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ दूसरा भाग । आगेको चल दिये । समझा बुझा दिया और तीनों गुप्त रीतिसे (१६) और वहां से चल कर वंशस्थल नगर आये । इस नगर के पास एक वंशधर नामक पर्वत था । रात्रि के समय उस पर्वत पर घर और भयानक शब्द हुआ करते थे । अतएव नगरवासी नगर छोड़ कर चल दिया करते थे । जब ये नगर में आये तब शाम होने को थी । नगरवासी नगर छोड़ २ कर अन्यत्र जा रहे थे । रामने नगरवासियोंसे जानेका कारण पूंछा । कारण जानने पर परम साहसी राम, लक्ष्मणने उसी पर्वत पर रात्रिको रहनेका विचार किया । सीताने भावी भयकी आशंका से रात्रि में पर्वत पर रहने की मनाई की । परन्तु वीर भ्राताओंने नहीं माना और पर्वत पर गये | वहां युगल परम तपस्वी साधुओंके दर्शन प्राप्त हुए । पूजन, वंदन के पश्चात् सीताने नृत्य किया । इन्हीं मुनियों पर एक दैत्य प्रतिदिन उपसर्ग किया करता था । उसीका पर्वत पर भया - नक शब्द होता था । इन्होंने अपने ही बलसे उस दैत्यके उपसर्गको नष्ट किया । उपसर्ग दूर होते ही दोनों साधु-श्रेष्ठों को कैवल्य-ज्ञान उत्पन्न हुआ । और समव- शरणकी रचना हुई । (१७) समवशरण में देशभूषण कुलभूषणका पिता जो मरकर गरुड़ेन्द्र हुआ था, आया । उसने जब यह सुना कि मेरे पूर्व जन्मके पुत्रोंका उपसर्ग राम-लक्ष्मणने दूर किया है तब वह बड़ा प्रसन्न हुआ और इनसे कहा कि आपकी जो इच्छा हो सो मांगो | इन्होंने उत्तर दिया कि हमें किसी बातकी इच्छा नहीं है | यदि आपका आग्रह ही है तो यदि हम पर कोई विपत्ति कभी आवे तो हमारी सहायता करना । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १०७ (१८) इस पर्वत पर रामचन्द्रने बहुतसे जिन मन्दिर बनवाये । फिर यहांसे आगे चले | आपने दण्डक वनमें करनखा नदीको जानेका विचार किया । उस समय उस वन में भूमि - गोचरी नहीं जा पाते थे । परन्तु आपके साहसके आगे क्या कठिन था । इसी साहस के बल दक्षिण दिशाके समुद्रकी ओर जा कर वहांसे दण्डक बनमें गये । और करनखा नदीके तट पर पहुंचे । सुकुमारी सीताके कारण आप बहुत धीरे अर्थात् प्रतिदिन केवल एक कोश ही चला करते थे । वनमें पहुँच कर आपने भोजन सामग्री के लिये मिट्टी और बांसके बरतन बनाये और उनमें फलफूलों का आहार बनाया । वह मुनियोंके आहारका समय था । अतएव आप मुनि - आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे । भाग्योदयसे उस वीहड़ वनमें दो चारण ऋद्धिधारी साधु जिनके नाम क्रमशः सुगुप्ति और गुप्ति थे वहीं आ पहुंचे । ये मुनि तीन ज्ञानके घारी थे और मासोपवास करते थे । जब राम लक्ष्मण और सीता साधु द्वयको नवधा भक्ति पूर्वक आहार देनेको उद्यत हुए उसी समय पासके वृक्षपर बैठे हुए गृद्ध पक्षीको जाति स्मरण ( पूर्व जन्मका ज्ञान ) हुआ और वह उड़कर मुनियोंके चरणों में आ पड़ा उसके पड़ने का घोर शब्द हुआ तथा उस बदल गया । उसका वर्ण सुवर्ण समान हो गया । मुनियोंने आहार ग्रहण कर उस देश दिया और श्रावकके व्रत दिये । तथा राम, रहने की आज्ञा दी । रामने इस पक्षीका नाम जटायू रक्खा पक्षीका वर्ण भी और वैदूर्यके पक्षीको उप लक्ष्मणके साथ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ दूसरा भाग। यहां पर रामचंद्रने एक रत्नमय रथ बनाया और तीनों इसी पर यात्रा करने लगे। (१९) यहांसे चलकर कोंचवा नदी पार की और दण्डकगिरिके पास ठहरे । इन दिनों मुख्य आहार फलादिकका ही था। यहां पर नगर बसानेका विचार किया परन्तु वर्षा ऋतु समीप आगई थी। इसलिये वर्षा ऋतुके बाद यह विचार काममें लानेका संकल्प कर यहां ही रहने लगे । एक दिन लक्षमण वनमें क्रीड़ाकर रहे थे कि एक अदभुत प्रकारकी सुगन्ध आई । आप उसपर मुग्ध होकर निघरसे सुगन्ध आ रही थी उसी ओर चल पड़े । कुछ दूर आगे एक बांसके बीडेके ऊपर सूर्यहास्य खड्ग दिखाई दिया । झपट कर आपने उसे ले लिया और उसकी आजमाइस करनेके लिये उसी बांसके बीड़े पर चलाया। बीड़ेके अन्दर खरदूषण (रावणका बहिनोई) का पुत्र शम्बुक उसी सूर्यहास्यकी प्राप्तिके अर्थ तपस्या कर रहा था । अतएव बीड़ेके साथ २ उसका भी सिर कट गया । ___ (२०) शम्बुककी माता प्रतिदिन पुत्रको भोजन देने आती थी। जब उसने अपने पुत्रकी यह दशा देखी तब उसे बड़ा कष्ट हुआ। और अपने पुत्रके शत्रुको वहीं खोनने लगी । उसने इन दोनों भाइयोंको जब देखा तब अपने पुत्रके संबन्धमें कहनेकी बजाय इन पर आसक्त हो गई । और अपनेको कुमारी बतलाकर पाणिग्रहणकी इच्छा प्रगट की। परन्तु चतुर राम, लक्ष्मण उसके जालमें नहीं आये । जब उसने अपना जाल इन पर चलते नहीं देखा तब पति खरदूषणके पाप्त आकर कहने लगी कि राम, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १०९ लक्ष्मणने पुत्रको मारकर सूर्यहास्य खड्ग हो लेलिया तथा मेरे जाने पर मुझसे भी कुचेष्टाएँ कीं । वस खरदूषणने युद्ध की तैयारी की और आप युद्धके लिये गया । तथा रावण के पास भी सहायतार्थ समाचार भेजे । (२१) इससे युद्ध करनेको रामचंद्र जाने लगे । परन्तु लक्ष्मणने कहा कि आप यहीं पर रहे । सीताकी रक्षा करें। मैं जाता हूं। आवश्यकता पड़ने पर मैं सिंहनाद करूंगा तब आप रे । क्ष्द्ध करने लगे । लक्ष्मणसे खरदूषण के शत्रु चंद्रोदयका पुत्र विराधित आ मिला। उधर रावण खरदुषणकी सहायतार्थ आ रहा था । मार्ग में सीताको देखकर वह आसक्त हो गया । तब उसने अवलोकिनी विद्याके द्वारा - राम, लक्ष्मणने परस्पर में जो सिंहनादका संकेत किया था, उसे जानकर सिंहनाद किया । राम भ्रातापर शत्रुका अधिक दबाव सभझ सीताको पुष्प वाटिका में छिपा और जटायूको पास में रख युद्धक्षेत्रमें गये । रावणने मौका पाकर सीताको विमान में रक्खा । रावणसे जटायू युद्ध करने लगा ! परन्तु बलवान् रावणके आगे उस पक्षीका बल कहाँ तक चल सकता था । रावणकी थप्पड़ से वह अधमरा हो पृथ्वीपर आ गिरा । उधर राम जब लक्ष्मणके पास पहुँचे, तब लक्ष्मणने कहा- आप आये ? रामने उत्तर दिया कि तुमने तो सिंहनाद किया था इससे आया हूं फिर लक्ष्मणने उत्तर दिया कि मैंने सिंहनाद नहीं किया । यह किसीने धोखा दिया है । आप शीघ्र स्थानपर लौट जाय मैं भी शत्रुको जीतकर आता हूँ । राम तुरन्त ही लौट आये । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० दूसरा भाग। (१२) राम सीताको स्थान पर न देख विह्वल हो ढूँढने लगे । और जब सीता नहीं मिली तब राम और अधिक अधीर हुए । वे वृक्ष, नदी आदिसे सीताका पता पूंछते थे। इतनेमें लक्ष्मण भी खरदूषण और दूषणको मार युद्ध में विजय प्राप्तकर पाताल लङ्काका राज्य अपनी ओरसे विराधितको दे रामके पास आये । जब सीता-हरणका सम्बाद सुना तब लक्ष्मणको भी बहुत दुःख हुआ । उन्होंने उसी समय विराधितको सीताका पता लगानेकी आज्ञा दी । परन्तु सीताका पता नहीं लगा । तब विराधितने कहा कि आप पाताल लङ्का पधारे वहांसे पता लगावें । शायद खरदूषणका साला रावण तथा उसके पुत्र खरदूषणका बदला लेनेके लिये यहां युद्ध करनेको आगे । अतः पाताल लंका ही चलें । तब राम लक्ष्मण पाताल लंका गये । वहां खरदूषणके पुत्र सुन्दरने युद्ध किया । लक्ष्मणने उसे भी जीता। तब वह अपनी माता सहित रावणके पास चला गया । राम, लक्ष्मण पाताल लंकामें रहने लगे। (२३) सुग्रीवकी स्त्री सुतारा पर साहसगति नामक विद्याघर पहिलेसे ही आसक्त था। परन्तु सुताराके पिताने उसे न देकर सुग्रीवको दी थी । एक दिन सुग्रीव कहीं अन्यत्र गया हुआ था कि मौका पाकर साहसगतिने सुग्रोवका रूप धारण कर लिया और सुग्रीवके घर आ गया । इधर असली सुग्रीव भी आ गया । अब दोनों में परस्पर झगड़ा चला । एक दूसरेको नकली बताने लगे। तब सुग्रीवका पुत्र महलों पर पहरा देने लगा। वह दोमेसे एकको भी नहीं आने देता था। असली सुपीकको Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। १११ बड़ी चिन्ता हुई । वह हनुमानके पास गया। हनुमान उसको रक्षाके लिये आये । परन्तु जब दोनोंको एक समान देखा तब यह समझकर कि कहीं झण्डे के धोखेमें सच्चा न मारा जाय; विना कुछ किये पीछे लौट गये । सुग्रीव उस समय तक रामके विरुद्ध था । वह रामचंद्रको कामी समझता था। इसलिये कि कहीं तीसरी आफत न आ जाय, वह रामके पास नहीं जाता था । परन्तु अंतमें रामके पास जाना निश्चय किया। विराधितसे मित्रता कर रामसे मिला । राम और सुग्रीवने पंचोंके सन्मुख प्रतिज्ञा की कि हम दोनों अपनी मित्रता आनन्म निबाहेंगे। सुग्रीव ने यह भी प्रण लिया कि मेरी विपत्ति दूर होनाने पर मैं सीताका पता ७ दिन में लगा दूंगा ! राम सुग्रीवकी राजधानी किहि किन्धा पर गये। वहां उनकी आज्ञानुसार दोनों सुग्रीवोंमें परस्पर युद्ध हुआ। असली सुग्रीब पहिले हार गया। फिर रामचंद्र स्वयं सुग्रीवकी ओरसे नकली सुग्रीवसे लड़े । गमको देखते ही नकली सुग्रीवके शरीरसे बताली विद्या चली गई। और असली साहसगतिका रूप निकल आया । तब उसके ओरकी सेना भी उससे बिछुड़ मई । रामने उसे मारा । और सुग्रीवने अपना राज्य और अपनी स्त्री पाई । फिर अपनी तेरह कन्याओंका रामके साथ पाणिग्रहण किया । इन कन्याओंने पहिलेसे ही प्रतिज्ञा कर ली थी कि हम विद्याधरोंके साथ विवाह न करेंगी। . (२४) सुग्रीवकी जब विपत्ति दूर हो गई तब उसने ७ दिनमें सीता ढूंढ़नेकी जो प्रतिज्ञा की थी उसे भूल गया । लक्ष्मण इस बात पर बहुत क्रोधित हुआ। तब सुग्रीवने अपने Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दूमरा भाग। सेवकोंको भेजा और स्वयं भी गया । मार्गमें रत्नजटी विद्याधरके द्वारा सुग्रीवको सीताका पता लग गया। रत्ननटीको लेकर सुग्रीक रामके.पास आया । (२४) रत्नजटी, भटमण्डल (सीताके भाई )का सेवक विद्याधर था। जिस समय रावण सीताका हरण कर लिये जा रहा था उस समय रत्नजटी भी उसी मार्गसे आता था रत्ननटीने जब सीताका विलाप सुना तब वह रावणके समीप आया और रावणसे बहुत कहा-सुनी की । इस पर रावणने उसकी विद्याएँ हरण कर ली । तब वह विद्याधरसे भूमिगोचरी हो नीचे गिरा और कम्पू पर्वत पर रहने लगा। (२६) राम सब वृत्तान्त पूछकर विचार करने लगे कि आगे क्या करना चाहिये । कई विद्याधरोंने राम, लक्ष्मणको समझाया कि रावण महा बलवान् है। उससे युद्ध करना उचित नहीं । अब सीताकी आशा छोड़कर हमें अपने अन्य कार्योसे लगना चाहिये । आप हमारे स्वामी बन कर रहो। हम आपके साथ विद्याधरोंकी सुन्दर २ कन्याओंका विवाह कर देंगे । इत्यादि कई वातोंसे राम लक्ष्मणको समझाया । सुग्रीवके मन्त्री जाम्बूनंदने कहा कि एक वार रावणने भगवान् अनन्तवीर्य कैवलीके समवशरणमें अपनी मृत्युका कारण पूंछा था, तब उसे उत्तर मिला था कि जो कोटिशिला उठावेगा उसीके हाथोंसे तेरी मृत्यु होगी। यह वृत्तांत सुन पहिले राम लक्ष्मण अपने साथियों सहित विमान में बैठ कोटिशिलाकी यात्रार्थ गये । वहां कोटिशिलाकी वंदना कर लक्ष्मणने उसे घुटनों तक उठाया। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ११३ आकाशसे देवोंने जयध्वनि की। वहांसे आकर बलवान् , परम प्रतापो, शूरवीर, राम, लक्ष्मणने विद्याधरोंकी एक न मानी और निश्चय किया कि लंकाके समाचार लेनेको हनुमान भेजे जाय । हनूमान बुलाये गये। रामसे मिलकर हनुमानको बहुत प्रसन्नता हुई। (२७) जब हनुमान, रामकी आज्ञासे सीताके समाचार लेने लङ्काको चले तब मार्गमें राजा महेन्द्रसे युद्ध किया। ये हनुमानके नाना थे। उन्हें जीतकर आगे चले । एक दधिमुख नगरके वनमें अग्नि जल रही थी। उसी वनमें दो मुनि ( चारण ऋद्विधारी ) तप कर रहे थे । और तीन कन्याएँ तप कर रही थीं। हनुमानने समुद्रसे आकाश मार्गद्वारा जल मंगवाकर वर्षा करवाई और अग्नि शान्त की। फिर मुनियोंकी बन्दना कर कन्याओंसे तपका कारण पूंछा। उन्होंने कहा कि हमारे पिता इसी वनके समीपवाले नगरके राना हैं। किसी मुनिने उनसे कहा था कि जो सहप्रगति विघाघरको मारेगा वही इनका पति होगा। एक अंगारक नामक राजा हमपर आसक्त था। परन्तु पिताने उसके साथ पाणिग्रहण नहीं किया । तब हम साहसगतिका वृत्तांत जाननेके लिये मनोगामिनी विद्या सिद्ध करने यहां आई हुई हैं। अग्नि लगने पर भी निश्चल वृत्तिसे रहनेके कारण उन कन्याओंको विद्याकी सिद्धि हुई । हनुमान, साहसगतिके मारनेवाले रामका पता बतला कर लंकाकी ओर चल दिये। और कन्याओंका पिता कन्याओंको लेकर रामके पास गया और वहां जाकर उनका विवाह कर दिया। