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प्राचीन जैन इतिहास | १०७
(१८) इस पर्वत पर रामचन्द्रने बहुतसे जिन मन्दिर बनवाये । फिर यहांसे आगे चले | आपने दण्डक वनमें करनखा नदीको जानेका विचार किया । उस समय उस वन में भूमि - गोचरी नहीं जा पाते थे । परन्तु आपके साहसके आगे क्या कठिन था । इसी साहस के बल दक्षिण दिशाके समुद्रकी ओर जा कर वहांसे दण्डक बनमें गये । और करनखा नदीके तट पर पहुंचे । सुकुमारी सीताके कारण आप बहुत धीरे अर्थात् प्रतिदिन केवल एक कोश ही चला करते थे । वनमें पहुँच कर आपने भोजन सामग्री के लिये मिट्टी और बांसके बरतन बनाये और उनमें फलफूलों का आहार बनाया । वह मुनियोंके आहारका समय था । अतएव आप मुनि - आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे । भाग्योदयसे उस वीहड़ वनमें दो चारण ऋद्धिधारी साधु जिनके नाम क्रमशः सुगुप्ति और गुप्ति थे वहीं आ पहुंचे । ये मुनि तीन ज्ञानके घारी थे और मासोपवास करते थे । जब राम लक्ष्मण और सीता साधु द्वयको नवधा भक्ति पूर्वक आहार देनेको उद्यत हुए उसी समय पासके वृक्षपर बैठे हुए गृद्ध पक्षीको जाति स्मरण ( पूर्व जन्मका ज्ञान ) हुआ और वह उड़कर मुनियोंके चरणों में आ पड़ा उसके पड़ने का घोर शब्द हुआ तथा उस बदल गया । उसका वर्ण सुवर्ण समान हो गया । मुनियोंने आहार ग्रहण कर उस देश दिया और श्रावकके व्रत दिये । तथा राम, रहने की आज्ञा दी । रामने इस पक्षीका नाम जटायू रक्खा
पक्षीका वर्ण भी और वैदूर्यके
पक्षीको उप
लक्ष्मणके साथ