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। (२८) इधर रावणके मन्त्रियोंने रावणकी यह दशा देख नगरको शत्रुओंसे बचानेके लिये उसके आसपास कई प्रकारके मायामयी यन्त्र बनाये । एक बड़ा भारी कोट बनाकर द्वार पर एक पुतली बनाई । उसके आसपास सर्प बनाये जो सन्मुख आनेवालोंको निगल जावें; फूत्कार करें और इस प्रकारका विष छोड़ें जिससे अन्धकार फैल जावे । कहा गया है कि यह विद्या बलसे बनाये गये थे। जब हनुमान लङ्काके समीप आये तब इन मन्त्रोंके द्वारा उनके विमानकी गति रुकी। इस पर उन्होंने बख्तर पहिन कर उस पुतलीके मुँहमें प्रवेश किया । और उसका उदर चीर दिया तथा गदा प्रहारसे कोटका पतन किया । जिप्त समय यह तिलिस्म टूटा बड़ी भारी ध्वनि हुई। तिलिस्नके टूटने ही उस कोटका रक्षक वज्रमुख, हनुमानसे युद्ध करनेको उद्यत हुआ। वीर हनुमानने उसे भी मारा। फिर उसकी कन्या लङ्कासुन्दरी हनुमानसे युद्ध करने लगी । यद्यपि वह युद्ध करती थी परन्तु मन ही मन हनुमान पर आसक्त थी । अन्तमें उसने अपने प्रेमके समाचार एक पत्रमें लिख और उस पत्रको बाणमें बांध हनुमानको मारा । हनुमानने उस पत्रको पढ़ कर युद्ध बन्द किया। फिर दोनोंका परस्पर संयोग हुआ । ___(२९) अपनी सेनाको लङ्कासुन्दरीके पास छोड़ हनुमानने थोड़ेसे सेवकों सहित लङ्कामें प्रवेश किया। पहिले विभीषणके पास गया और रावण को समझानेके लिये कहा; परन्तु विभीषणने कहा कि मेरा कहना नहीं मानता। इस समय सीताको ग्यारह दिन बिना जल, भो ननके हो गये थे । फिर हनुमान प्रमद वनमें Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ११५ -गया; जहां कि सीताको रावणने रख छोड़ा था। सीताको दूरसे देखते ही उसके परमशीलके कारण हनुमानके हृदय में बड़ी भक्ति उत्पन्न हुई । उस समय हनुमान अपना रूप बदल कर सीताके पास गये और रामचंद्रकी मुद्रिका सीताके पास डाली । सीता उसे देख परमप्रसन्न हुई । उसे प्रसन्न होते देख रावणने सीताके समीप जो दूतियां रक्खी थीं वे दौड़ी हुई रावणके पास गई और लगीं कि आज सीता प्रसन्नदिल हो रही है । इसपर रावण भी - बहुत प्रसन्न हुआ और उसने मन्दोदरी आदि अपनी रानियों को Ararat rare प्रसन्न करनेके लिये भेजा । उनने आकर रावकी प्रशंसा की और उसपर आसक्त होनेके लिये कहा । इसपर हनुमान बहुत क्रोधित हुआ । और इन्हें खूब फटकारा । मन्दोदरीसे कहा कि तू शीलवान् होकर अपने पतिको कुमार्गसे तो नहीं रोकती, उलटी एक पतिव्रताका शीलभङ्ग करना चाहती है । तब मन्दोदरीने रावणकी बहुत प्रशंसाकर राम लक्ष्मणकी निन्दा की । इसपर क्रोधित हो सोताने कहा कि मालूम होता है कि रावणका पतन शीत्र होनेवाला है । सीताके मुख से यह निकलते ही रावण-. की रानियां सीताको मारने दौड़ीं। हनुमानने बचाया । तब वे रावण के पास चलीं गईं । हनुमानने सोतासे भोजन की प्रार्थना की । सीताने प्रतिज्ञा भी यही कर रक्खी थी कि जबतक रामके समाचार नहीं आवेंगे, तबतक मैं भोजन नहीं करूँगी ! अब हनुमानकी प्रार्थनापर सीताने भोजन करना स्वीकार किया वासीको भोजन बनाने की आज्ञा देकर हनुमान विभीषण के 1 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दूसरा भाग । यहां भोजन करने चले गये फिर वहांसे आकर सीतासे कहा कि आप मेरे कन्धे पर बैठो, मैं आपको रामके पास ले चलूंगा । (३०) सीताने कहा कि बिना पतिकी आज्ञाके मैं यहां से नहीं जा सकती और तुम शीघ्र जाओ । सीताने अपनी चूडामणी हनुमानको दी । इधर रावणके पास जाकर मन्दोदरीने हनुमानके समाचार कहे और कहा कि उसने हमारा अपमान किया है । तब रावण ने हनुमान के पकड़नेको सेना भेजी । वह सेना स-शस्त्र थी, परन्तु हनुमान के पास कोई शस्त्र नहीं था । तौमी हाथसे,. पैरसे, कन्धे से, मुक्कों से, पत्थरोंसे झाड़ोंको उखाड़कर उनसे सेना - को तित्तर वित्तरकर दिया । बड़े २ मकान धराशायी कर डाले / बजारको रणक्षेत्र बना दिया । यह हालत देख मेघनाद इंद्रजीत हनुमान से युद्ध करने आये । बड़ी कठिनतासे हनुमान नागपाश में बांधे गये । बंध जाने पर रावणके पास लाये गये । उस समय रावणके पास हनुमान के विरुद्ध लोग प्रार्थना कर रहे थे । हनुमानके आने पर रावणने हनुमान से बहुत कुवचन कहे । परन्तु धीरवीर निर्भय हनुमान ने भी उसका प्रत्युत्तर दिया । इस पर क्रोधित हो रावणने आज्ञा दी कि इसे बांध कर शहर में घुमाओ । जगह २ इसकी निन्दा करो । लड़कोंसे धूल डलवाओ। कुत्तोंको भुँकाओ । सेवकोंने इसी प्रकार करना प्रारम्भ किया । परन्तु बलवान् हनुमान बन्धन तोड़ आकाशमें उड़ गया । और फिर उत्पात करना प्रारम्भ किये । रावणके कई महल धराशायी कर डाले । लङ्काका कोट नष्ट भ्रष्ट कर दिया । और फिर अपनी सेना में आकर वहां किष्किन्धापुर आया । सुग्रीव, राम और लक्ष्मणसे लङ्काके सम्पूर्ण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। ११७ समाचार कहे । सीताका चूड़ामणि रामको दिया । लङ्काके समाचारोंसे दुःखी और क्रोधित होकर राम लक्ष्मण युद्ध करनेके लिये लङ्काकी ओर चले। ___(३१) आपके साथ अनेक विद्याधर भी अपनी २ सेनाके साथ चले । सीताके भाई भामण्डलको भी बुलाया था, वह भी चला । रामकी सेनाका सेनापति भूतनाद नामक विद्याधर बनाया गया। रामकी ओर दो हजार अक्षौहिणी सेना थी। (३२) उस समय सेनाके नौ भेद होते थे। वे इस प्रकार हैं: १ पत्ति, २ सेना, ३ सेनामुख, ४ गुल्म, ५ वाहिनी, ६ प्रतना, ७ चमू , ८ अनीकिनी और ९ अक्षौहिणी । इन भेदोंकी संख्याका प्रमाण इस प्रकार है: १ पत्ति:-जिसमें एक रथ, एक हाथी, पाँच पियादे, और तीन घोड़े हों उसे 'पत्ति' कहते थे । २ सेना:-जिसमें तीन रथ, तीन हाथी, पन्द्रह पियादे, और नौ घोड़े हों, उसे 'सेना' कहते थे । ३ सेनामुखः-जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पैंतालीस पियादे और सत्ताईस घोड़े हों, उसे 'सेनामुख' कहते थे। ४ गुल्मः-सत्ताईस रथ, सत्ताईस हाथी, एक सौ पैंतीस पियादे और इक्यासी घोड़ेवाली सेना "गुल्म' कहलाती थी। ५ वाहिनी:-इक्यासी रथ, इक्यासी हाथी, चारसौ पाँच पियादे और दो सौ तिरतालीस अश्ववाली सेना 'वाहिनी' कहलाती थी। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दुसरा भाग । ६ प्रतनाः - जिसमें दो सौ तिरतालीस रथ, इतने ही हाथी. बारह से पन्द्रह पियादे, और सातसौ उन्तीस घोड़े होते थे, उसे 'प्रतना' कहते थे । ७ चमूः - सातसौ उन्तीस रथ, सातसौ उन्तीस हाथी, छत्तीससौ पैंतालीस पियादे और इकवीस सौ सत्तासी घोड़ेवाली सेना 'चमू' कहलाती थी । ८ अनीकिनी : - इकवीस सौ सत्तासी रथ, इतने ही हाथी, दश हजार नौसौ पैंतीस पियादे, और छः हजार पाँचसौ इकसठ घोड़ेवाली सेना 'अनीकिनी' कहलाती थी । ९ अक्षौहिणीः- दश अनीकिनीकी एक अक्षौहिणी होती है। उसकी संख्या इस प्रकार है: - इक्वीस हजार आठसौ सत्तर रथ, इतने ही हाथी, एक लाख नौ हजार तीनसौ पचास पियादे, और पैंसठ हजार छः सौ दश घोड़े एक 'अक्षौहिणी' सेना में होते थे । (३३) इस प्रकार की दो हजार सेना रामकी ओर थी । इसमें एक हजार तो भामण्डल ही की थी, शेष भिन्न २ विद्याधरोंकी थी । किष्किन्धापुरसे चलकर बेलन्धापुरमें डेरे डाले । यहाँ नलसे बेलन्धापुरके राजा समुद्रसे युद्ध हुआ । समुद्र हारा; नल समुद्रको बाँधकर रामके समीप लाया । रामने समुद्रको छोड़ उसे राज्य दे दिया । इस दयासे प्रसन्न हो समुद्रने अपनी सत्यश्री, कमला, गुणमाली, रत्नचूड़ा नामक कन्याएं लक्ष्मणको दीं। यहाँ एक.. रात्रि रहकर सुवेल पर्वत पर गये । यहाँ केसवेल नगर के राजाको जीता। फिर आगे बढ़े और लङ्काके समीपवाले हंसद्वीपमें डेरे डाले ! . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | ११९ (३४) रावणने रामको समीप आते देख अपनी सेना तैयार की । बड़े २ योद्धा, राजा, महाराजा रावणकी सेनामें आकर मिले । इस समय फिर विभीषणने रावणको समझाया। इस पर रावण के पुत्र इन्द्रजीतने विभीषणसे कहा कि तुम कायर हो । तब विभीषणने खूब फटकारा। इस पर रावण, विभीषण से युद्ध करनेको उद्यत हो गया । विभीषण भी एक मकानका स्तम्भ उखाड़ कर युद्धको उद्यत हुआ । पर मन्त्रियोंके समझानेसे युद्ध तो नहीं हुआ किन्तु रावणने विभीषणको नगरसे निकल जानेकी आज्ञा दी। विभीषण, रामकी सेनामें जाकर मिल गया । विभीषण के साथ ३० अक्षौहिणी दल था । (३५) रावणकी सेनामें ढ़ाई करोड़ राक्षसवंशी कुमार थे । जिस समय रावण की सेना रामकी सेनासे युद्ध करनेको चली और योद्धा गण अपने गृह से निकलने लगे तब किसी योद्धाको उसकी स्त्रीने अपने हाथोंसे वस्त्र पहिनाये, किसीने अपने पतिको शस्त्रास्त्रों से सजाया । प्रायः सब स्त्रियां अपने वीर पतियोंसे कहने लगीं कि युद्ध में शत्रुओंको जीतकर आना । भागकर मत आना ! तुझारे घावों सहित शरीरको देख कर हमें प्रसन्नता होगी ! अहा ! कैसी वीरताका समय था । कहाँ आजका भारत ! जिसमें कायरता और निर्बलताका साम्राज्य छा रहा है । युद्ध के नामसे लोग जङ्गलों में छिपते हैं । स्त्रियां माथा धुनती हैं । हे भारतभूमि ! हमारे वे वीरतामय, साहसमय, धैर्यमय दिन फिर कब फिरेंगे ? (३६) जब रावणकी सेना चली तब मार्ग में बहुत अपशकुन परन्तु रावणने उसकी कुछ पर्वाह न की । और युद्ध - क्षेत्र में 1 1 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दूसरा भाग । 1 पहुँच कर दोनों सेनाओंकी खूब मुठमेड़ हुई। कभी रावणकी और कभी रामचन्द्रकी सेना दबने लगी । दोनों ओरके वीर घनघोर युद्ध करने लगे । जब रावणकी सेना दबती तब वह स्वयं उद्यत होता परन्तु कभी कुम्भकरण और कभी इन्द्रनीत उसे रोक देते और स्वयं लड़ते । कभी रावणके पक्ष के योद्धा राम पक्ष के योद्धाओंको बाँध लेते, कभी राम पक्षके अपने योद्धाओं को छुड़ा कर रावणके योद्धाओंको बाँध लेते । दिन भर युद्ध होता और सूर्यास्त होते ही युद्ध बन्द हो जाया करता था । उस समयकी यही पद्धति थी । इस युद्ध में किसी २ योद्धा के रथ में सिंह भी जोते गये थे । (३७) देशभूषण, कुलभूषण के समवशरण में जिम गरुड़ेन्द्रने समय पड़ने पर सहायताका बचन दिया था, रामने उस गरुड़न्द्रका स्मरण किया । उसने अपने एक अधीनस्थ देवके द्वारा, जलबाण, अग्निबाण, और पवनबाण भेन विद्यत्चक्र नामक गढ़ा लक्ष्मणके लिये और हल - मूमल रामके लिये भेजे । (३८) रावणकी सेना के योद्धाओंके नाम इस प्रकार हैंमारीचसिंह, जघन्य, स्वम्भू, शम्भू, वज्राक्ष, वज्रभूति, नक्रमकर, वज्रघोष, उग्रनाद, सुन्दानकुम्भ, कुम्भ, सन्ध्याक्ष, विभ्रमक्रूर, माल्यवान्, जम्बू, शिखीवीर, ऊर्द्धक, वज्जोदर, शक्रप्रभ, कृतांत, विगोधर, महामणी, असणीघोष, चन्द्र, चन्द्रनख, मृत्युभीषण, धूम्राक्ष, मुदित, विद्युतश्री, महामारीच, कनकक्रोधनु, क्षोभणद्रन्ध, उद्दाम, डिण्डी, डिण्डम, डिण्डव, प्रचण्ड, डमर, चण्ड, कुण्ड, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । १२१ हालाहल, विद्याकौशिक, विद्याविख्याक, सर्पबाह, महाद्युति, शंख, प्रशंख, रानमित्र, अञ्जनप्रभ, पुष्प क्रूर, महारक्त, घटाश्र, पुष्पखेचर अनङ्गकुसुम, कामवर्त, स्मरायण, कामाग्नि, कामराशि, कनकप्रभ, शशिमुख, सौम्यवक्र, महाकाम, हेम गौर, कदम्ब, विटप, भीमनाद, भयानाद, शादूलसिंह, बलाङ्ग, विघुद ङ्ग, ल्हादन, चपल, चाल, चञ्चल, हस्त, प्रहस्त । (३९) रामकी सेनाके योद्धाओंके नाम इस प्रकार हैं:नयमित्र, चन्द्रप्रभ. रतिंबईन, कुमुदावर्त, महेन्द्र, भभ्रमण्डल, अनुधर, दृढ़रथ, प्रोतिकण्ठ, महाबल, समुन्नतबल, सर्वज्योति, सर्वप्रिय बल, सवसा, सर्व, शरमभट, आभ्रष्टि, निविष्ठ, सन्त्रास, विघ्न, सूदन, नाट, वखर, कलोट, पालन, मण्डल, सङ्ग्राम, चपल, प्रस्तार, हिमवान् , गङ्गप्रिय, लव, दुप्रेष्ट, पूर्णचन्द्र, विधिसागर, घोष, प्रियविग्रह, स्कन्ध, चन्दन, पादप, चन्द्रकिरण, प्रतिधान, महाभैख, कीर्तन, दुष्टसिंह, कुष्टसमाधि, बहुल, हल, इन्द्रायुध, गतत्रास, सङ्कटपहार, विद्युत्कर्ण, बलशील, सुयज्ञ, रचनधन, सम्मेद, विचल, साल. काल, क्षत्रवर, अङ्गन, विकाल, लाल, ककालो, मङ्ग, भङ्गोभिः, उरचित, उतरंग, तिलक, कील, मुषेण, चाल, करन, वली, भीमरव, धर्म, मनोहर, मुख, सुख, कमनसार, रत्ननटी, शिवभूषण, दूषणकाल, विघट, विराधित, मनूरण, रण'निक्षेम, वेला, आक्षेयी, महाधर, नक्षत्र, लुब्ध, संग्राम, विनय, जय, नक्षत्रभाल, क्षोद, अतिविजय, विद्युद्वाह, मरुद्वाह, स्थाणु, मेघवाहन, रवियाण, प्रचण्डालि, युद्धावर्त, वसन्त, कान्त, कौमुदि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ दुसरा भाग। नन्दन, मूरि, कोलाहल, हेड, भावित, साधु, वत्सल, अर्द्धचन्द्र, जिन, प्रेमसागर, सागर, उरङ्ग, मनोज्ञ, जिनपति, नल, नील आदि। (१०) अब राम, लक्ष्मणने स्वयं युद्ध करना प्रारम्भ किया। घनघोर युद्ध हुआ । राम, लक्ष्मणकी सेनाने कुम्भकरण, इन्द्रनीत मेघनादको बांध लिया । रावणने लक्ष्मणपर शक्तिका प्रहार किया। शक्ति लगनेसे अचेत होकर गिर गये । रामने रावणसे उस दिन युद्ध बन्द करनेको कहा । युद्ध बन्द हो गया । लक्ष्मणका उपचार होने लगा । राम बहुत शोकाकुल हुए। किसीको आशा नहीं रही। रावण, लक्ष्मणकी यह दशा देख बड़ा हर्षित हुआ। परन्तु अपने भाईयों व पुत्रोंको शत्रुके हाथमें गये जान दुखी भी हुआ। रुक्ष्मणके आसपास चारों ओर सात २ पहरे बिठलाये और लक्ष्मणको शक्ति दूर करनेके विचार किये जाने लगे। इतने में एक युवक आया। भामण्डलने उसे जानेसे रोक दिया । परन्तु जब उसने लक्ष्मणकी रक्षाका उपाय बतलानेका आश्वासन दिया तब भामण्डल उसे रामके पास ले गये । रामके दर्शनकर उसने कहा कि एक वार मुझे भी शक्ति लगी थी, तब अयोध्याके. स्वामी भरतने मुझपर द्रोणमेघ रानाकी पुत्री विशल्याके स्नानका जल सींचा था उससे मैं शक्ति रहित हुआ था । एकवार अयोध्यामें कई प्रकारकी बिमारियां देव द्वारा फैलाई गई थीं। क्योंकि एक व्यापारी अपने भैंसेपर भति मार लाद कर अयोध्याको आया था और वह भैसा अति भारके कारण घायल होकर मराथा मरकर वह बायुकुमार नातिका देव हुआ। उसने अपने पूर्व भवका स्मरणकर अयोध्या वासियोंसे कुपित हो अयोध्यामें बीमारियां Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १२३ फैलाई । तब भरतने द्रोणमुख राजा को बुलाया और उपाय पूछा । उसने अपनी पुत्री विशल्याके स्नान जलसे अयोध्याके रोग दूर किये और उसी जलसे महाराज भरतने मेरी शक्ति दूर की । सो आप विशल्याके स्नानका जल शीघ्र मंगावे । तब शीघ्रगामी विमानपर चढ़कर भामण्डल, हनुमान, अङ्गद अयोध्याको गये और भरतसे सब हाल कहा । अपने भाइयोंपर विपत्ति आई हुई देख भरत युद्धार्थ उद्यत हुए; पर हनुमान आदिके समझानेपर रुके । और अपनी माताके सहित द्रोणमुखके पास गये । और विशल्याको लङ्का भेजनेकी प्रार्थना की । हनुमान आदि विशल्याको लङ्का ले गये । ज्यों २ विशल्या, लक्ष्मणके समीप पहुँचती थी त्यों २ लक्ष्मणका स्वास्थ्य ठीक होता जाता था । जब वह समीप पहुंच गई तब वह शक्ति रूपिणी देवी लक्ष्मणके शरीरसे निकल कर भागने लगी। हनुमानने उसे पकड़ लिया। उसने कहा इसमें मेरा अपराध नहीं; हमें जो सिद्ध करता है उसीके शत्रुका मैं संहार करती हूं। रावणको असुरेद्रने मुझे दी थी सो उसकी आज्ञानुसार मैंने किया । तब तत्त्ववेत्ता हनुमान ने उसे छोड़ दिया विशल्याके जलसे शत्रुपक्षके योडाओंको भी रामने लाभ पहुंचाया। फिर लक्ष्मणका विशल्याके साथ विवाह हुआ । जब यह समाचार रावण व उसके मंत्रियोंने सुने तो रावणको कुछ भी चिन्ता नहीं हुई; पर मन्त्रीलोग चिंता करने लगे और संधिके लिये आग्रह करने लगे । रामके पास दूत भेजा गया। दूतके द्वारा कहलाया गया कि यदि रावणका सब राज्य और लङ्काके दो भाग लेकर सीताको और रावणके पकड़े हुए कुटुम्बियोंको राम देना स्वीकार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। करें तो रावण सन्धि करनेको तैयार है । परन्तु रामने यह नहीं माना और उस दूतको राजसमासे निकाल दिया। उन्होंने कहा कि हमें राज्यसे क्या प्रयो नन ? हमें सोता चाहिये । (४१) रावण आगेके युद्ध के लिये विचार करने लगा। अष्टान्हिकाके दिन होनेके कारण युद्ध बन्द था ! रावणने बहरू. पिणी विद्या सिद्ध करना प्रारम्भ किया । अपने महल में जो शान्तिनाथका मन्दिर था उसे खूब सनाया। नित्यपूजनका भार मन्दोदरीको दिया और नीचे लिखी घोषणा करानेकी आज्ञा मन्दोदरीको देकर आप विद्या सिद्ध करने बैठाः “सब लोग दयामें तत्पर रहें; यम-नियमके धारक बनें; सम्पूर्ण व्यापारोंको छोड़ कर जिनेन्द्र पूना करें; अर्थी लोगोंको मनवांछित धन दिया जाय; अहङ्कार छोड़ दिया जाय; गर्व न किया जाय; उपद्रवियोंके उपद्रव करनेपर उसे शांति पूर्वक सहन किया जाय । मेरा नियम पूर्ण होने तक जो इन आज्ञाओंको भंग करेगा वह दण्डका पात्र होगा। " इस प्रकारकी राज्यमें घोषणा करवाकर रावण जब विद्या सिद्ध करने बैठ गया तब कई एकोने रामको कहा कि यह सुअवसर है । सहजमें लङ्का पर कब्जा कर लिया जा सकता है । परन्तु वीर रामने कहा ऐसा करना अन्याय करना है। अत एव उन्होंने उसे अस्वीकार किया। तब लक्ष्मणकी सम्मतिसे कुछ लोगोंने लङ्कामें उपद्रव मचाया । उन उपद्रवियोंको यक्षेश्वरोंने भगाया और राम लक्ष्मणको उलाहना दिया । लक्ष्मणने कहा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १२५ कि रावणने हमारा अपराध किया है उसे हम विद्या सिद्ध करने देना नहीं चाहते । तब उन्होंने कहा कि आपका द्वेष रावणसे है, नगरवासियोंसे नहीं अतएव रावणको सताओ, नगर निवासियोंको नहीं । लक्ष्मणने यह स्वीकार किया। फिर रामपक्षके कुछ कुछ पुरुष रावणके महलोंमें रावणको क्रोध उत्पन्न करनेके लिये गये ताकि उसे विद्या-सिद्धि न हो सके । सुग्रीव का पुत्र अङ्गद कई पुरुषों के साथ रावणके महलोंमें गया । रावणके महल रत्नोंसे सुसज्जित थे । स्फटिककी छतें थीं। उनके चित्रादिकोंको देख कर इन्हें साक्षात् सनीव प्राणियोंका भ्रम होता था। बड़ी कठिनतासे शान्तिनाथके मन्दिरमें पहुंचे । वहां भगवान्की स्तुति कर रावणको ध्यानसे डिगानेका प्रयत्न करने लगे । उसकी माला छुड़ाते, उसके कपड़े उतारते, उसकी स्त्रियोंको पकड़ लाते, उन्हें बेचने के लिये अपने सुभटोंको आदेश करते, दो स्त्रियोंकी चोटियां परस्परमें बांध देते; आदि कई प्रकारकी चेष्टाएं की। भगवान्के मन्दिर में भी सुग्रीवके पुत्र और रामपक्षके योद्धाओंने इस प्रकार अत्याचार कर अपना नाम सदाके लिये कलंकित किया है । अस्तु, परन्तु रावण इन विन्नोंसे नहीं डिगा । तब बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हुई । परन्तु सिद्ध होते समय विद्याने यह कह दिया कि मैं चक्रवर्ती और नारायणका कुछ नहीं कर सकूँगी । जब रावण ध्यानसे उठा तब रानियोंने अङ्गदकी शिकायत की । रावणने समझा बुझा कर सबको शान्त किया । फिर रावण, विमानमें चढ़ कर सीताके पास गया । और उसे समझा कर कहा कि रामका युद्ध में शीघ्र ही निपात होगा। अतएव Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ दूसरा भाग सुनी । और कहा कि 1 मुझसे प्रेम कर । परन्तु सीताने एक न यदि तेरे हाथसे रामका मरण हो तो अन्त समय उनसे मेरा सन्देश इस प्रकार कहना कि :- "सीता, तुम्हारे वियोग से बहुत दुःखी है । तुम्हारे दर्शनोंकी अभिलाषासे उसके प्राण टिक रहे हैं । " इस प्रकार सन्देश कह कर सीता मूर्छित हो गई । उस दशाको देख कर रावणका हृदय पिघला और वह विचार करने लगा कि मैंने अच्छा नहीं किया । विभीषणका उपदेश भी नहीं 1 माना । अब यदि सीताको देता हूं तो मेरी निर्बलता सिद्ध होती મૈં है । अब रावण के विचार बदले परन्तु बदनामीका भय लगा हुआ था । अतएव उसने निश्चय किया कि राम लक्ष्मणको युद्धमें जीत कर सीताको वापिस कर दूंगा तो मेरी शोभा होगी । जब वह लौट कर घर आया तत्र रावण की स्त्रियोंने फिर अङ्गदकी दुष्टताका विवेचन किया। अबकी बार रावणको को आगया और वह फिर जोर-शोर से युद्ध करनेके लिये उद्यत हुआ । जब वह दरबार में गया और वहाँ अपने भाई कुम्भकरण और पुत्र इन्द्रजीतको न देखा तो उसके क्रोधमें आहुति पड़ी । दरबारसे आयुधशाला में गया। उसके साथ उसकी पट्टरानी मन्दोदरी थी । मन्दोदरी पर भी छत्र, चंवर आदि उपकरण लगाये जाते थे । आयुधशाला में जाते समय अपशकुन हुए । मन्दोदरीने समझाया । अपनी प्रशंसा और सोताकी अप्रशंसा कर रामका भय बतलाया परन्तु रावणने एक न मानी । आयुवशालाका निरीक्षण कर महलोंमें आ गया । और दूसरे दिन कई शस्त्रविद्याओंका जानकार, धीर वीर रावण युद्ध करने चला ! मार्गमें अनेक अप Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्चन जैन इतिहाम। १२७ शकुन हुए। परन्तु एक की भी पर्वाह न कर युद्धक्षेत्रमें आ डटा। दोनों ओरसे घनघोर युद्ध हुआ। दोनों ओरके योद्धाओंने घनघोर युद्ध किया । इनमें कई योद्धा अणुव्रतोंके धारी भी थे। बहुत घनघोर युद्ध होनेके बाद रावणने लक्ष्मणपर चक्र चलाया। रामकी ओरके कई योहा उस चक्रसे लक्ष्मणकी रक्षा करनेको तैयार हुए । परन्तु वह चक्र स्वयं ही लक्ष्मणकी तीन प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मणके हाथोंमें आ गया। और फिर लक्ष्मणने उस चक्रको रावणपर चलाया सो रावण का उरूस्थल छेदकर रावणको प्राण रहित किया। (१२) रावणकी पराजय हुई । सेनामें हाहाकार मच गया। बिभीषण आदि शोक करने लगे । भ्रातृप्रेमके आवेशमें बिभीषण आत्मघात करनेको तैयार हुए । परन्तु रामादिने समझाकर उन्हें शांत किया । फिर राम, लक्ष्मण रावणके महलों में गये और रावणकी शोकाकुल रानियोंको समझाकर पद्म सरोवरके तट पर सुगंधित वस्तुओंसे रावण का शवदाह किया । (४३) रामने रावणके कुटुम्बियों तथा सम्बन्धियोंको छोड़नेकी आज्ञा दी। कई लोगोंने गमको ऐसा न करनेके लिये समझाया । क्योंकि उहें भ्रम था कि छूट जानेपर शायद फिर युद्ध हो । परन्तु निर्भय रामने न मानकर कुम्भकरण, इद्रजीत, मेघनाद, मय आदिको छोड़ दिया । रावणके मरणसे इन लोगोंके परिणाम वीतरागतामय हो गये थे । अतएव इन्होंने वैराग्य धार. णका विचार किया ! रामने राज्यादि सम्पदा लेनेके लिये इन लोगों को बहुत कुछ समझाया; पर इन्होंने नहीं माना । उप्ती दिन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२८ दूसरा भाग । पिछले पहर ५६ हजार मुनियोंके सङ्घ सहित अनन्तवीर्य आचार्य लङ्कामें आये | और वहीं भगवान् अनन्तवीर्यको कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हुआ । (28) रामचन्द्र के साथ वानरवंशी और राक्षसवंशी वन्दनाके लिये गये | कुम्मकरण, इन्द्रजीत, मेघनादने दीक्षा धारण की। मन्दोदरीने शशिक आर्थिक से दीक्षा ली। जिस दिन मन्दोदरी दीक्षित हुई, उस दिन अड़तालीस हज़ार स्त्रियोंने आर्यिकाके व्रत लिये थे । (४५) केवलीकी वन्दना करनेके पश्चात् राम, लक्ष्मणने अपने साथियों सहित लङ्कामें प्रवेश किया । सीतासे मिले । रामके साथी हनुमान, सुग्रीव, आदिने सीताको भेंटें दीं । लक्ष्मण पांवों पड़े । फिर परम हर्षके साथ रावणके महलों में जो शान्तिनाथका मन्दिर था उसकी वन्दनाको गये । वहाँ विभीषणने अपने पितामह सुमाली और माल्यवान्‌को तथा पिता रत्नश्रवाको रावणका शोक न करनेके लिये समझाया । और अपने महलों में जा अपनी विदग्धा नामक पट्टरानीको राम, लक्ष्मणके पास भेजकर भोजनका निमन्त्रण दिया। पीछे विभीषण भी निमन्त्रण देने को आया । राम, लक्ष्मण विभीषणकी पट्टरानी के साथ ही विभीषणके महलोंमें पधारे और वहां भोजन किया । विभीषणने खूब सत्कार किया । (४६)राम, लक्ष्मणके राज्याभिषेककी तैयारियां हुईं । पहिले तो इन दोनों भाइयोंने यह कहकर अभिषेक कराना उचित Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १२९ नहीं समझा कि हमारे पिता भरतको राज्य दे गये हैं, इसलिये हम जो कुछ राज्य प्राप्त करेंगे वह सब भरतका है । परन्तु जब बहुत हठ किया गया और यह कहा गया कि आप ही नारायण बलभद्र हैं, आपका अभिषेक होना उचित है, तव स्वीकार किया । अभिषेकके अनन्तर लक्ष्मणने मार्गमें जिन २ कन्याओंके साथ विवाह किया था उन २ कन्याओंको लानेके लिये विराधितको भेना । और रामचन्द्रका भी चन्द्रवर्द्धन आदि कितने ही नृपतियोंकी कन्याओंके साथ विवाह हुआ । लङ्काका राज्य विभीषणको दिया गया। पाठ. २९ रावणादिकी अंतिम गति । (१) रावण, मर कर नर्क गये। (२) इन्द्रनीत और कुम्भकरण केवली होकर नर्मदा तटसे मोक्ष गये। . . (३) मेघनाद भी कैवल्य-ज्ञानको प्राप्त होकर मोक्ष सिधारे। (४) जम्बूमालीका देहावसान तूर्णी पर्वत पर हुआ और वे अहमिन्द्र हुए। (५) रावणका मन्त्री मारीच स्वर्ग गया। (६) मन्दोदरीके पिता मय मुनिको सर्वोषधि ऋद्धिकी प्राप्ति हुई। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। पाठ ३० देशभूषण-कुलभूषण । (१) ये दोनों भ्राता थे । (२) ये सिद्धार्थ नगरके राजा क्षेमन्धर, रानी विमलाके पुत्र थे । (३) इनके पिताने इन्हें सागरघोष नामक विद्वान्के सिपुर्द शिक्षाके लिये किया । शिक्षा समाप्त कर जब ये घर पर आगये तब पिताने इनके विवाहके लिये योग्य कन्याएँ बुलाई । ये दोनों भ्राता उन कन्याओंको देखने जाने लगे । झरोखेमें इनकी बहिन कमोत्सवा बैठो थी। वह परम सुंदरी थी। इसको देख कर दोनों भ्राता उस पर मुग्ध हो गये । और यहां तक दोनोंके मनमें विचार हुआ कि जिसके साथ इसका विवाह न हो वही दूसरेके प्राण ले । परन्तु उसी समय दूतने कहा कि राजा क्षेमंधरकी जय हो जिनके दो पुत्र और झरोखेमें बैठी हुई कमलोत्सवा आदि पुत्रो हैं। जब इन्हें भान हुआ कि हाय ! हमारा दुष्ट मन बहिन पर आसक्त हुआ था। तब इन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ । (४) वैराग्य धारण करने पर इन्हें आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त हुई । घोर तप और पूर्व जन्मके शत्रु दैत्यके द्वारा किये गये उपसर्ग सहन करने के बाद इन्हें कैवल्य ज्ञान हुआ । (५) भगवान् मुनिसुव्रतनाथ-स्वामीके बाद एक अनंतवीर्य के वली हुए थे। उनके बाद इन दोनोंको कैवल्य-ज्ञान हुआ । (६) इनका पिता क्षेमंबर भी मर कर गहड़ेन्द्र हुआ। और वह भी इनके समवशरण में आया। (७) यहांसे दोनों केवली विहार कर गये और स्थान २ पर उपदेश दिया । अंतमें इसी पर्वतसे निर्वाण की प्राप्ति की। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १३१ पाठ ३१ राम लक्ष्मणका अयोध्या में आगमन, भरतका दीक्षा ग्रहण, राम लक्ष्मणका राज्याभिषेक, वैभव और दिग्विजय तथा शत्रुघ्नका मथुरा विजय करना । (१) रामचन्द्र और लक्ष्मणकी माता अपने पुत्रोंके पियोगका - बहुत दुःख करने लगीं । प्रतिदिन क्षीण होतीं जाती थीं और प्रायः सदा अश्रुपात करती रहतीं थीं । नारदने आकर उन्हें - समझाया और फिर राम, लक्ष्मणके पास आकर उनकी माताके समाचार कहे । तब राम लक्ष्मण अयोध्या जानेको उद्यत हुए । परन्तु बिभीषणने उन्हें हठ करके सोलह दिनके लिये और रोका । और उनकी कुशलता, आनेकी तिथिकी सूचना अयोध्या भिजवा दी । (२) सोलह दिनोंके भीतर ही रामके स्वागतार्थ बहुत कुछ तैयारियां अयोध्या में हो गई। नवीन जिन मंदिर बन गये । कई महल बनवाये गये । 1 (३) छः वर्ष लङ्का में व्यतीतकर राम, लक्ष्मण अयोध्या में आये | आपके साथ हनुमान, भामण्डल, सुग्रीव आदि भी थे । माताओंको रानियों सहित दोनों भ्राताओंने प्रणाम किया । भरतसे मिले | अयोध्या में रत्नदृष्टि हुई जिसके कारण निर्धन, धनी हो गये । (४) रामके यहां इस प्रकार विभूति थीः - रथ और हाथी बयालीस लाख, घोड़े नौ करोड़, पांयदलसेना बयालीस करोड़, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दूसरा भाग तीन खण्डके विद्याधर और मनुष्य सेवक । रामचंद्रके निजके. चार रत्न इस प्रकार थे; हल, मूसल, रत्नमाला और गदा । (५) लक्ष्मण के सात रत्न थे:- शंख, चक्र, गदा, खड्ग, दण्ड, नागशय्या, कौस्तुभमणि । आपकी सभाका नाम वैजयन्ती था । नाटकगृहका नाम वर्द्धमानक था । आपके अनेक प्रकारके शीत उष्ण, आदि ऋतुओंके उपयोगी महल थे। आपके पांवोंकी खड़ाऊओंका नाम विषमोचिका था । जिनके द्वारा आप आकाश मार्गसे गमन कर सकते थे । पचास लक्ष कृषि कार्यके उपयोगी हल थे । एक करोड़ से अधिक गायें थीं । (इ) राम, लक्ष्मणके आजाने पर भरत अपनी प्रतिज्ञानुसार तप करनेको उद्यत हुए । राम, लक्ष्मणने, उनकी माताओं और भावियोंने बहुत समझाया, पर वे राज़ी नहीं हुए । एक दिन उन की भावियां उन्हें संसार में आसक्त करनेके लिये सरोवर पर ले गई और वहां जल क्रीड़ा करने लगीं । भरत कुछ देर तक तो साधारण दृष्टि से देखते रहे । फिर पूजन करने लगे । इतने में त्रैलोक्य - मण्डन नामक हाथी छूट गया और उपद्रव मचाता हुआ जहां भरत थे वहां आ खड़ा हुआ । इनकी भावियाँ भी भयके कारण जलसे निकल इनके पास आ खड़ीं हुईं । विचलित हाथीको भरतके समीप देख कर भरतकी माता व अन्य पुरुष घबड़ाये । परन्तु धीरवीर भरत निर्भय हो कर हाथीके सन्मुख खड़े हो गये इन्हें देख कर हाथी शान्त हो गया । हाथीको उस समय पूर्वभवका ज्ञान हो गया था । भरत और सीता तथा लक्ष्मणकी पटरानी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। १३३ विशल्या हाथी पर चढ़कर नगरमें आई । खूब दान दिया गया । साधुओंको भोजन करवाया फिर कुटुम्बियोंको भोजन - करवा कर भरतने भोजन किया । ___(७) भरतने देशभूषण केवलीके समीप दीक्षा धारण की। आपके साथ एक हजारसे कुछ अधिक राना और दीक्षित हुए । (८) भरतके दीक्षा लेनेपर इनकी माताने वहुत शोक किया । परन्तु फिर उन्होंने भी आर्यिकाके व्रत लिये । भरत घनघोर तप करके केवली हुए और मोक्ष पधारे। (९) भरतकी माता महारानी कैकयीने आर्यिकाके व्रत लिये। आपके साथ ३०० स्त्रियां और दीक्षित हुई। (१०) भरतके दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर प्रजा रामके पास आकर राज्यभिषेककी प्रार्थना करने लगी । रामने कहा कि लक्ष्मण नारायण हैं उनका अभिषेक करना उचित है । प्रना उनके पास गई । परन्तु भ्रातृभक्त लक्ष्मणने अस्वीकार किया । अन्तमें दोनों भ्राताओंका राज्याभिषेक किया गया। दोनोंकी पटरानियों सीता और विशल्याका भी अभिषेक किया गया। राज्यभिषेकके समय राम, लक्ष्मणने जो जहांके राजा थे, उन्हें वहींके राजा माने । जिनका राज्य हरण हो गया था उन्हें राज्य दिया। (११) अपने लघु-भ्राता शत्रुघ्नसे रामने कहा कि तुम्हें कहांका राज्य चाहिये ! शत्रुघ्नने मथुराका मांगा । मथुरां उस समय महाराज मधुकी राजधानी थी। मधु महाबलवान् राजा था। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग अनुचित है । राज्य और १३४ 1 रामने कहा- मधु बलवान् है, उससे झगड़ा करना परन्तु शत्रुघ्नने नहीं माना तब रामने मथुराका आशीर्वाद दिया । लक्ष्मणने समुद्रावर्त धनुष दिया । (१२) राम, लक्ष्मणसे मथुराका राज्य तथा कुटुम्बियों से आशीर्वाद लेकर शत्रुघ्न मथुराकी ओर चले । साथमें बड़ी सेना थी । सेनाका सेनापति कृतान्तवक्र था । जब मथुरा के समीप पहुँच गये तब यमुना नदी के तटपर डेरे डाले | गुप्त- चरोंको नगर में भेजकर मधुकी स्थिति का पता मंगवाया। इधर शत्रुघ्न के मंत्री शत्रुघ्नकी' विजय के सम्बन्ध में चिन्ता करने लगे । क्योंकि मधुकी वीरता में बड़ी भारी ख्याति थी | परन्तु कृतान्तवक्रने सबको निसंशय कर दिया । गुप्त - चरोंने आकर सूचना दी कि मधु अपनी रानी जयंती के साथ क्रीड़ा करता हुआ उपवनमें पड़ा है। राज्य की ओर ध्यान नहीं देता । मंत्रियों की नहीं सुनता । यह समय अच्छा समझ शत्रुघ्न ने रातोंरात नगर पर अधिकार कर लिया और प्रजाको निर्भय रहने तथा रक्षा करनेका आश्वासन देकर सन्तुष्ट कर दिया । यह हालत देख मधु चढ़ आया | मधुके पुत्रको कृतान्तवक्रने मारा । तब मधु बड़े क्रोघसे युद्धको उद्यत हुआ । शत्रुघ्न और मधुसे घनघोर युद्ध हुआ । शत्रुघ्नके शस्त्रप्रहार से बड़े २ योद्धा मरने लगे । मधुका बख्तर छेद डाला । यह हालत देख मधुको वैराग्य हो गया और अपनी ओर से युद्ध बन्द: कर दिया | मधुको शांत देख शत्रुन्नने भी युद्ध बन्द कर दिया । और जब मधुने सन्यास धारण कर लिया तब शत्रुघ्नने प्रणाम कर मघुसे क्षमा मांगी। शत्रुको मथुरा पर घनिष्ठ प्रेम था । क्योंकि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । १३५ शत्रुघ्नके कई पूर्वजन्मोंकी यह नगरी जन्मभूमि थी। मधुके स्वर्गगमन करने पर मधुके मित्र चमरेन्द्रने मथुरामें कई प्रकारके रोग फैलाये । उससे प्रजा जहां तहां भाग गई। शत्रुघ्न भी अयोध्या चले गये। कुछ दिनों बाद मथुरामें सप्तऋषियोंका शुभागमन हुआ जिससे मरी रोग नष्ट हो गया । इन ऋषियोंने मथुरामें ही चातुर्माप्त किया था। रहते मथुरामें थे। परन्तु भोजनके लिये अन्य नगरोंमें जाया करते थे । रोग शांत होने पर शत्रुघ्न मथुराको लौट आये । उनकी माता भी साथ थीं। दोनोंने ऋषियोंकी वंदना की और मथुरामें रहनेका सविनय आग्रह किया । परन्तु ऋषियोंने कहा कि यह धर्मकाल है । इस कालमें लोगोंका कल्याण करना हमारा कर्तव्य है। पंचमकाल शीघ्र प्रगट होनेवाला है। अतएव हम एक स्थान पर नहीं रह सकते। ऐसा कह मथुरासे विहार कर गये। जाते समय अयोध्यामें सीताके यहाँ आहार लिया। (१३) विजयाईकी दक्षिण श्रेणीमें एक रत्नरथ नामक राजा था । उसके यहां एक दिन नारद गये । रत्नरथने अपनी कन्याके लिये वरके सम्बन्धमें पूछताछ की। नारदने कहा कि लक्ष्मणके साथ कन्याका विवाह कर दो । रत्नरथके पुत्रोंने कहा " लक्ष्मण हमारा शत्रु है। तू धूर्तता करता है । " ऐसा कह नारदको मारनेके लिये उद्यत हुए । परन्तु नारद शीघ्रतासे आकाश मार्गसे लक्ष्मणके पास आये । सब वृत्तान्त कहे तथा रत्नरथकी पुत्रीका चित्र बतलाया। उस चित्रपरसे मोहित हो लक्ष्मण Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.६ दूसरा भाग । रत्नरथसे युद्ध करनेको उद्यत हुए। दोनोंमें युद्ध हुआ । राम, लक्ष्मणकी विजय हुई | तब मनोरमा ( रत्नस्थकी कन्या) लक्ष्मणके पास आई । इसे देख लक्ष्मणका क्रोध शांत हुआ । रत्नरथ भी अपने पुत्रों सहित राम, लक्ष्मणके पांवों पड़े । नारदसे क्षमा मांगी । मनोरमा के साथ लक्ष्मणका और श्रीदामा के साथ रामका रत्नरथने विवाह किया । (१४) इसके बाद राम, लक्ष्मणने विद्याधरोंकी दक्षिण श्रेणीको जीता । दक्षिण श्रेणीकी मुख्य राजधानियां इस प्रकार थीं: - रविप्रभ, धनप्रभ, काञ्चनप्रभ, मेघपभ, शिवमंदिर, गंधर्वजीत, अमृतपुर, लक्ष्मीधरप्रभ, किन्नरपुर, मेघकूट, मत्ये नीत, चक्रपुर, रथनूपुर, बहुरव, श्रीमलय, श्रीगृह, अरिज्जय, भास्करप्रभ ज्योतिषपुर, चंद्रपुर, गंधार, मलय, सिंहपुर, श्रीविजयपुर, भद्रपुर, यक्षपुर, तिलक, स्थानक इत्यादि राजधानियां राम लक्ष्मणने वशमें की । (१५) लक्ष्मण की सोलह हजार रानियां और आठ पट्टरानियां थीं । पटरानियोंके नाम इस प्रकार हैं: १ विशल्या, २ रूपवती, ३ वनमाला, ४ कल्याणमाला, ५ रतिमाला ६ जिनपद्मा, ७ भगवती, और ८ मनोरमा । रामकी स्त्रियोंकी संख्या आठ हजार थी । और पट्टरानियां चार 1 थीं । प्रथम सीता, दूसरी प्रभावती, तीसरी रतिप्रभा, और चौथी श्रीदामा | (१६) लक्ष्मणके पुत्रोंकी संख्या २५० थी । उनमें से कुछेक के नाम इस प्रकार हैं: - वृषभधरण, चन्द्रशरभ, मकरध्वज, हरिनाग, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १३७ श्रीधर, मदन, महाकल्याण, विमलप्रभ, अर्जुनप्रभ, श्रीकेशी, सत्य - केशी, सुपार्श्वकीर्ति, इत्यादि । सब पुत्र बड़े बलवान् और शस्त्रास्त्र विद्या- पटु थे। (१७) राम, लक्ष्मणके आधीन नरेशोंकी संख्या सोलह हजार थी और रघुवंशी राजकुमारों की संख्या साढ़े चार करोड़ थी । पाठ ३२ सीताका त्याग, रामके पुत्र लवाङ्कुशका जन्म । (१) गर्भवती होने के पश्चात् सीताने एक रात में दो स्त्रम देखे । पहिले स्वप्न में दो अष्टापद देखे और दूसरे में अपने आपको पुष्पक विमान से गिरते देखा । अपने पति रामसे फल पूँछने पर उन्होंने कहा कि पहिले स्वप्न का फल तो यह है कि तुझारे गर्भसे युगल पुत्रों की उत्पत्ति होगी। दूसरा स्वप्न अनिष्टाकारक है, परन्तु दान पुण्य करने से सब अच्छा ही होगा | जब वसन्त ऋतु आई तब राम, लक्ष्मण, सीता आदि वनोंमें गये । गर्भ भारके कारण सीता दिन पर दिन कृश होती जा रही थी । वनमें एक दिन रामने सीतासे पूँछा कि क्या इच्छा है ? सीताने कहा कि मुझे स्थान २ के जिन मंदिरोंकी तथा बड़े समारोहसे जिन पूजन करने की इच्छा है। बस प्रत्येक स्थानके जिन मंदिर ध्वना, छत्र, तोरणादिसे सजाये गये । पूजन प्रभावनाका समारोह किया गया । तीर्थों पर भी आयोजन हुआ और महेन्द्रोदय नामक उद्यान में भी जिन मंदिर सुशोभित किया गया तब राम, लक्ष्मण, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। सीता सह कुटुम्ब तथा अन्यान्य राजागण सहित महेन्द्रोदय उद्यान में गये और वहां जल क्रीड़ा कर फिर राम, सीता आदिने बड़े समारोहके साथ पूजन व नृत्य किया । (२) राम, लक्ष्मण उसी उद्यानमें ठहरे हुए थे कि नगरके कुछ पुरुष आपके पास आये । उनमेंसे मुखियोंके नाम ये हैं:विजयसुरानी, मधुमानव, सुलोघर, काश्यप, पिङ्गल इत्यादि । नव ये रामके पास आये तब सीताकी दाई आंख फुरकी। सीता चिंता करने लगी। परन्तु अन्य रानियोंके कहनेसे कि भाग्य पर विश्वास रक्खो और दान--धर्म करो, सीता कुछ शांत हुई और अपने भद्रकलश भण्डारीको आज्ञा दी कि मेरे गर्भसे सन्तानोत्पत्ति होने तक किमिच्छिक दान दिया जाय । इधर नगरवासी निप्स प्रार्थनाके लिये आये थे उसे कहनेका उन्हें साहस नहीं होता था । तब रामके बहुत समझाने और प्राणदान देने का वचन देने पर उन्होंने कहा कि नाथ ! नगरमें स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्तिकी वृद्धि होती जाती है । समाजका कुछ भय नहीं रहा है । निर्बलकी स्त्रीको सवल हर ले जाता है । दोनोंका संयोग होता है । निर्बल किसी अन्यकी सहायतासे अपनी स्त्रीको छुड़ा लाता है और फिर उसे घर ही में रखकर उसके साथ स्त्री व्यवहार रखता है । यदि अधिक कहते हैं तो उत्तर मिलता है कि महाराजा रामचंद्रने भी तो ऐसा ही किया है । यह धर्मके विरुद्ध मार्ग है। निवेदन है कि इसका आप उचित प्रबन्ध करें । यह सुन कर राम चिंतामें पड़े। वे सीताके सम्बंधमें नगर वासियोंके माव ताड़ गये । राम मन ही मन कमी तो सीताकी पवित्रता और प्रेमका विचार करते, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १३९ और कभी स्त्रियोंके स्वभावका विचार कर संदेह करने लगते और कभी लोकनिन्दाका ध्यान कर हृदयमें डर जाते । अन्तमें सीताको वनवास देनेका विचार कर रामने लक्ष्मणको बुलाया | और सर्व वृत्तांत कहे | लक्ष्मण, सीता पर दोष लगानेवालों पर क्रोधित हुए, परन्तु रामने उन्हें समझाया । और कहा कि हमारा कुल प्राचीन काल से पवित्र और ऊंचा रहा है । उस पवित्रताको बनाये रखनेके लिये मैंने निश्चय किया है कि सीता निकाल दी जाय । लक्ष्मणने सीताको कष्ट देनेके लिये बहुत मना किया । रामसे कहा कि टोकलानकी पर्वाह नहीं । लोकसम्प्रदाय विचारशील नहीं होता। उसके विचारों और उसकी की हुई निंदा पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिये । पर रामने लक्ष्मणकी विचार- पूर्ण बातोंको नहीं माना । और कृतांतवक सेनापतिको आज्ञा दी कि सीताको सर्व सिद्धक्षेत्रोंके दर्शन करवाकर सिंहनाद नामक वनमें छोड़ आओ । जिन रामने सीताके लिये रावणसे घोर युद्ध किया । जिन रामने सीताके वियोग में आंसू तक डाले, उन्हीं रामने अपने लघुभ्राता के समझाने पर भी मूर्ख लोक-समाजके आगे आत्म समर्पण कर दिया और अपनी आत्म-निर्बलता प्रगट कर सीताका त्याग किया। कोई चाहे इसे भाग्यकी घटना कहे, चाहे अन्य कुछ परन्तु हम इन सब बातोंके साथ साथ इसमें रामचंद्रकी निर्बलताका अंश अधिक पाते हैं और जब हम उनके अन्य कृत्यों को देखते हैं तब उनके समान वीरमें इस प्रकार की आत्म-निर्बलताका पाया जाना हमें आश्चर्यान्वित करता है । कुछ भी हो, रामने अपने वीरतामय चरित्र में इस निर्बलताको स्थान Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। देकर जीवनकी शृंखला, विशृंखलित कर दी । हम यहां पर लक्ष्म'णके आत्मबलकी प्रशंसा करेंगे और साथमें यह भी कहेंगे कि जब हम लक्ष्मणका चरित्र पढ़ते हैं तब विदित होता है कि उनकी जीवन शृंखला कहीं भी विशृखलित नहीं हुई । आदिसे अंत तक एकसी ही रही । और यह उनके जीवनकी एक बड़ी भारी विशेषता थी । रामचंद्र इस विशेषतासे वञ्चित रहे । अस्तु, कृतांतवक सीताको छोड़ आया । (३) छोड़ते समय सीताको बहुत दुःख हुआ। परन्तु पतिभक्तिपरायण सीताने अपने स्वामी रामके लिये किसी प्रकार अपमान जनक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया। सीताने कृतांतवक्रसे यही कहा कि:-कृतांतवक्र ! स्वामीसे कहना कि सीताने कहा है मेरे त्यागके सम्बन्धमें आप किसी प्रकारका विषाद न करना, धैर्य सहित सदा प्रजाकी रक्षा करना, प्रनाको पुत्र समान समझना, सम्यग्यशेनकी सदा आराधना करना, राज्यसम्पदाकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन कहीं श्रेष्ठ है । अभय जीवोंके द्वारा की जानेवाली निन्दाके भयसे सम्यग्दर्शनका त्याग नहीं करना । जगत् की बात तो सुनना परन्तु करना वही जो उचित हो । क्योंकि वह गाडरी प्रवाह के समान है। दानसे सदा प्रेम रखना, मित्रोंको अपने निर्मल स्वभावसे प्रसन्न रखना, साधुओं. तथा आर्यिकाओंको प्रासुक आहार सदा देना, चतुर्विध संघकी सेवा करना, क्रोध, मान, माया, लोमको इनके विपक्षी गुणोंसे जीतना । और मैंने कभी अविनय की हो तो सुझे क्षमा करना । " ऐसा कह वह सती साधी सीता रथसे उतर मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १४१ सीताकी इस दशासे कृतान्तवक्र भी बहुत दुःखी हुआ। और जिस पराधीनताके कारण उसे यह कृत्य करना पड़ा । उस पराधीनताकी वह निंदा करने लगा । अतमें सीताको छोड़ वह चला गया । होश आने पर सीता रुदन करने लगी। (४) इसी वनमें पुंढरीकपूरका राजा वज्रनंघ अपनी सेना सहित हाथी पकडने आया था। सो उसके सैनिकोंने जब सीताका रुदन सुना तब ये लोग उसके पास गये । सीता इन्हें देख भय करने लगी । परन्तु सैनिकोंने सोताको धैर्य बँधाया और कहा कि राजा वज्रजंघ परमगुणी और शीलवान् हैं, वह आपकी सहायता करेगा। ऐसा कह सैनिकोंने वजनंघसे जब सीताके समाचार कहे तब वह सीताके पास आया और सीताको सर्व वृत्तान्त पूँछ कर कहने लगा कि तुम मेरी धर्म-भगिनी हो; मेरे घर पर चलो । वहीं आनन्दसे रहना। वज्रजंघ पुंढरीक नगरीका राजा था। इसके पिताका नाम द्वारदवाय और माताका सुबन्धु था। सोमवंशी था । वज्रघकी इस प्रकार अनचीती सहायतासे सीता गद्द हो गई और वजनंघको धन्यवाद दे उसके साथ चलनेको उद्यत हुई । वनजंघ सीताको पालकीमें बिठला कर पुंढरीकपुरको ले गया। मार्ग में प्रनाने भी सीताकी अभ्यर्थना की । पुंढरीकपुरमें भी सीताका प्रजाने बहुत भारी स्वागत किया। नगर सजाया। द्वार बनवाये । दान दिया । पूजन हुई । महराज वजनंधके कुटुम्बियोंने भी सीताका परमहर्षके साथ स्वागत किया । और सेवामें तत्पर रहे। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। - (५) श्रावणं सुदी १५ को श्रवण नक्षत्रमें रामचन्द्रके दोनों पुत्रोंका जन्म. महाराजा वज्रनंधके गृह पर हुआ । एकका नाम अनङ्ग लवण और दूसरेका मदनांकुश नाम रक्खा । ये दोनों बड़े सुन्दर और शक्तिवान् थे। पाठ ३३. रामचंद्रके पुत्र अनङ्गलवण और मदनांकुश तथापितापुत्रका युद्ध। (१) अनङ्ग-लवण और मदनांकुश कुमार--रामचंद्रके पुत्र थे । ये परम प्रतापी, तेजस्वी, सुन्दर और महा बलवान् चरमशरीरी थे। (२) जब ये बड़े हुए तब पुंढरीक नगरीमें इनके भाग्योदयसे एक क्षुल्लकवतधारी श्रावकका शुभागमन हुआ। ये खण्ड वस्त्रके धारी, वैरागी और शान्त परिणामी थे । इनका नाम सिद्धार्थ था । ये दोनों कुमारों पर स्नेह करने लगे । और पढ़ाने लगे। इन्हींने कुमारोंको शस्त्रास्त्रकी भी शिक्षा दी । दूसरेके शस्त्रोंका निवारण और अपने शस्त्रों के प्रहारकी विधिमें कुमारोंको सिद्धार्थ (क्षुल्लक ने पारङ्गत कर दिया । (३) जब ये दोनों कुमार शिक्षित हो गये तब वनंघने अपनी कन्या शशिभूता और अन्य बत्तीस कन्याओंके साथ अनङ्गलवणका विवाह कर दिया तथा मदनांकुश कुमारके लिये पृथ्वीपुरके राजा पृथुके पास दृत भेजकर कहलाया कि तुम अपनी कन्या मदनांकुश कुमारको दो। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । १४३ तब सीताके (४) परन्तु पृथु इस संदेश पर क्रोधित हो कहने लगा कि मैं अपनी कन्या अज्ञात कुल शीलवान पुरुषोंको नहीं देना चाहता । इस पर दोनों राज्योंमें युद्ध हुआ । राजा वज्रजघने पृथुके मुख्य सहायक व्याघ्ररथको बाँध लिया । तब पृथुने पोदनापुर नरेशको सहायतार्थ बुलाया । वज्रघने भी अपने पुत्रोंको बुलाया । कुमार युद्धार्थ जानेको प्रस्तुत हुए । सीताने यह कि अभी अवस्था बहुत छोटी है । परन्तु दोनों वीरोंने नहीं माना । माताको उत्तर दिया कि हम योद्धा हैं। छोटी चिनगारी बड़े २ बनोंको भस्म कर डालती है । जो वीर होते हैं वे ही पृथ्वीका उपभोग कर सकते हैं । अपने पुत्रोंके इस उत्तरसे प्रसन्न हो माता सीताने आशीर्वाद देकर विदा किया। दोनों कुमारोंके साथ पृथुका घनघोर युद्ध हुआ । जब पृथु भागने लगा तब कुमारोंने कहा कि भागते कहाँ हो ? हमारा कुल शील देखते जाओ । जब इनसे पीछा छुड़ाना उसे कठिन मालूम हुआ तत्र हाथ जोड़ कर इनके आगे खड़ा हो गया और अपनी कन्या कनकमालाका मदनांकुश कुमार के साथ विवाह किया । (५) फिर दोनों भाई दिग्विनयको निकले । सोसुह्य देश, मगध देश, अंग देश और वंग देशको जीतकर पोदनापुरके राजा के साथ लोकाक्ष नगर गये और उस ओरके बहुतसे राजा'ओंको जीता | कुबेरकान्त नामक महाभिमानी राजाको अपने आधीन किया । फिर लम्पाक देश, विजयस्थल, ऋषि कुन्तल देश, को जीतते हुए सालाय, नन्दि, नन्दन, स्थल, शलभ, अनल, भीम, भूतरव इत्यादि अनेक देशाधिपतियों को वश कर सिन्धु दीनों बालक कह कर रोका Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ दूसरा भाग । नदी पार गये । समुद्र तटके अनेक राजाओंको जीता । भीरु देश, पवनकच्छ, चारब, त्रजट, नट, सक्र, केरल, नेपाल, मालव, अरल, सर्वरत्र, शिरपार, शैल गोशील, कुशीनार, सूरपार, कमनर्त, विधि, शूरसेन, बल्हीक, उलूक, कौशल, गान्धार, सौबीर, अन्ध्र, काल, कलिङ्ग इत्यादि अनेक देशों पर विजय पताका फहराते हुए दोनों कुमार पुंढरीक नगरीमें वापिस आये । अपने 1 विजयी युगल कुमारोंको देखकर माता सीता परम प्रसन्न हुई । और नगर में बहुत उत्साह से कुमारोंका स्वागत हुआ । (६) एक दिन नारद कृतान्तवक्र सेनापति से सीताको जिस स्थान पर छोड़ा था, उस स्थानका पता पूँछ कर सीताको ढूँढ रहे थे और ये दोनों कुमार भी उसी वनमें वन-क्रीड़ाथ आये थे । जब इन्होंने नारदको देखा तो भक्तिवश प्रणाम किया । नादने आशीर्वाद दिया कि तुम राम, लक्ष्मणके समान बनो । तब युगल कुमारोंने पूँछा कि राम, लक्ष्मण कौन हैं ? नारदने राम, लक्ष्मण और सीताका सब वृत्तान्त कहा । फिर कुमारोंने पूँछा कि अयोध्या कितनी दूर है ? नारदने कहा कि १६० योजन । यह सुन अनङ्गलवण बोले कि मैं राम, लक्ष्मणसे युद्ध करूँगा । ऐसा कह वज्रगंधसे कहा कि सेना तैयार कराओ । कुमारोंके विद्या - गुरु सिद्धार्थ नारदसे कहने लगे कि कुटुंबियों में परस्पर युद्ध ठनवा कर आपने अच्छा नहीं किया । सीता भी रोने लगीं। और कहा कि तुम्हारा धर्म नहीं है कि युद्ध करो । कुमारोंने उत्तर दिया कि पिताजीने आपको बिना न्याय बनवास दिया है। उन्हें Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जनै इतिहास । १४५ 1 1 बहुत अभिमान है; हम उनका अभिमान चूर्ग करेंगे । ऐसा कह दोनों कुमार युद्धार्थ उद्यत हुए। अपने साथ बहुत बड़ी सेना ली । ग्यारह हज़ार राजा इनके साथी बने और युद्धके लिये चले | (७) पर चक्रको चढ़ाई करते देख राम, लक्ष्मण भी उद्यत हुए और पांच हजार राजाओं सहित लड़ने लगे । दोनों ओर घोर युद्ध हुआ । सीताके भाई भामण्डल भी रामकी सहायतार्थ आये । परन्तु जब नारदने सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा तब युद्धमें सम्मिलित न हो सीता के पास गये और उन्हें विमान में बिटलाकर युद्ध क्षेत्रमें लाये | और युद्ध देखने लगे। दोनों ओर से घनघोर युद्ध हुआ । कुमारोंका प्रहार इस रीति से होता था कि जिससे राम, लक्ष्मणके मर्म स्थानपर किसी प्रकारका आघात न होने पावे । क्योंकि दोनों कुमार अपने इस पूज्योंसे परिचित थे । परन्तु राम लक्ष्मण इन्हें नहीं जानते थे भाग नहीं लिया। क्योंकि उन्हें भी इन स्परिक सम्बन्ध ज्ञात हो गया था। दोनों कुमार बड़ी चतुरतासे युद्ध करते थे । रामके हल, मूसलोंने काम देना छोड़ दिया । लक्ष्मणका चक्र लौट आया तब इन्हें संदेह हुआ कि मालूम होता है कि बलभद्र, नारायण ये ही दोनों हैं, हम नहीं हैं । तब दोनों कुमारों के गुरु क्षुक प्रवर सिद्धार्थने आकर कहा कि आप संदेह मत करो : बलभद्र, नारायण तो आप हीं हैं । परन्तु ये श्रीमान् रामचन्द्र के पुत्र हैं । इसलिये आपके शस्त्र कुछ काम नहीं दे रहे | हनुमानने भी युद्ध में दोनों शत्रुओंका पार 1 1 हैं । जब यह गुप्त रहस्य राम, लक्ष्मणको मालूम हुआ तब उन्होंने शस्त्र पटक दिये और दोनों कुमारोंके पास आये । पिता Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दूसरा भाग। और काकाको शस्त्र डालते देख कुमारोंने भी शस्त्र डाल दिये और पिता तथा काकाके चरणोंपर पड़े । सीता यह देख पुंढरीकपुरको चली गई। दोनों कुमारोंका अयोध्या नगर प्रवेश बड़े मानंद उत्साहके साथ कराया गया। पाठ ३४. सीताका अयोध्या पुनरागमन, अग्निपरीक्षा, दीक्षा ग्रहण और स्वर्गवास । (१) जब सीताके युगल कुमार अयोध्यामें आ गये तब सुग्रीव, हनुमानादिने सीताको बुलाने के लिये रामसे कहा । रामने कहा कि जब सीताका त्याग किया गया है तव विना परीक्षाके अब उसका ग्रहण करना अनुचित है । सबोंने कहा कि आप जो उचित समझें वह परीक्षा कर लें; पर बुलावें अवश्य । तब रामने स्वीकार किया । .. (६) सब आधीनस्थ राजा बुलाये गये और सीताको लेने हनुमान, मुग्रीवा दि गये । राजसभाका अधिवेशन हुआ ! सीता आई और रामके आगे खड़ी हो गई । समको सीमाके देखते ही क्रोध उत्पन्न हुआ कि यह बड़ी ढंठ स्त्री है, जो त्याग देने पर भी फिर आ गई है। सीताने रामका भाव समझ लिया और क्रोधमिश्रित विनयके साथ कहा कि आप बड़े निर्दयी हैं । मेरे पर अत्याचार करते हैं । लोक समूहके कहने पर आपने मुझ निरपराधाका त्याग किया है । आपको त्याग ही करना था तो Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। १४७ आर्यिकाके पास मुझे छुड़वाते । अस्तु, अब आप उचित समझें वह मेरी परीक्षा करलें। रामने आज्ञा दी कि सीता ! तुम रावणके गृहमें कई मासों तक रही हो अतएव तुम्हारी शील परीक्षाके अर्थ निर्धारित किया जाता है कि तुम अग्निमें प्रवेश करो । यदि तुम शीलवान् होगी तो अग्निसे तुम्हारी कुछ भी हानि नहीं होनेकी । सती, साध्वी सीताने यह परीक्षा देना स्वीकार किया। परन्तु दूसरे लोग इस कठिन परीक्षाको सुनते ही विलचित हो गये । और रामसे कहने लगे कि सीता पवित्र है । ऐसी कठिन परीक्षा लेना उचित नहीं; पर रामने नहीं माना । तब तीनसौ हाथ लम्बा-चौड़ा अग्निकुण्ड बनाया गया । (३) उसी रात्रिको सकल-भूषण मुनिके कैवल्य ज्ञानकी पूनाऽर्थ इन्द्र जा रहे थे । मार्गमें अग्निकुण्डका आयोजन देख मेघकेतु नामक देवने इन्द्रसे कहा कि, देखिए ! पतिव्रता, परम शीलवान् सीताकी परीक्षाके लिये यह प्राणघाती भयङ्कर आयोजन हो रहा है । इससे सीताकी रक्षा करना उचित है । इन्द्रने कहा कि मैं केवलज्ञानकी पूजाऽर्थ जाता हूं, तुम सीताकी रक्षा करो । तब वह देव वहीं ठहर गया। (३) जब अग्निकुण्डमें चन्दनादिके द्वारा भयानक अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिसे देख सीताके भविष्यकी लोगोंको चिन्ता होने लगी और बड़े २ धीर वीरोंका धैर्य च्युत हुआ । राम, लक्ष्मण तक रोने लगे, तब सीताने पञ्च परमेष्ठीका स्मरण कर धैर्य युक्त मुद्रासे गम्भीर स्वरमें कहा कि यदि मैंने मनसे, वचनसे, कायासे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ दुसरा भाग जागृतावस्थामें अथवा स्वप्नावस्था तक में रघुनाथ रामचन्द्रके. सिवा अन्य पुरुषसे पतिका भाव किया हो तो यह अग्नि मेरे इस शरीरको भस्म कर दे । मेरे सत्कृत्य और दुत्कृत्यकी साक्षी रूप यही अग्नि है । बस, इतना कहकर सीता कुण्डमें जा कूदी, जन-समूहकी आंखें मुंद गईं । सहस्त्रों मुखोंसे हाय २ की अस्पष्ट ध्वनि निकल पड़ी । परन्तु उसी क्षणमें वह अग्निकुण्ड, जलकुण्ड हो गया । उस ऊपर बैठे हुए देवने यह सब लीला कर डाली । जलकुंडमें कमल खिले हुए थे । एक बड़े कमलपर सिंहासन था उस पर सीता बिराजमान थीं। अब जल बढ़ने लगा और यहां तक बढ़ा कि लोगोंके कंठ तक आ लगा। कई डूबने लगे । फिर शोर मचा और “ माता रक्षा करो ! "" " रक्षा करो ! " की ध्वाने होने लगी । सीताने फिर गम्भीर स्वरमें कहा कि इस बिकट समयमें जिसने मेरी सहायता की है, उससे प्रार्थना है कि वही इन लोगोंकी भी रक्षा करे । वैसा ही हुआ। दैवीलीला संवरण हो गई। (४) सीता, रामके समीप आई । रामने गृह चलनेके लिये कहा, परन्तु आत्म-कल्याणामिलापिनी सीताने अपने सिरके केशोंका लोंञ्च किया और पृथ्वीमति आर्यिकाके निकट दीक्षा ली। अब राम, सीताके वियोगसे फिर दुःखी होने लगे और कहने लगे कि अग्निकुंडसे सीताकी रक्षा कर देबोंने बड़ा उपकार किया । परन्तु उसे मुझसे छुड़ाकर अच्छा नहीं किया, मैं देवोंसे युद्ध करूंगा । लक्ष्मणने बहुत कुछ समझाया । फिर सकल-भूषण स्वामी के समवशरणमें जाकर सम्बोधको प्राप्त हुए । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १४९ रामको इस समवशरण में ही यह विदित हुआ कि मैं इसी भवमें मोक्ष जाऊंगा । (९) राम, लक्ष्मण एक वार सीताकी वन्दनार्थ गये । सीता तपश्चर्या के कारण कुश हो रही थी । सीताकी इस अवस्थाको और पूर्व वैभवकी अवस्थाको देखकर राम, लक्ष्मणने बहुत पश्चाताप किया। फिर दोनोंने प्रणाम किया और घर लौट आये । सीताने घोर तप किया; जिसके फलसे स्त्रीलिङ्ग छेदकर अच्यु-तेन्द्र हुई । पाठ ३५ सकलभूषण | नाम ये विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणीके विद्याधर राजा | इनके पिताका नाम सिंहविक्रम और माताका श्री था। इनके ८०० रानियां थीं। पटरानीका नाम किरणमण्डला था, जो चित्रकला में निपुण थी । अन्य रानियोंके कहने से किरणमण्डलाने अपने मामा के पुत्र हेमसिखका चित्र दीवाल पर बनाया । चित्रको देख सकलभूषणको किरणमण्डलाके चरित्र में संदेह हुआ । परन्तु जब अन्य रानियोंने कहा कि यह हमने आग्रहसे बनवाया था तब सन्देह मिटा । एक दिन फिर कहीं रात्रिको किरणमण्डलाके मुख से स्वप्न में अचानक हेमसिखका नाम निकल गया । अब तो सकलभूषणका संदेह फिर ताजा हो गया । इस पर उन्होंने वैराग्य धारण कर मुनिव्रत ले लिये। किरणमण्डला भी आर्यिका हो गई । परन्तु उसके हृदय में पति द्वारा लगे हुए Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। लांछनका द्वेष बना रहा । वह पवित्र और सुशील थी। इसलिए इस झूठे दोषका द्वेष उसके हृदयसे नहीं निकला । वह मर कर राक्षसी हुई । और फिर सकलभूषण मुनिके तपमें उपसर्ग किया, जिसे सहन करनेसे कर्मोका नाश हुआ।और सकलभूषण कैवल्यो हुए। पाठ ३६. हनुमानका दीक्षा ग्रहण । एक समय वसन्त ऋतुमें हनुमानको जिन दर्शनकी इच्छा उत्पन्न हुई । अतः वे रानियों और मंत्रियों सहित सुमेरु पर्वतः पर गये । वहां रानियों सहित पूजन कर घरको लौटे आ रहे थे। मार्ग में संध्या हो जानेसे सुरदुन्दुभी पर्वत पर ठहर गये। परस्परमें बातें कर रहे थे कि उन्हें आकाशमें एक तारा टूटता हुधा दिखलाई दिया । बप्स, आपको संसारकी असारताका ध्यान आया और दीक्षा लेनेको उद्यत हो गये । दूसरे दिन चैलवान नामक वनमें सन्त-चारण नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिसे दिगम्बरी दीक्षा धारण की । इनके साथ सातसौ पचास अन्य राना ओंने भी दीक्षा ली । अन्तमें घोर तपसे कर्मोको नष्ट कर तुङ्गीगिरि नामक पर्वतसे हनुमान मोक्ष गये । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५१ पाठ ३७. लक्ष्मणके ज्येष्ठ पुत्र । एक समय काञ्चन नगरके राजा काञ्चनरथने अग्नी दो पुत्रियोंका स्वयंवर किया था। उन पुत्रियोंने रामचन्द्र के कुमारों के गले में वरमाला डाली । इस पर लक्ष्मणके ज्येष्ठ पुत्रोंके सिवाय अन्य पुत्र बहुत अप्रसन्न हुए। और सीताके पुत्रोंसे युद्ध करनेको उद्यत हो गये। तब उन्हें लक्ष्मणके ज्येष्ठ आठ पुत्रोंने बहुत कुछ समझा कर शन्त किग । और जगत्की यह स्थिति देख मातापिताकी आज्ञासे आठों पुत्रोंने दीक्षा धारण की । इनके दीक्षा गुरु महाबल नामक मुनिराज थे। कर्मोका क्षय कर लक्ष्मणके *आठों पुत्र मोक्ष गये। पाठ ३८ राम लक्ष्मणके अंतिम दिन (८१) एक बार स्वर्गकी सभामें सौधर्म इन्द्र कह रहा था कि अबकी बार यदि मैं यहांसे चलकर मनुष्य योनि प्राप्त करूं तो अवश्य अपने कल्याणका प्रयत्न करूं। एक देवने कहा कि यह सब कहनेकी वाते हैं। जब मनुष्य योनि प्राप्त हो जाती है तब कुछ याद नहीं रहता । देखिये ! जब रामचंद्र यहां थे तब अपने कल्याणार्थ मनुष्य होनेकी कितनी तीव्र इच्छा प्रगट करते थे । परन्तु अब सब भूल गये । इन्द्रने उत्तर दिया कि राम भूले नहीं हैं किंतु उन्हें लक्ष्मणके साथ इतना भारी स्नेह है कि वे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। - लक्ष्मणको छोड़ नहीं सकते । यह वात सुन देवोंने राम, लक्ष्मणके स्नेहकी परीक्षा करनेकी ठानी। और मध्यलोकमें आकर रामचंद्रके यहां महलोंमें ऐसी कुछ माया फैलायी कि रानियां रोने लगीं । मंत्री शोकाकुल हो गये। फिर लक्ष्मणको संदेश भेजा कि रामचंद्रका देहांत हो गया। इतना कहते ही लक्ष्मण हाय कर गिर पड़े और प्राण पखेरू उड़ गये। अब वास्तवमें शोक छा गया । सारा कुदुम्ब रोने लगा। राजधानी शोकपूर्ण हो गई। राम भी सुनते ही लक्ष्मणके पास आये परन्तु उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि लक्ष्मणका देहांत हो गया । वे तो यही कहते थे कि बालक है । गुम्सा हो गया है । अतएव वे लक्ष्मण के साथ ऐसी बातें करने लगे जैसे कि कोई किसी रूटे हुएको मना रहा हो । विभीषण, विराधित, सुग्रीव जब जब समझाते और कहते कि लक्ष्मणका देहांत हो गया है तब २ रामचंद्र उन्हें कहते कि तुम्हारे कुटुंबियोंका देहान्त हो गया। इस तरह स्नेह में विह्वल हो गये थे। इधर रामचंद्रकी यह स्थिति देख शम्बूकके भाई सुंदरके पुत्रने रावणके नाती अर्थात् इन्द्रजीतके पुत्र वजमालीको उस्काया कि यह समय वैर निकालनेका ठीक है । बस, युद्धकी तैयारी कर अयोध्या पर चढ़ाई कर दी। जब रामसे कहा गया तब लक्ष्मणके शवको कन्धे पर रखकर तीर कमान हाथमें ले रामचंद्र युद्धको निकले । परन्तु स्वर्गसे दो देवोंने आकर सहायता की । अयोध्याका भयानक स्वरूप बनाकर और अगणित सेना मायामय दिखला कर शत्रुओंको भगा दिया। ये दोनों देव पूर्व जन्मके जटायु पक्षी और कृतान्तवक सेनापतिके जीव थे । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५३ 'फिर रामचंद्र शवको लिये २ इधर उधर भटकने लगे । विभीषण आदि राजा भी उनके साथ थे । उक्त दो देवोंने रामको समझानेका प्रयत्न किया। कभी सूखी बालू पैरते थे; कभी सूखे लक्कड़को न्हिलाते थे । जब रामचंद्र कहते कि यह क्या मूर्खता करते हो तब वे कहते कि आप भी तो मूर्खता कर रहे हो जो शवको लिये २ फिरते हो । पर गमके ध्यान में कुछ नहीं आता। एक बार उन देवोंने एक मृत शरीरको लाकर उसे निहलाया और तिलक वगैरह लगाया तब फिर रामने उनसे कहा । उनने कहा कि आप भी ऐपा ही कर रहे हैं । अब रामका भ्रम दूर हुआ और उन्होंने सरयू नदी के तटपर लक्ष्मणके शवका दाह किया । उन देवोंने अपना स्वर्गीय रूप प्रगटकर रामचंद्रसे सब वृत्तांत कहा, जिसे सुनकर राम बहुत प्रसन्न हुए । लक्ष्मणका शब दाह करने के पश्चात रामको वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने सबसे छोटे भाई शत्रुघ्नको राज्य संभालनेकी आज्ञा दी। परंतु उन्होंने भी वैराग्य धारण करने का विचार प्रगट किया । तब अपने नाती अनङ्गलवणके ज्येष्ठ पुत्रको राज्यका भार दिया। उनके पुत्र अनङ्ग लवणादिने दीक्षा धारण की । परंतु रामचन्द्र, पुत्रकी दीक्षाके कारण कुछ भी चिंतित नहीं हुए । रामके समान विभीघणने अपने पुत्र सुभूषणको, सुग्रीवने अङ्गदको अपना राज्य दिया इतने ही में अर्हदास सेठ रामके पास आये । रामने चारों संघके कुशल समाचार पूंछे तब उन्होंने कहा कि यहां भगवान् मुनिसुव्रतके कुलोत्पन्न सुव्रत नामक मुनि आये हैं, जो चार ज्ञानके धारी हैं। यह समाचार सुन सब उक्त मुनिकी वंदनाके लिये Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ दूसरा भागा गये और रामने बिभीषण, सुग्रीव, शत्रुघ्न आदि कुछ अधिक . सोलह हज़ार राजाओंके सहित दीक्षा ली । और सत्ताईस हजार स्त्रियोंने आर्यिकाकी दीक्षा ली । दीक्षा लेकर आपने पहिले पांच उपवास किये । छठवें दिन जब आप नन्दस्थली नगरमें पारनेके लिये गये तब वहां बड़ा आनंद हुआ। कोलाहल होने लगा। हाथी, घोड़े छूट गये । यह देख राजाने प्रनाको आज्ञा दी कि तुम विधि नहीं जानते हो। इसलिये राममुनिको आहार मत देना मैं दूंगा । और अपने सामन्तोंको रामचंद्र के पास भेजकर भोजनार्थ उन्हें बुलाया । इस अंतरायके कारण राम फिर वनमें लौट गये । और फिर पांच दिनका उपवास धारण किया तथा प्रतिज्ञा की कि यदि बनमें ही पारना मिलेगा तो आहार करूंगा अन्यथा नहीं । जिस दिन रामके ये पिछले पांच उपवास पूर्ण होने वाले थे उसी दिन एक प्रतिनन्द नामक राजाको एक घोड़ा ले भागा। और वह उसी वनके सरोवर में राजाको साथ लिये हुए फँस गया। तब उक्त राजाकी रानी भी सामंतोंको साथ लेकर, घोड़ेपर बैठ राजाके पीछे भागी, और राजाके पास पहुंच सरोवरमेंसे उसे निकाला । फिर भोजन बनाया । उपवास पूरे हो जानेके कारण राम भी आहारार्थ उधर निकल आये । राजा, रानीने आहार दिया, जिसके कारण पंचाश्चर्य हुए। विहार करते करते राम कोटिशिला पर पहुंचे, वहां आपने घोर तप किया । रामकी यह स्थिति देखकर सीताके जीवने स्वर्गमें विचार किया कि यदि रामका देहांत होकर यहां स्वर्ग में जन्म हो तो हम दोनों मित्र होकर रहें । इस विचारसे रामके ध्यानको उच्च स्थि. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५५ तिमें न पहुंचने देनेके लिये वह रामके पास कोटिशिला पर आया और सीताका रूप धारण कर तथा अन्य विधाघरोंकी स्त्रियां मायामय बनाकर रामचंद्रसे प्रेमके लिये प्रार्थना करने लगा। परन्तु राम अपने ध्यानसे चलायमान नहीं हुए। अतएव चार घातिया कर्मोका नाश हुआ और माघ सुदी १२ की पिछली रात्रिमें आपको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। देवोंने पूजन की, गन्ध कुटीकी रचना की और विहारकी प्रार्थना की ! विहार हुआ । स्थान २ पर उपदेश दिया गया । अंतमें निर्वाणको पधारे । रामचंद्रकी आयु १७००० वर्षकी थी। शरीर १६ धनुष ऊंचा था। आपने ५० वर्ष तप कर कर्मों का नाश किया और मोक्ष प्राप्त की। (२) अपने पिताको लक्ष्मणके शोकमें विह्वल होते देख अनङ्ग-लवणको बहुत वैराग्य हुआ । और दीक्षा धारण कर दोनों कुमार मोक्ष पधारे। और कुमाङ्ग लवणको बहतको लक्ष्मणके पाठ ३९. रामचन्द्र-लक्ष्मण । [ गत पाठोंमें राम, लक्ष्मण तथा रावणका जो वर्णन किया गया है, वह पद्मपुराणके आधारसे किया गया है । अन्य पाठोंमें तो जहां जहां पद्मपुराण और उत्तर पुराणके कथनमें हमने अंतर पाया वहां वहां नोट आदिमें उसका उल्लेख कर दिया है; पर राम, लक्ष्मणादिके वर्णनमें दोनों शास्त्रोंमें इतना भारी अंतर है कि उसे स्थानके स्थान पर बतला देना एक प्रकारसे कठिन है । अतः दोनों शास्त्रोंके वर्णनको भिन्न भिन्न दो स्वतंत्र पाठोंके द्वारा देना Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दूसरा भाग । उचित समझा गया । अतः इस पाठ में उत्तरपुराणके आधारसे रामादिका वर्णन दिया जाता है। इन दो शास्त्रों में इतना भारी अंतर क्यों है ? इसका अभी कोई शास्त्रीय आधार नहीं मिला है, केवल युक्तियोंसे ही इसका समाधान किया जाता है । श्रीमान स्याद्वादवारिधि, स्वर्गीय पं० गोपालदासजीने एकवार इसका समाधान जैनमित्र पत्र द्वारा इस प्रकार किया था कि इन विरोधसे जैन धर्म तात्त्विक विवेचन पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता । - क्योंकि तात्त्विक विवेचनमें पुण्य और पाप ये दो पदार्थ माने हैं। इन दो पदार्थों के उदाहरण स्वरूप राम रावणादिकी कथाएं हैं । इन कथाओं में यदि किसी व्यक्ति मातापितादिके सम्बंध में यदि कुछ अंतर भी हुआ तो मी उससे पुण्य पापके स्वरूपमें कुछ बाधा नहीं आती । युक्ति और सिद्धांतकी दृष्टिसे पंडितजीक यह कथन पूर्णतया मान्य है । और धर्म मार्गमें युक्ति व सिद्धांत का ही अधिक महत्त्व है; पर इतिहासकी दृष्टिसे इन युक्ति पर अधिक आधार नहीं रखा जा सकता। कुछ भी हो जब तक इस विरोधके सम्बंध में कोई प्राचीन शास्त्रीय आधार नहीं मिलता तब तक हमें पं० गोपालदासजीकी युक्ति पर श्रद्धा रखकर अपने ग्रंथों का पठन पाठन करना ही उचित है । और यह सत्य भी है कि इस प्रकारके विरोधसे हमारे कल्याणके मार्ग में कुछ बाधा उत्पन्न भी नहीं हो सकती । ] , सगरका राज्य न रहने पर दशरथ अपने पुत्र राम लक्ष्मण सहित अयोध्या में आये। पहले बनारस में राज्य करते थे । अयोध्या ही में भरत और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए । इन दोनोंकी माताओंके । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५७ नाम उत्त'पुर ण नहीं है । राजा जनक मिथिलाके राना थे, रानीका नाम वसुधा था । इनकी पुत्रीका नाम सीता था । वह जब युवा हुई तब अनेक राजाओंने उसे मांगा, पर जनकने कहा कि मैं उसे ही दूंगा जिसका दैव अनुकूल होगा । एक दिन नाजा जनकने सभामें कहा कि सगर, सुलमा, विश्वासु जि । यज्ञके कारण स्वर्गमें गये हैं अपनेको भी वह यज्ञ करना चाहिये । इस पर कुशलमति नापतिने कहा कि इस कार्यमें नागकुमार जातिके देव परस्पर मत्सरताके कारण विघ्न डाला करते हैं । और विद्याधरोंके आदि पुरुष नमि, विनमि पर नागकुमारके अहमिंद्रका उपकार है इसलिये वे भी उनकी सहायता करेंगे । यज्ञकी नवीन पद्धति महाकाल नामक असुरने चलाई है उसके शत्रु भी विघ्न करेंगे इसलिये इस कार्य में बलवान सहायकोंकी आवश्यकता है। यदि दशस्थके पुत्र राम लक्ष्मण सहायक हो जावे तो यह कार्य हो सकता है। उन्हें आप यदि सीता देना स्वीकार करेंगे तो वे अवश्य रहायक होंगे । जनकने दशरथको इसी अभिप्रायका पत्र लिखा । तथा अन्य राजकुमारों को भी बुलाया । दशरथने सभामें पूछा तब आगमसार नामक मंत्रीने यज्ञका समर्थन किया और कहा कि राम लक्ष्मणको यज्ञकी सहायतार्थ भेजनेसे दोनों भाइयोंकी अच्छी गति होगी। परन्तु अतिशयमति मंत्रीने इसका विरोध किया कि यज्ञ करनेसे धर्म नहीं होता। महाबल सेनापतिने कहा कि यज्ञमें पाप हो अथवा पुण्य इससे हमें प्रयोजन नहीं । हमें अपने कुमारों का प्रभाव रानाओंमें प्रगट करना चाहिये । दशरथने कहा कि यह विचारणीय बात है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ दूसरा भाग। और मंत्री सेनापतिको विदाकर पुरोहितको बुलाया । और इसी सम्बन्धमें पूछा । पुरोहितने निमित्त शास्त्र तथा पुराणों के अनुसार कहा कि यज्ञमें हमारे दोनों कुमारोंका महोदय प्रगट होगा, यह निःसंदेह है । क्योंकि ये हमारे कुमार आठवें बलभद्र नारायण हैं और ये रावण नामक प्रति नारायणको मारेगें । पुरोहितने रावणके पूर्वभव कहकर कहा कि मेघकूट नगरका राजा सहस्रग्रीव था उसे उसके भाईके वलवान पुत्रने निकाल दिया। सहस्रग्रीव वहांसे निकलकर लंकामें आया और वहां तीसहनार वर्षतक राज्य पिया उसका पुत्र शतग्रीव, इसने २५ हजार वर्ष तक राज्य किया। इसका पुत्र पचासग्रीव था इसने २० हजार वर्ष राज्य किया। ५० ग्रीवका पुत्र पुलसप हुआ । इसने १६ हनार वर्ष राज्य किया। इसकी रानीका नाम मेघश्री था । इनके दशानन नामक पुत्र हुआ । इसकी आयु १४००० वर्षको है । एक दिन यह दशानन अपनी रानीके साथ वनमें कोड़ा करने गया था। वहां विनयाई पर्वतके अचेलक नगरके स्वामी राना अमितवेगकी पुत्री मणिमति विद्या सिद्ध कर रही थी। उस पर यह दशानन आशक्त हो गया और उसकी विद्या हरण कर लो। वह विद्या सिद्धके अर्थ बारह वर्षसे उपवासकर रही थी अतः कश हो गई थी। उसने निदान किया कि मैं इस दशाननको ही आगामी भवमें पुत्री होकर इसे मारूंगी। मरकर वह मंदोदरीके यहां पुत्री हुई । जन्मके समय भूकम्प आदि हुए। निमित्त ज्ञानियोंने कहा कि यही रावणके नाशका कारण होगी। यह सुन रावणको भय हुआ और मारीचको आज्ञा दी कि वह पुत्रीको कहीं छोड़ आवे। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५९ मारोचने मंदोदरीके पास जाकर रावणकी बात कही ! मंदोदरीने दुःखके साथ एक संदूकमें बहुतसा द्रव्य तथा लेख और पुत्रीको रखकर मारीचसे कहा कि इसे निरुपद्रव स्थानमें रखना । मारीच उसे लेकर मिथिला देशके निकट वनमें जमीनमें गाड़ आया । उसी दिन बहुतसे लोग वहां घर बनाने का स्थान देख रहे थे। सो हलकी नोकसे वह संदूक निकली। लोगोंने वह राजाके यहां पहुंचाई। रामाने उसे देखकर वसुधा रानीको दी। वसुधाने उसका पालन छिपे छिपे किया और उसका नाम सीता रखा गया । जनकने जो यज्ञ करने का विचार किया है, उस यज्ञमें रावण नहीं आवेगा क्योंकि उसे मालूम नहीं है। इससे जनक रामको सीता अर्पण करेंगे अतः दोनों कुमारों को वहां अवश्य भेजना उचित है । इस पर राम, लक्ष्मणको सेना सहित दशरथने भेजा। राम लक्ष्मणका जनकने बहुत स्वागत किया। राजाओंके समक्ष जनकके यज्ञकी विधि पूर्ण हो जाने पर जनकने रापके साथ सीताका विवाह कर दिया। कुछ दिनों तक राम, लक्ष्मण जनकके यहां ही रहे। फिर दशरथके बुलाने पर दोनों भाई अयोध्या आये । अयोध्या रामका मात और राजकन्याओंके साथ और लक्षमणका सोलह राजकन्याओंके साथ विवाह किया । फिर राम लक्ष्मणने बनारस नाकर राज्य करने की इच्छा प्रगट की । पहिले तो दशरथने इसका विरोध किया फिर इन दोनोंके आग्रहसे रामको राज्य मुकुट पहना कर और लक्ष्मणको युवरान पद देकर विदा किया । राम लक्ष्मण बन रस में सुख पूर्वक रहने लगे। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० दूसरा भाग एक दिन रावण अपनी सभ में बैठा हुआ था । शत्रुओं को रुलाने के कारण इसका नाम रावण पड़ा था । इस सभा में नारदः गये । नारदने सीताके रूपकी प्रशंसा की और कहा कि वह तुम्हारे योग्य है | जनकने तुम्हें न देकर बहुत अनुचित किया है । रावण कामांध होकर सीताके हरणका विचार करने लगा । मारीच मंत्री से सलाह पूछी परन्तु मारीचने कहा कि यह कार्य उचित नहीं । रावणने नहीं माना तब मारीचने कहा कि किसी दूतीको भेजकर उसके मनका भाव जानना चाहिये कि वह आप पर आशक्त है या नहीं । यदि वह अशक्त हो तो विना अधिक कष्टके ही बुला ली जाय । यदि नहीं तो जवरदस्ती हरण की जाय । रावणने इस उपाय के अनुसार सूर्पणखा दूतीको बनारस भेजा । उस समय राम, लक्ष्मण चित्रकूट वनमें बनक्रीड़ा कर रहे थे । रामके रूपको देख कर सूर्पणखा स्वयं मोहित हो गई । एक जगह अशोक वृक्षके नीचे सीता अपनी सखियों सहित बैठी थी। सूर्पणखा वृद्धाका रूप धारण कर उनके मनका भाव जानने आई । उस वृद्धाको देखकर दूसरी सखियां हंसने लगीं । और पूछा कि तुम कौन हो ? उसने कहा कि मैं इस बनके रक्षककी माता हूं । तुम बड़ी पुण्यवान् हो मुझे बताओ तुमने कौनसा पुण्य किया है जिससे ऐसे महा पुरुषोंकी स्त्री हुई हो, मैं भी वही पुण्य करके इनकी स्त्री बनूंगी और दूसरी स्त्रियोंसे उन्हें परांगमुख करूंगी । इस कथन पर सब हँस पड़ीं । बहुत कुछ हँसी के बाद सीताने कहा - बुढ़िया तू इस स्त्री पर्यायको अच्छी समझती है, यह तेरी भूल है । सीताने स्त्री पर्यायके दोष बताकर अपने ही पतिमें Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहाम। १११ सन्तोष रखनेका उपदेश दिया कि सतीत्व ही स्त्री पर्यायमें एक अमूल्य वस्तु है । सती स्त्रियां अपने सतीत्वके प्रतापसे सत्व हरण करनेवालेको भस्म तक कर सकती हैं। उसकी इन बातोंसे सीताका अहोल पित्त समझ सूर्पणखा वहांसे गई । और रावणसे सब हाल कहा । तथा वहांके भोग, बल आदिकी भी प्रशंसा की। तब रावणने कहा तूं चतुर नहीं है । तुझे स्त्रीका स्वभाव नहीं मालूम । ऐसा कह पुष्पक विमान द्वारा मारीच मंत्रीके साथ वह स्वयं भाया । चित्रकूट बनमें आकर रावणकी आज्ञासे मारीच ने मणियोंसे बने हुए हरिणके बच्चे का रूप बा लिया । और सीताके सामनेसे निकला । सीताने रामसे कहा कि देखिए कैसा प्यारा और आश्चर्य जनक ह रण है ? रामने भी आश्चर्य किया और उसे पकड़ने चलें । वह कभी भागता कभी थम जाता कभी छलांग मारता था। इस तरह वह रामको बहुत दूर ले गया । राम कहते थे कि यह मायामई हरिण है इसके पीछे जाना निरर्थक है । तो भी पकड़नेको जाते हो थे । अंतमें वह आकाशमें उड़ गया राम देखते ही रह गये । इधर रावण राम का रूप धारण कर आया और सीतासे कहा कि चलो घर चलें, शामका समय हो गया है । पुष्पक विमानको पालकी बनालिया और उसमें सीताको विठाकर लंका लाया । और एक वनमें रख कर अपना रूप प्रकट कर दिया तथा सीताको उसके लानेका कारण बतलाया । सीता यह देखकर मूर्छित हो गई । रावणने उसे आकाश गामिनी विद्या नष्ट हो जानेके भयसे अभी तक स्पर्श नहीं किया था । दृतियोंको मेन कर उसकी मूर्छा दूर कराई । दूतियोंने बहुत समझाया कि तू Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दूसरा भाग रावणको स्वीकार कर पर सीताने मुंहतोड़ उत्तर दिया । अंतमें सीताने विधवाके समान रूप धारण कर प्रतिज्ञा की कि जब तक राम क्षेम कुशलके समाचार न सुन लुंगी तब तक न तो बोलूंगी और न खाऊंगी। वह संसारकी असारताका चितवन करती हुई वहां अपना समय व्यतीत करने लगी । लंकामें रावणके लिये अनिष्ट कारक उत्पात होने लगे । उसकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। रावणको उसका फल नहीं मालूम था अतः वह बहुत प्रसन्न हुआ ! मंत्रियोंने उसके इस परस्त्री हरण रूप कृत्यका बहुत विरोध किया, पर वह नहीं माना। उसने कहा देखो सीता के आते ही मेरे यहां चक्ररत्न उत्पन्न हुआ यही शुभ लक्षण है । उधर राम हरिणके पीछे २ बनमें बहुत दूर चले गये थे । रात्रि हो गई थी। रामके शिविर में सीता और रामको न देख उनके कर्मचारी बहुत घबड़ाये । सुबह होते ही जब राम आये तब उन्होंने सीताको न देख कर्मचारियोंसे पूछा । उन लोगोंने कहा हमें नहीं मालूम सीता कहां है ? यह सुन राम मूर्छित हो गये । सीता को बहुत ढूंढा पर पता नहीं चला । उसका एक ओढ़ने का कपड़ा मिला उसे लोगोंने रामको लाकर दिया । राम सब बात समझ गये और लक्ष्मणके साथ चिंता करने लगे । इतने ही में दशरथ महाराजका दूत रामके पास आया । उसने क कि दशरथको स्वप्न आया है कि चन्द्रकी स्त्री रोहिणीको राहु हर ले गया है और चंद्रमा अकेला रह गया है। इसका फल पूछने परनिमित्तज्ञानियोंने कहा है कि सीताको रावण हर लेगया है। और राम अकेले रह गये हैं, यह समाचार दशरथने भेजा है 1 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | १६३ और यह पत्र दिया है। रामने पत्रको मस्तकसे लगा कर पढ़ा । उसमें लिखा था कि यहांसे दक्षिणकी ओर समुद्र में छप्पन महा द्वीप हैं वे चक्रवर्तीकी आज्ञामें तो सब रहते हैं और नारायणकी आज्ञामें आधे रहते हैं इनमें लंका महा द्वीप है जो कि त्रिकूटाचल पर्वतसे सुशोभित है । उसमें आजकल रावण राज कर रहा है । वह दुष्ट राजा है । उसने सीताका हरण किया है । और अपने नगर में ले जाकर रखा है । इस लिये जब तक उसके छुड़ा नेका उद्योग हम करें तब तक वह अपने शरीरकी रक्षा करती रहे, यह समाचार सीताके पास भेज देना उचित है । रामका इस पत्रके पढ़ने से शोक तो दूर हो गया; परन्तु रावण पर क्रोध आया । इसी समय दो विद्याधर रामसे मिलने आये उनमें से एक अपना परिचय इस प्रकार दिया कि विजयार्द्धकी दक्षिण श्रेणी में किलकिल नामक नगर के राजा वलीन्द्र थे । उनकी रानीका नाम प्रियंगु सुंदरी था । उनके दो पुत्र वालि और सुग्रीव । जब पिताने दीक्षा ली तब वालिको राजा और मुझे सुग्रीवको युवराज बनाया ! परन्तु कुछ काल बाद मेरे बड़े भाईने मुझसे मेरा पद छीन घरसे निकाल दिया । और मेरे साथमें आये हुए इन युवकका नाम अतिवेग है । यह विद्युत्कांता नगरके राजा प्रभजन विद्याधरकी रानी अंजनाका पुत्र है । यह तीनों तरहकी विद्याएं जानता है । अखंड पराक्रमी है । एक वार विद्याधरोंके कुमार अपनी ८ विद्याओंकी शक्तियोंकी परीक्षा करने विजयार्द्ध पर्वतके शिखर पर गये । वहां इनने अपने बायें पदसे सूर्यमंडलको विद्याके जोर से ठोकर मारी | फिर अपना शरीर त्रसरेणुके समान बना लिया । इससे = Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। लोग बड़े प्रसन्न हुए। और इनका नाम हनुमान भी रखा । यह मेरे प्राणोंसे भी प्यारा मित्र है । इसके साथ हम सम्मेदशिखरकी वंदना करने गये थे वहां सिद्धकूट पर नारद आये उनसे मैंने पूछा कि मेरा पद युवरान पीछा मिलेगा या नहीं। उन्होंने कहा कि राम लक्ष्मण शीघ्र ही बलभद्र नारायण होने वाले हैं सो तुम यदि उनके काम आओ तो हो सकता है और वह काम यह है कि रावण सीताको हर लेगया है तुम यदि पता लगादो तो ठीक है । यह सुन हम आपके पास आये हैं । फिर हनुमानने कहा कि भाप सीताके चिन्ह बतलावें मैं ढूंढ कर लाऊंगा । रामने चिन्ह बताए और अपनी अंगूठी दी। हनुमान उसे लेकर लंकाको चले । लंका बड़ी सुसजित नगरी थी उसके मणियोंके बने हुए कोट और ३२ दर्वाजे थे । हनुमान भ्रमरका रूप धारण कर पहिले रावणकी सभ में गये जब वहां सीता नहीं देखी तब अन्तःपुरके पीछेके दर्वाजेसे कोट पर चढ़कर देखा तो नंदनवन पास दिखलाई दिया अतः वे वहां गये। वहीं शीशमके वृक्षके नीचे सीता बैठी हुई थी। कई दूतियां उसे समझा रहीं थीं । हनुमान वृक्षपर जा बैठे । फिर रावण आया । उसने भी समझाया पर सीता नहीं मानी । मंदो. दरीने आकर रावण को समझाया कि यह कार्य उचित नहीं पर रावणने नहीं माना । रावण चला गया । मन्दोदरीको सीताको चेष्टासे मालूम हुआ कि शायद यह मेरी ही पुत्री है । उसके हृदयमें प्रेम उमड़ा । और स्तनोंसे दूध झरने लगा । मंदोदरीने सीताको यही उपदेश दिया कि तू अपना शील भंग मत कर । और शरीर रक्षार्थ भोजन अवश्य कर । मंदोदरीके जानेपर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास। १६९ रक्षकों को विद्याके बलसे निद्रामें मग्नार हनुमान बंदरके रूपमें सीतासे मिले । और रामके सब हाल तथा संदेश कहे । पहले तो सीताको संदेह हुआ पर फिर वह निसन्देह हो गई । और भोजन करना स्वीकार किया । हनुमान वहांसे रवाना होकर रामके पास आये, सब समाचार रामसे कहे । रामने आगे क्या करना उचित है, इसका विचार मंत्रियोंसे किया । रामने हनुमानको सेनापतिका पद दिया । और सुग्रीवको युवरान बनाया. मंत्रीने कहा कि पहिले राजनीतिके अनुसार शाम भेदसे ही काम लेना चाहिये और इसलिये हनुमानको दूत बनाकर रावणके पास भेजना उचित है । तब मनोवेग, विनय, कुमुद और रविगति राजाके साथ हनुमानको दूत बनाकर भेना । और 'विभीषणको भी राम्ने संदेश भेजा । हनुमानने बिभीषणसे रामका संदेश कहा कि आप धर्मके माननेवाले विद्वान् , दूरदर्शी और रावणके हितैषी हैं । रावणने यह काम उचित नहीं किया है अतः आप उन्हें मझावें । हनुमानने यह संदेश कहकर स्वयं रावणसे मिलनेकी इच्छा प्रगट की । बिभीषण हनुमानको रावणके पास ले गया । हनुमानने मीठे वचनोंसे रावणको बहुत कुछ सीता वापिस करनेके लिये समझाया पर वह न माना । किन्तु हनुमान को राजसभासे निकल जानेकी आज्ञा दी। तब हनुमान लौट कर रामके पास आये । राम सब समाचार सुन युद्धको तयार हुए, और चित्रकूट वनमें पहुंचे । वर्षाऋतु वहीं व्यतीत की। वहां वालि विद्याधरने कहलवाया कि यदि आप मुझसे सहायता लेना चाहें तो हनुमान, सुग्रीवको निकाल दें मैं अभी सीताको Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ दुसरा भाग + छुड़ा लाऊंगा | रामने मंत्रियोंकी सम्मति से यह विचार निश्चित किया कि यदि इसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं करेंगे तो यह रावणका सहायक हो जायगा अतः पहिले इसे ही मारना उचित है और उसके दूतसे कहा कि तुम्हारे यहां जो महामेघ हाथी है वह हमें दो और हमारे साथ लंका चलने को तैयार होओ फिर तुम्हारे कथन पर विचार किया जायगा । वालि इस उत्तरसे बड़ा क्रुद्धः हुआ | अतः राम, लक्ष्मणके साथ उसका युद्ध हुआ और वह मारा गया । तत्र सुग्रीवको उसका राज्य दिया । सुग्रीव अपनी किष्किंधा नगरी में रामको लाया । और मनोहर नामक उद्यानमें ठहराया। यहां रामके पास १४ अक्षोहिणी सेना हो गई थी । लक्ष्मणने शिवघोष मुनिके मोक्षस्थल जगत्पाद पर्वत पर सात दिनका उपवास धारण कर पूजा की और प्रज्ञप्ति नामक विद्या सिद्ध की। सुग्रीवने भी अनेक व्रत उपवास कर सम्मेद पर्वतको सिद्धशिला पर विद्याओंकी पूजा की तथा अनेक विद्याधरोंने भी विद्याओंकी पूजा की और फिर सेना लंकाके लिये रवाना हुई । इधर रावणको कुंभकर्ण आदि भाइयोंने सीता देने को बहुत समझाया; पर वह नहीं माना । विभीषणने भी बहुत कुछ कहा पर वह बिल्कुल न माना और उसे अपने राजसे निकाल दिया । तब विभीषण रामसे आकर मिला । रामके यहां उसका बहुत आदर सत्कार हुआ। जब रामकी सेना समुद्र के किनारे पहुंची तब हनुमानने रामसे लंकामें उपद्रव आदि करनेकी आज्ञा मांगी। जब रामने साज्ञा दे दी तब अनेक विद्याधरोंके साथ हनुमान Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास । ११७ . लंकामें गया। और वहां वन उद्यान वगैरह नष्ट किये, व उनके रक्षकोंको मारा और लंकामें आग लगाई । फिर लौट कर युद्धार्थ अपनी सेना तैयार कर रखी । विभीषणसे रामने पूछा कि रावण युद्ध करने क्यों नहीं आया ? तब विभीषणने कहा कि वह बालिका परलोक गमन व सुग्रीव, हनुमानके अभिमानके समाचार सुन आदित्यपाद पर्वत पर आठ दिनोंका उपवास धारण कर राक्षस आदि विद्याएं सिद्ध करने बैठा है इन्द्रजीत उसका पुत्र उसका रक्षक है । इसमें विघ्न डालना चाहिए । इसलिये राम लक्ष्मणने प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा बहुतसे विमान बना अपनी सेना लंकाके बाहर पहुंचाई । और कई विद्याधरोंको पर्वतपर लड़ने मेना उस समय पहिलेकी सिद्ध विद्याओंसे व देवताओंसे इन्द्रनीत और रावगने युद्ध करनेके लिये कहा; पर उन्होंने कहा कि आपका पुण्य क्षीण हो जानेसे हम युद्ध नहीं कर सकते । तब रावण स्वयं युद्ध के लिये तैयार हुआ । और सुकुंभ, निकुंभ, कुम्भकर्ण आदि भाई इन्द्र नीत, इंद्रकीर्ति, इन्द्रवर्मा आदि पुत्र, महामुख, अति काम, खरदूषण, धूम आदि विद्याधरोंके साथ युद्ध करने निकला । दोनों ओरसे कई दिनोंतक घनघोर युद्ध होता रहा । अन्तमें आकाशमें भी युद्ध हुआ । रावणका जब कोई वश नहीं चला तब उसने चक्र - चलाया । चक्र. लक्ष्मणके हार्थोमें आकर ठहर गया, लक्ष्म गने उसीसे रावणका सिर काटा । रावण मस्कर पहले नरक गया। रामने विभीषणको रावणका राज्य और सब संपदा दी तथा मंदोदरीको समझा बुझा दिया । राम लक्ष्मण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ दूसरा भाग । तीन खण्डों के स्वामी हुए । सीता उन्हें मिल गई । फिर लंकासे रवानह होकर राम लक्ष्मण मीठ नामक पर्वतपर ठहरे। वहां विद्याधरोंके राजाओंने दोनोंका १००८ कलशोंसे अभिषेक किया और लक्ष्मणने वहीं कोटिशिला उठाई । उससे प्रसन्न हो रामने सिंहनाद किया | वहां के रहनेवाले सुनंद नामक भाइयोंकी पूजा की और सानंद नामक तलवार दी । फिर दोनों भाई गंगा के किनारे २ गये समुद्र में मिलती है वहां डेरे डालकर बड़े द्वारसे लक्ष्मण समुद्र में गये और मगधदेवके निवास स्थानको निशाना बनाकर अपने नामका बाण छोड़ा । मगधने अपनेको बड़ा पुण्यवान समझ लक्ष्मण चक्रवर्तीकी स्तुति की तथा रत्नोंका हार मुकुट और कुंडल भेटमें दिये । फिर समुद्र के किनारे २ जाकर वैजयंत द्वारपर वरतनु नामक देवको वश किया । उसने कटक, अंगद, चूड़ामणि, हार, करधनी भेटमें दी । फिर दोनों भाई पश्चिमको ओर जाकर सिंधु नदीके बड़े द्वारसे समुद्रमें घुसे और प्रभास नामक देवको विजय किया । उसने सफेद छत्र तथा वहांकी उत्तमोत्तम वस्तुएँ और अन्य आभूषण दिये । इसके बाद सिंधु नदीके किनारे २ जाकर पश्चिम की ओरके म्लेच्छ खंड निवासियोंको तथा वहांकी उत्तमोत्तम वस्तुएं अपने आधीन कीं । विद्याघरोंको बश कर हाथी, घोड़े, शस्त्र, कन्याएं, रत्न आदि प्राप्त किये । वहांसे चलकर पूर्व खंडके म्लेच्छ देशोंके राजाओंको वश किया । इस प्रकार ४२ वर्षमें दिग्विजय कर अयोध्या में बहुतसे देव, विद्याधर राजा आदिके साथ प्रवेश किया । शुभ मुहूर्तमें सम्राट 1 यक्षने उन दोनों लक्ष्मणको भेटमें और जहां गंगा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जनै इतिहास | १६९ पदका अभिषेक हुआ । इनके आधीन सोलह हज़ार मुकुटबंध राजा थे। और सोलह हज़ार देश आधीन थे । ९८९० द्रोणमुख, २९००० पत्तन, ११००० कर्वट, १२००० मटंव और ८००० खेटक थे । ४८००००००० ग्राम थे । २८ द्वीप थे । ४२००००० हाथी, ९००००००० घोड़े और ४२००००००० पैदल सेना थी, ८००० गणबद्ध जातिके देव भी इनके आधीन थे । बलभद्रके ४ रत्न और नारायण लक्ष्मणके ७ रत्न थे । प्रत्येक रत्नके एक हजार २ देव रक्षक थे । एक दिन मनोहर वनमें दोनों भाइयोंने शिवगुप्त नामक जिनराजके दर्शन और उनकी पूजा की। और धर्मका स्वरूप पूछा । तथा श्रावकके व्रत लिये । लक्ष्मण नरकायु बंध कर चुका था । अतः उसे सम्यक्त्व नहीं हुआ । फिर दोनों भाई अयोध्याका राज्य भरत व शत्रुघ्नको दे आप बनारस आकर रहने लगे । और भोगविलासमें लीन हो गये। रामके विजयराम नामका पुत्र हुआ । और लक्ष्मणके पृथ्वीचंद्र नामक पुत्र हुआ । कुछ दिनों बाद लक्ष्मणने नागशय्या पर सोये हुए स्वप्न देखे कि मस्त हाथी द्वारा बड़का वृक्ष उखड़ा है । राहु द्वारा ग्रसित सूर्य रसातलमें चला गया है और चूनेसे पुते हुए महलका एक अंश गिर गया है । रामसे लक्ष्मणने उन स्वप्नोंको निवेदन किया । रामने पुरोहितसे पृछा । पुरोहितने कहा कि पहिलेका फल असाध्य रोगसे लक्ष्मणका रोगी होना है, दूसरेका फल भोगोपभोगकी वस्तुओंका नाश है और तीसरेका फल रामका तपोवनमें जाना है । यह फल सुन धीरवीर राम अधीर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूमरा भाग, न हो दानादि करने लगे। राज्यमें जीव वध नहीं होनेकी घोषणा कराई । कुछ दिनों बाद लक्ष्मण असाध्य रोगी हुए और माघकृष्ण अमावशके दिन उनकी मृत्यु हुई । शोकसे संतप्त रामने ज्ञानवान् होनेके कारण अपने आपको संभाला और दाह किया । तथा लक्ष्मणके पुत्र पृथ्वीचन्द्रको राज्य दिया। और उनके विजयराम आदि सात पुत्रोंने जब राज्यलक्ष्मी लेनेकी अनिच्छा प्रगट की तब आठवें पुत्र अनितरामको युवराज पद दे मिथिला देशका राज्य दिया । फिर अयोध्याके समीप सिद्धार्थ वनमें शिवगुप्त केवलीसे रामने हनुमान, सुग्रीव, विभीषण आदि पांचसौ राजाओंके साथ दीक्षा ली । सीता, पृथ्वी, सुंदरी आदि आठ रानियोंने भी श्रुतवती आर्थिकासे दीक्षा ली। पृथ्वी, सुंदर और अजितजयने श्रावकके व्रत लिये तथा राजधानीमें प्रवेश किया । साढ़े तीनसौ वर्षातक तप करने पर रामको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और छहसौ वर्ष केवलि अवस्थामें व्यतीत कर फाल्गुन शुक्ल १४ के दिन सम्मेदशिखरसे हनुमान आदिके साथ निर्वाण प्राप्त हुए । विभीषण सर्वार्थसिद्धि गये । और लक्ष्मण ४थे नरक गये । तथा सीता, पृथ्वी, सुंदरी आदि रानिया अच्युत स्वर्गमें देव हुई। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट क, ख, की सूचना। -HOK-- पृष्ठ ४ और १२ में जो परिशिष्ट 'क' 'ख' का उल्लेख किया गया है उसके लिये निवेदन है कि पहिले इन परिशिष्टोंमें चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायणकी संपत्ति आदिका वर्णन देनेका विचार था; परन्तु पहले भागमें यह वर्णन दिया जा चुका है तथा बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायणकी संपत्तिका वर्णन इसी भागमें राम, रावणके पाठोंमें भी किया गया है, अतः पृथक् रूपसे परिशिष्टोंमें वर्णन करना उचित नहीं समझा गया । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 'ग' श्री तीर्थंकरोंके चिन्ह। -80 नाम चिन्ह बराह बज्रदंड मृग श्री विमलनाथ श्री अनंतनाथ श्री धर्मनाथ श्री शान्तिनाथ श्री कुंथुनाथ श्री अरहनाथ श्री मल्लिनाथ श्री मुनिसुव्रतनाथ अन (बकरा) मछली कलश कछुवा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- _